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आचार्य कालूगणि को वंदन !
यहां भक्त पुरुष पूर्ण भक्तिभाव से पढ़े इसलिए पूज्य कालूगणि की बन्दना में बीस श्लोक कहे जा रहे हैं :
१. जो योग्य पुरुषों से पूजित हैं, जिन्होंने जैन धर्म में विद्या का प्रचार किया है और उन्नति के अच्छे-अच्छे प्रकार बताए हैं; उन शान्ति की मूर्ति, पूज्य श्री कालूगणि की मैं वन्दना करता हूं ।
२. गुरुदेव कालूगणि को मैं बारम्बार प्रणाम करता हूं और सर्व प्रकार मन से उनकी सेवा करता हूं; इसलिये पूज्य गुरुदेव मेरे शरीर में सदा भले प्रकार से विराजित रहें ।
३. मैं मन्द और अल्पज्ञ हूं । सेवा करने किन्तु भगवन् ! आप पूर्ण हैं, पवित्र हैं और कालूगणि में मेरी श्रद्धा-भक्ति सदैव पूर्ण उल्लास प्रार्थना है ।
४. हे भगवन् ! यह सत्य है कि बिना स्वामी की रक्षा के दास नष्ट हो जाते हैं। मैं आपका दासानुदास हूं और आप महान् रक्षक हैं । इसलिए मैं आपको छोड़ कर कहां जाऊं ? पूज्य कालूगणि! आप ही मेरी रक्षा कीजिए ।
५. हे सर्वात्मन् ! सर्ववासिन् ! कोई मार्ग बताइये । ताप के बहुत से उपाय कर लिए किन्तु दीखता है ।
का भी मुझे कोई ज्ञान नहीं है दयालु हैं । इसलिए पूज्य
के साथ बनी रहे - यही
दयालु प्रभु ! इस संसार से पार होने का भय से मेरा शरीर व्याकुल हो रहा है । मुझे आपके सिवा दूसरा कोई रक्षक नहीं
६. मैं केवल आशा करने वाला तुच्छ सेवक हूं इसलिए सम्पूर्ण शास्त्रों के ज्ञाता और निरन्तर ज्ञान-ध्यान में लगे रहने वाले महात्मा कालूगणि की बारंबार वन्दना करता हूं |
७. मैंने चित्त से उनकी दासवृत्ति स्वीकार की है और मेरा मन निरन्तर भौंरे के रूप में उनके चरण कमलों की वन्दना कर रहा है । फिर मुझे पूज्य कालुगण ! क्यों आशीर्वाद न देंगे ?
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८. देश-देश में घूमकर मैंने अपनी बुद्धि से सत्पथ का अन्वेषण किया है किन्तु मुझे कहीं कोई शुद्ध मार्ग नजर नहीं आया । पूज्य कालूगणि को पाकर मेरे हृदय की कालुष नष्ट हो गई । निस्संदेह यह देवावतार हैं ।
खण्ड २२, अंक ४
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