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________________ प्रकार हुआ है । अश्व जिस प्रकार अपनी अमाल को झाड़ता है, मुक्त आत्मा उसी प्रकार अपने पाप को झाड़ फेंकती है । चन्द्रमा जिस प्रकार ग्रहण के बाद राहु के पंजे से पूरापुरा बाहर आ जाता है, उसी प्रकार मुक्त आत्मा अपने को मृत्यु के बंधन से स्वतंत्र कर लेती है। जिस प्रकार सरकडे की डंडी आग में उसके कर्म नष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार जल कमल की पत्ती पर नहीं ठहरता उसी प्रकार कर्म उससे चिपकते नहीं हैं ।" मुण्डकोपनिषद् में कहा गया है २३ भस्म हो जाती है, उसी प्रकार यथा नद्यः स्यन्दमाना समुद्रेऽस्तं, गच्छन्ति नामरूपं विहाय । तथा विद्वान्नामरुपद्विमुक्तः, परात्परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ॥ " अर्थात् जिस प्रकार नदियां बहती हुई अपने नाम और रूप को छोड़कर समुद्र में लीन हो जाती है, उसी प्रकार विद्वान् नाम और रूप से मुक्त होकर पर से भी पर दिव्य से भी दिव्य पुरुष को प्राप्त हो जाता है। ईशा उपनिषद् कहती है कि विद्या से ही अमृत प्राप्त होता है ।" महाभारत में भी इसी तथ्य को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि कर्मणा बध्यते जन्तुविद्यया च विमुच्यते । तस्मात्कर्म न कुर्वन्ति यतयः पारदर्शिनः ॥ * अर्थात् जीव कर्म से बंधता है और आत्मज्ञान से मुक्त हो जाता है इसलिए पारदर्शी यतिजन कभी कर्म नहीं करते । श्वेताश्वर उपनिषद् में भी इसी सत्य का प्रतिपादन हुआ है Jain Education International एक हंसो भवनस्य मध्ये, स एवाग्निः सलिले सन्निविष्टः । तमेव विदित्वा विमृत्युमेति, नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ अर्थात् इस त्रिलोकी के मध्य में स्थित एक ही हंस (परमात्मा) है । उसी को • जानकर पुरुष मृत्यु के पार हो जाता है । मोक्ष के लिए और कोई मार्ग नहीं है । कर्मविहीन मुक्त आत्मा की स्थिति का चित्रण इस प्रकार हुआ है १. सत्यं ज्ञानमनंतं ब्रह्म (तै. उप. २1१1१ ) २. प्रज्ञानं ब्रह्म (ऐ. उप. ५।३) ३. विज्ञानमानंद ब्रह्म ( वू. उप. ३।९।२८ ) नियम संसार में लागू उपनिषदों के सन्दर्भ में अंत में यह स्पष्ट है कि कर्म का है, जहां हमारे कर्म हमें कालाधीन जगत् के उच्चतर या निम्नतर स्थानों पर ले जाते हैं । जब हम शाश्वत सत्य ब्रह्म या आत्मा का ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, तो कर्मों का हम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । आत्मज्ञानी पर कर्म का कोई दाग नहीं पड़ता । अस्तु इस अवस्था को उपनिषदों में तत्त्वमसि सर्व खलु इदं ब्रह्म तथा अयमात्मा ब्रह्म कहा गया है, जहां रंचमात्र भी कर्म का असर नहीं है । खण्ड २२, अंक ४ For Private & Personal Use Only २५५ www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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