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________________ इस प्रकार तीर्थ, दीक्षा पर्याय, आगमिक ज्ञान आदि की उपयुज्य मर्यादा आगम के अनुसार वक्तव्य है । वस्तुतः अचेलकत्व आदि कल्प दस प्रकार का है। उनमें अचेलक कल्प तो स्पष्ट ही है किन्तु मध्यम तीर्थवर्तियों भी सामायिक संयत चार प्रकार का कल्प होता है जो सर्वथा धारण योग्य है । कहा भी गया है कि शय्यातर पिण्ड का परित्याग, कृतिकर्म, व्रतादेश और पुरुष ज्येष्ठत्व – ये चार प्रकार का अवस्थित कल्प है तथा अवस्थित कल्प छह प्रकार का है- आचेलक्य, औद्देशिक, राजपिण्डत्याग, मासकल्प, वर्षाविधिः और प्रतिक्रमण विधान - ये विकल्प सहित कल्प हैं । आदिम और चरम तीर्थंकरों के तीर्थ में व्यवस्थित कल्प दस प्रकार का होता है । भगवान् श्री वर्धमान चन्द्र के तीर्थ में भी यथावत् दस प्रकार का इष्ट कल्प है । तीर्थकृत विषम उपदेश का यह पुनर्कथन इसलिए है कि भगवान् ऋषभ के तीर्थभव में मनुष्य आर्जवजड़ होते थे और भगवान् महावीर के तीर्थभव में वे अनार्जवजड़ हैं । इसलिए स्थित कल्प कहा गया है । आलक्य तो सत्य है और वह जैसा कहा गया है वैसा ही परिपालनीय है किन्तु तीर्थंकर कल्प विशिष्ट है । जन्मजात मति श्रुत-अवधि ज्ञानी और प्रतिपन्न चारित्र से चतुर्थ ज्ञान को पाने वाले तीर्थंकरों के लिये पाणिपात्र भोजित्व और केवल एक देव दृष्य परिग्रह सर्वथा उचित है किन्तु उनके द्वारा उपदिष्ठ आचार को पालन करने वाले साधु तो जीर्ण, खण्डित और सर्वतनुप्रावरण होने से श्रुत उपदेश के कारण इस प्रकार वस्त्रधारी होकर भी अचेलक ही हैं । जैसे नदी को पार करते समय शाटक- परिवेष्टितशिर पुरुष सवस्त्र होने पर भी नग्न कहलाता है वैसे ही गुह्य प्रदेश को चोल पट्ट से ढंकने वाला मुनि भी नग्न ही है । जीर्ण-शीर्ण साड़ी पहनी महिला जैसे बुनकर से कहती है- मैं नग्न हूं, मुझे साड़ी दो वैसे ही साधु भी महाधन मूल्यरूपी साधना को खंडित और जीर्ण अवस्था में आचरण करते हुए श्रुतोपदेश से धर्म बुद्धियों द्वारा नग्न ही कहा जाएगा । चारित्रसूत्र में शुद्धपारिहारिक क्या है ? सो कहते हैं । जैसे लन्दिक । लन्द एक निश्चित समय है । यह पांच रात्रि का होता है । यह साधना पांच लन्दों का गच्छ बनाकर की जाती है। सूत्र प्रमाण और भिक्षाचर्या के कल्पों को छोड़कर यह समाचारी जिनकल्पिकों के तुल्य है क्योंकि जिन्होंने अनिवार्य सूत्रार्थ हृदयंगम नहीं किए वे तो गच्छ प्रतिबद्ध ही होते हैं । जिन्होंने अनिवार्य सूत्रार्थ हृदयंगम कर लिए वे अप्रतिबद्ध हैं । इसीलिए यथालन्दिनों में कुछ जिनकल्पिक और कुछ स्थविर -कल्पिक होते हैं । जिनकल्पिक अपने शरीर का प्रतिकर्म नहीं करते । रोग उत्पन्न होने पर चिकित्सा नहीं करते । नेत्र - मल आदि को भी साफ नहीं करते किन्तु स्थिवरकल्पिक रोग उत्पन्न होने पर गच्छ को सूचित कर देते हैं । संघ ( गच्छ ) प्राक, एषणीय परिकर्म द्वारा उनकी परिचर्या कराता है । स्थविरकल्पिक एक-एक प्रतिग्रह धारी और सवस्त्र होते हैं । जिनकल्पिकों के लिए वे पांच, पांच रात्रि एकत्र रहते है और जघन्यतः वस्त्र और पात्र वांछनीय नहीं है । तीन गण और उत्कृष्टः सौ गण तुलसी प्रशा १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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