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________________ 'अनुत्तरोपपातिक' की विषय-वस्तु अतुलकुमारप्रसाद सिंह जैन आगम दो भागों में विभक्त है-अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य । प्रथम विभागअंग प्रविष्ट में बारह अंग हैं। उनमें अनुत्तरोपपातिकदशा नौवा अंग है । स्थानांग सूत्र में वर्णित दस दशाओं में इसका स्थान चौथा है । यथा “दस दसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा कम्मविभागदसाओ, उवासगदसाओ, अंतगडदसाओ, अणुत्तरोववाइयदसाओ, आयारदसाओ, पण्हावागरणदसाओ, बन्धदसाओ, दोगिद्धिदसाओ, दीहदसाओ, संखेवियदसाओ।' 'अनुत्तरोपपातिकदशा' पद अनुत्तर+उपपात+दशा इन तीन शब्दों के समूह से बना है । इसका अर्थ है-अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने वालों की अवस्था या अनुत्तर विमान में उत्पन्न होने वाले दस लोगों का वर्णन या दस अध्ययन। जैनदर्शन के अनुसार पुरुषाकार लोक के नीचे भाग में सात नरक अवस्थित हैं । मध्यभाग में जंबूद्वीप, धातकी खण्ड, पुष्करार्धद्वीप, लवण, कालोदधिः पुष्करोदधि आदि द्वीप-समुद्र और मानुषोत्तर आदि पर्वत हैं । इनमें मनुष्य और तिथंच रहते हैं । ऊर्ध्वलोक में वैमानिक देवताओं का वासस्थान है जो अपने-अपने विमानों में रहते हैं। वैमानिकों के सौधर्म से लेकर अच्युत विमान तक बारह स्वर्ग हैं जो एक दूसरे के ऊपर अवस्थित हैं । लोक के ग्रीवास्थान में नौ ग्रेवेयक विमान हैं। इनके ऊपर बाइसवें से छब्बीसवें तक विजय, जयन्त, वैजयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि ये पांच अनुत्तर विमान माने गये हैं। इसके ऊपर सिद्धशिला है । अनुत्तरोपपातिक में इन्हीं अनुत्तर विमानों में उत्पन्न होने वालों का वर्णन है। स्थानांग सूत्र में अनुतरोपपातिदशा के दस अध्ययनों का उल्लेख है ।' अणत्तरोववातियदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, तं जहा"इसिदासे य धणणे य, सुणक्खत्ते कातिय ति य । संठाणे सालिभद्दे य, आणंदे तेतली ति य ।। दसण्णभद्दे अतिमुत्ते, एमेते दस आहिया ॥ अर्थात् अनुत्तरोपपातिकदशा में दस अध्ययन हैं-ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिक, संस्थान, शालिभद्र, आनंद, तेतली, दशार्णभद्र और अतिमुक्तक । 'समवायांग' में दस अध्ययनों की सूचना है पर इनके नाम नहीं दिये गये हैं। समवायांग में कहा है'---से णं अंगठ्ठाय नवमे अंगे, एगे सुयक्खंधे दस अज्झयणा, तिन्नि वग्गा, दस उद्देसणकाला, दस समुद्देसणकाला...'। अर्थात् नवमें अंग में एक श्रुतस्कन्ध, दस अध्ययन, तीन वर्ग, दस उद्देसणकाल, दस समुद्देसणकाल......हैं। 'मन्बी सूत्र' में अनुत्तरोपपातिक दशा का परिचय देते हुए कहा गया है बन्न २२, क४ २५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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