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और को खोज लेती है और अपने को उसकी ओर खींचती है। जिस प्रकार सुनार सोने के एक टुकड़े को लेकर उसे कोई और नवीन तथा अधिक सुन्दर आकृति दे देता है, उसी प्रकार यह जीवात्मा इस शरीर को समय-समय पर अनेक आकृति में परिवर्तित करता है।
पुनर्जन्म के इन प्रकरणों से यह स्पष्ट होता है कि आत्मा वर्तमान शरीर को छोड़ने से पहले अपने भावी शरीर को खोज लेती है । आत्मा इस अर्थ में सृजनशील है कि वह शरीर का सृजन करती है। शरीर को जब भी वह बदलती है तो एक नवीन रूप में। इस प्रकार मनुष्य जब तक सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेता तब तक पुनर्जन्म ही उसकी नियति है। सुन्दर चरित्र वालों को सुन्दर जन्म और कुत्सित चरित्र वालों को कुत्सित जन्म मिलते हैं ।
यहां प्रश्न यह उठता है कि कर्म का फल स्वत: मिलता है या किसी की प्रेरणा से ? केनोपनिषद् में इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार सेवक की सेवा से स्वामी की बुद्धि पर संस्कार पड़ जाता है, उसी प्रकार यात्रादि कर्म से सर्वत्र ईश्वर की बुद्धि के संस्कार युक्त हो जाने से फिर उस कर्म के नष्ट हो जाने पर भी जैसे सेवक को स्वामी से वैसे ही कर्ता को ईश्वर से फल मिल जाता है। अतः उपनिषदों में सम्पूर्ण जीवों की बुद्धि, कर्म और फल के विभाग का साक्षी सर्वान्तर्यामी, सर्वत्र ईश्वर को माना गया है जो साक्षात् अपरोक्ष ब्रह्म है ।
इस प्रकार ब्रह्मविद्या प्रधान उपनिषदों में कर्म को अज्ञान रूप ज्ञान का विरोधी रूप तथा अन्धकार रूप स्वीकार किया गया है। अपराविद्या रूप यह कर्म पराविद्या के होने पर सदा-सदा के लिए समाप्त हो जाता है। उपनिषदों का चरम लक्ष्य आत्मा, मोक्ष एवं ब्रह्म को प्रतिपादित करना है, इसके लिए कर्मों का निराकरण अत्यावश्यक है। मुक्त आत्मा पर कर्मों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। मुक्त आत्मा के कम चाहे अच्छे हों या बुरे, उस पर कोई प्रभाव नहीं डालते ।“ ईशावास्योपनिषद् में कहा गया है कि
यस्मिन्-सर्वाणि भूतान्यात्मवाभूद्विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः ।। अर्थात् जिस समय ज्ञानी पुरुष के लिए सब भूत आत्मा ही हो गये, उस समय एकत्व देखने वाले उस विद्वान् को क्या शोक और क्या मोह हो सकता है। ब्रह्मविद्या से कर्मचाञ्चल्य सुसंयत और चित्त अन्तर्मुखी होता है । कैवल्य उपनिषद् के अनुसार कर्म से, प्रजा के, धन से नहीं अपितु त्याग से हो किन्हीं-किन्हीं ने अमरत्व को प्राप्त किया है । मुण्डको उपनिषद् के अनुसार
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ।।२२ अर्थात् जीव के हृदय की ग्रन्थियां खुल जाती हैं, उसके सभी सन्देह छिन्नभिन्न हो जाते हैं, उसके सभी कर्म फलों का नाश हो जाता है जब वह परात्पर ब्रह्म का दर्शन करता है। उपनिषदों में कर्म मुक्त आत्मा के स्वरूप का चित्रण इस
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तुलसी प्रज्ञा
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