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________________ आत्मा का देह-परिमाणत्व उपनिषदों में आत्मा को देह-परिमाण निरूपित किया गया है। वहां कहा गया है कि आत्मा नख से शिख तक व्याप्त है। जैन दर्शन में भी आत्मा को शरीर-परिमाण प्रतिपादित किया है ।६३ देह-परिमाण कहने का तात्पर्य यह है कि आत्मा को अपने संचित कर्म के अनुसार जितना छोटा-बड़ा शरीर मिलता है उस पूरे शरीर में व्याप्त होकर वह रहता है। शरीर का कोई भी अंश ऐसा नहीं होता है जहां जीव न हो। देह-परिमाणत्व स्थापित करने के लिए निम्न तर्क दिए जा सकते १. गुण-गुणी को अभिन्नता से देह-परिमाण की सिद्धि आत्मा को देह-परिमाण सिद्ध करते हुए कहा गया है यत्रैव यो दृष्ट गुणः स तत्र. कुम्भादिवन्निष्प्रतिपक्षमेतद् । तथापि देहात् बहिरात्मतत्त्वमतत्त्ववादोपहता पतन्ति ॥ आचार्य मल्लीषण ने स्पष्ट लिखा है कि आत्मा मध्यम परिमाण वाला है क्योंकि उसके ज्ञानादि गुण शरीर में दृष्टिगोचर होते हैं, शरीर के बाहर नहीं । जिसके गुण जहां पर होते हैं वह वस्तु भी वहीं होती है, जैसे घट के रूप रंगादि जहां होते हैं वहीं पर घट होता है। इसी प्रकार चैतन्य पूरे शरीर में आत्मा के गुण रहते हैं इसलिए सिद्ध है कि आत्मा पूरे शरीर में व्याप्त है।" २. सुख-दुःख की संवेदना शरीर में होने से देह-परिमाण की सिद्धि ___आत्मा को देह-परिमाण मानने का एक कारण यह है कि शरीर के किसी भी भाग में होने वाली वेदना की अनुभूति आत्मा को होती है । ८ मैं सुखी हं, दुःखी हूं, ये प्रतीतियां शरीर में ही दृष्टिगोचर होती हैं । अतः सुख-दुःख का प्रभाव आत्मा के साथ ही शरीर पर पड़ने से सिद्ध है कि आत्मा देह-परिमाण है ।३९ ३. संकोच-विकोच शक्ति के कारण देह-परिमाण को सिद्धि ___ आत्मा का शरीर परिमाण होने का मुख्य कारण उसमें पायी जाने वाली संकोचविस्तार की शक्ति है। यही कारण है कि जीव, प्रदेश, धर्म, अधर्म और लोकाकाश के बराबर होते हुए भी कांजित शरीर में व्याप्त होकर अर्थात् यदि शरीर छोटा होता है तो अपने प्रदेशों का संकोच कर लेता है और यदि शरीर बड़ा होता है तो अपने प्रदेशों को फैलाकर उसमें व्याप्त हो जाता है। ___ असंख्यात प्रदेशी अनन्तानन्त जीव लोक के असंख्यातवें भाग में किस प्रकार रहता है ? इस प्रश्न के उत्तर में बताया गया है कि आत्मा में दीपक की तरह संकोचविस्तार शक्ति पायी जाती है । " आत्मा अपने कर्म के अनुसार जब हाथी की योनि छोड़कर चींटी के शरीर में प्रवेश करता है तो अपनी संकोच शक्ति के कारण अपने प्रदेशों को संकुचित करके उसमें रहता है और चींटी का जीव मरकर जब हाथी का शरीर पाता है तो जल में तेल की बूंद की तरह फैलकर सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो बंड २२, अंक ४ २७१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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