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________________ "सेणं अंगठ्ठायाए नवमे अंगे, एगे सुअक्खंधे, तिण्णि वग्गा, तिणि उद्दसणकाला, तिण्णिसमुद्देसण काला....." __अर्थात् नौवें अंग में एक श्रुतस्कन्ध, तीन वर्ग, तीन उद्देसणकाल, तीन समुद्देसणकाल......"हैं। दिगम्बर-परंपरा के ग्रन्थों राज-वातिक, धवला, जयधवला तथा अंग प्रज्ञप्ति में भी अनुसरोपपातिक से संबंधित निर्देश प्राप्त होते हैं । राजवातिक में इसके दस अध्ययनों का उल्लेख इस प्रकार है- "अनुत्तरोपपातिका:-ऋषिदास धन्य-सुनक्षत्रकार्तिक-नन्द-नन्दन-शालिभद्र-अभय-वारिषेण-चिलातपुत्ता इत्येते दश वर्धमान तीर्थंकरतीर्थे । धवला में भी उपरोक्त वर्णन ही है । इसमें केवल कार्तिक के स्थान पर कातिकेय तथा नन्द के स्थान पर आनन्द नाम प्राप्त होता है । जयधवला में किसी विशेष नाम का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है । अंग प्रज्ञप्ति में नामों के क्रम में अन्तर है । इसमें दस नाम इस प्रकार हैं -- ऋषिदास, शालिभद्र, सुनक्षत्र, अभय, धन्य, वारिषेण, नंदन, नंद, चिलातपुत्र और कार्तिक । घवला में अनुत्तरोपपातिकदशा का परिचय देते हुए इसकी पद संख्या ९२४४००० बतलायी गयी है । - अणुत्तरोववादियदसाणाम अंग वाणउदि लक्खचौयाल-सहस्स-पदेहिं ९२४४००० एक्केक्कम्हि य तित्थेदारूणे बहुविहोवसग्गे सहिऊण वाडिहेरं लद्धण अणुत्तर-विभाणं गदे दस-दस वण्णे दि । अर्थात् अनुत्तरोपपातिक दशा नामक अंग बानवे लाख चबालस हजार पदों द्वारा एक-एक तीर्थ में नाना प्रकार के दारुण उपसर्गों को सहकर और प्रतिहार्य अर्थात् अतिशय विशेषों को प्राप्त करके पांच अनुत्तर विमानों में गये हुए दस-दस अनुत्तरोपपातिकों का वर्णन करता है। जयधवला टीका' में भी पदों की संख्या उतनी ही कही गयी है । पद संख्या के विषय में नन्दीसूत्र में कहा है - "संखेज्जाइं पय सहस्साई पयग्गेण" । अर्थात् इस सूत्र में संख्येय हजार पद हैं । नन्दीसूत्र के विवरणकार मलयगिरि के अनुसार 'पदसहस्राणि पदसहस्राष्टाधिक-षट् चत्वारिंशत् लक्षप्रमाणानि वेदितव्यानि" अर्थात् छयालीस लाख और आठ हजार पद हैं।" समवायांग में वर्णित "संखेज्जाइं पयसयसहस्साई पयग्गेणं" का भी अर्थ विवरणकार अभयदेव सूरि ने संख्येय अर्थात् छयालीस लाख आठ हजार पद किया है । इसके अभिप्राय को स्पष्ट करते हए नन्दी सूत्र के टीकाकार कहते हैं-"पद परिमाणं च पूर्वस्मात् अंगात उत्तरस्मिन् उत्तरस्मिन, अंगे द्विगुणमवज्ञेयम्' अर्थात् प्रथम अंग की पद संख्या प्रत्येक अगले अंग में दो गुणा हो जाती है यानी आचारांग में अठारह हजार पद हैं तो सूत्र कृतांग में छत्तीस हजार, स्थानांग में बहत्तर हजार, समवायांग में एक लाख चवालीस हजार, भगवती में दो लाख अट्ठासी हजार, ज्ञाताधर्म कथा में पांच लाख छिहत्तर हजार, उपासकदशा में ग्यारह लाख बावन हजारः अन्तकृतदशा में तेईस लाख चार हजार तथा अनुत्तरोपपातिक दशा में छियालीस लाख आठ हजार पद हैं । परन्तु समवायांग में वर्णनक्रम में भगवती सूत्र की पदों की संख्या चौरासी हजार ही उल्लिखित है । वस्तुत: ये परम्परागत मान्यताएं हैं। वर्तमान में अनुत्तरोपपातिक में उपरोक्त संख्या में अक्षर भी नहीं हैं। २५८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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