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________________ प्रमाण होते हैं। उनकी भिक्षाचर्या भी पांच, पांच के अन्तर से होती है। एक-एक वीथी में पांच, पांच दिनों के अन्तर के भिक्षाचरण के पांच फेरों से उनका मास कल्प पूरा होता है। वे स्थित और अस्थित दोनों प्रकार के कल्पों में होते हैं। इस प्रकार ये जिनकल्पिक आदि गच्छ (संघ) नियमों से मुक्त होते हैं और इसी प्रकार की नग्नता इष्ट हो तो इसमें आगम की कोई बाधा नहीं है। __ अब यदि वस्त्र-परित्याग मात्र को ही नग्नता माना जाए तो वह न प्रामाणिक है और न ही जैन शासन अनुयायियों के मन को तृप्त करने वाली है। स्थविरकल्पिक मुनि चौदह प्रकार की उपधि को धारण करने वाले और उत्सर्ग-अपवाद का व्यवहार करने व औपग्रहिक उपधि वाले होते हैं। उन्हें प्रवज्यादि द्वारा पहचाना जा सकता है। वे आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, भिक्षु, क्षुल्लक आदि विभिन्न श्रेणियों में मासकल्पविहारी, अल्प मूल्य वस्त्रों के द्वारा अपने शरीर के अग्र भागों को आच्छादित करने वाले, वर्षाकल्प आदि पालने वाले, दस प्रकार की समाचारी का अनुष्ठान करने वाले और उद्गम, उत्पादन और एषणा आदि दोषों से रहित शुद्ध आहार, उपधि और स्थान का सेवन करने वाले होते हैं। इस प्रकार पारमर्ष (आईत) प्रवचन अनुसार जिनकल्पिक और गच्छवासी ही नाग्न्य परीषहः को जीत सकते हैं, अन्य कोई नहीं। प्रस्तुति-परमेश्वर सोलंकी र २२, अंक ४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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