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________________ कर्म बंध और जैन दर्शन दृश्यमान इस विशाल विश्व पर दृष्टिपात करने से अनेक विषमतायें देखने को मिलती हैं, जिनका मूलकारण कर्म के अतिरिक्त अन्य कुछ भी युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता । आचारांगसूत्र' में स्पष्ट कहा है कि "कर्म से उपाधि (दुःख) का जन्म होता है" अर्थात् कर्म से ही मनुष्य सुख-दुःख प्राप्त करता है । मनुष्य इस विषमता का कारण अन्तर्रात्मा में ढूंढने की अपेक्षा बाह्य तत्व में खोजता है । यही कारण है कि उसकी आसक्ति और भी बढ़ती है । फलतः वह कर्म - बन्धन से युक्त हो जाता है । प्रतिकूल अथवा अनुकूल - दोनों परिस्थितियां जीवन में आती हैं । कर्म के लिए साधक अपने जीवन में अनुकूल परिस्थितियों के अवसर ढूंढते हैं, किंतु इसमें जीवन की सार्थकता नहीं कही गई है । प्रतिकूल या अनुकूल परिस्थितियों से मुक्त होकर कर्म करने वाले साधक का ही जीवन सफल व पूर्ण है । इसीलिए आगमों में यह स्वीकार किया गया है कि व्यक्ति अपने जीवन में कर्म से जितना अधिक मुक्त रह सकेगा, उतना ही कर्मफल के प्रति अनासक्त हो सकेगा और वह उसी अनुपात में मुक्ति के अधिक निकट कहा जायेगा । Jain Education International जिनेन्द्र जैन कर्म क्या है ? पीना, खाना, : कर्म शब्द का व्युत्पतिलभ्य अर्थ है - "क्रियते इति कर्म" अर्थात जो किया जाये वह कर्म है । कर्म शब्द लोक और शास्त्र में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । लौकिक व्यवहार या धन्धे आदि के अर्थ में कर्म शब्द का व्यवहार होता है चलना, फिरना आदि जितनी भी क्रियाएं हैं, उन सबका नाम कर्म है । कर्म शब्द का शास्त्रीय अर्थ देखें तो भारतीय चिंतकों ने अलग-अलग रूप में कर्म की व्याख्या की है । शास्त्र रूप में व्यवहृत कर्म शब्द के लिए मीमांसा व योग आदि में उसे क्रियाकलाप कहा है । ब्राह्मण परम्परा में कर्म चारों वर्णों व चारों आश्रमों के लिए प्रयुक्त हुआ है। पुराणों में व्रत, नियम आदि धार्मिक क्रियाओं के लिए तथा न्याय दर्शन में मान्य ७ पदार्थों में तृतीय पदार्थ कर्म का उत्क्षेपणादि पांच सांकेतिक कर्मों में व्यवहार किया गया है । व्याकरण शास्त्र' में कर्ता जिसको अपनी क्रिया के द्वारा प्राप्त करना चाहता है, वह कर्म है। गणित में योग और गुणन आदि कर्म के लिए प्रयुक्त होते हैं । किंतु जैन दर्शन में कर्म एक पारिभाषिक शब्द के रूप में जाना जाता है । जैन परम्परा में कर्म पौद्गलिक अर्थात द्रव्य रूप है । कर्म आत्मा के साथ प्रवाह रूप से अनादि सम्बन्ध रखने वाला अजीव - जड़ द्रव्य कहा गया है। राग-द्वेषात्मक परिणाम अर्थात .२.४३ खंड २२, अंक ४ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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