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________________ उपयोगमय मानते हैं । इस प्रकार चेतना के अनेक क्षमतात्मक और क्रियात्मक रूपों का पता चलता है। पूज्यपाद और अकलंक- दोनों ने ही चेतना के अनेक प्रकारों की चर्चा की है एवं उत्तराध्ययन के व्यापक लक्षणों को एक ही शब्द से कह दिया है। फिर भी, उमास्वामी उपयोग या चेतना को केवल ज्ञान दर्शनात्मक ही मानते हैं क्योंकि सूत्र २.८ में उन्होंने इसका स्पष्ट उल्लेख किया है । यह मान्यता प्रवचनसार, भगवती के समान ग्रंथों के अनुरूप भी है । संभवतः उनकी यह मान्यता हो कि सुख-दुख आदि की अनुभूति ज्ञानदर्शन या संवेदनशीलता पर ही आधारित है । सभी प्रकार की अनुभूतियों का मूल आधार चैतन्य है। इसलिये सभी एक ही पद में समाहित हो जाते हैं। इस प्रकार अध्यात्मवादी जीव आत्मा की परिभाषा को निम्न रूप में व्यक्त किया जा सकता है: चैतन्य उपयोग=भावप्राण-ज्ञान-दर्शनादि= जीव/आत्मा सामान्यत: "उपयोग" शब्द की तुलना में चेतना शब्द की परिभाषा कम मिलती है । तथापि धवला-१ (पेज १४६) के अनुसार चैतन्य शब्द संवेदनशीलता का निरूपक है । इसी के कारण ज्ञान और दर्शन आदि की प्रवृत्तियां या अनुभूतियां होती हैं । अतः कार्य में कारण का उपचार कर ज्ञान-दर्शनादि को ही चैतन्य मान लिया जाता है । प्रारम्भ में "चेतना" शब्द से केवल प्रत्यक्ष पदार्थ का ग्रहण प्रतिभासन या संवेदन का अर्थ लिया जाता था पर बाद में इसे कालिक विषयों के संवेदन के व्यापक अर्थ में लिया जाने लगा । इस प्रकार "चेतना" भी "चार्वाक" से "अध्यात्मवादी" हो गयी। यह विचार-विकास का एक अच्छा उदाहरण है। जैन लक्षणावली (पेज २७४) में चैतन्य के लक्षण के १-२ संदर्भो की तुलना में उपयोग के २८ संदर्भ दिये गये है। सभी में चैतन्य के वाह्य और आभ्यान्तर निमित्तों से होने वाले जीव के परिणामों का उपयोग कहा गया है । इसके अन्तर्गत उपयोग रूप भावेन्द्रीय भी समाहित हो जाती है। अनेक परिभाषाओं में उप+योग (क्रिया) के रूप में व्युत्पत्ति परक अर्थ भी दिया गया है जिससे इसकी क्रियात्मकता एवं परिणात्मकता व्यक्त होती है। इससे ज्ञान-दर्शनादि का निकटतम संयोजन ही उपयोग होता है । इसी को अकलंक और पूज्यपाद ने "चैतन्यान्वयी परिणाम" कहा है । इस प्रकार, उपयोग संवेदनशीलता की अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों को माना जाता है। इस परिभाषा से एक तथ्य तो प्रकट होता ही है कि उपयोग भी अंशतः भौतिक हैं क्योंकि यह सदेह जीव में ही होता है । सिद्ध या शुद्ध आत्मा तो उपयोगातीत प्रतीत होती है। यहां यह भी ध्यान रखना चाहिये कि जीव की परिभाषाओं के रूपों में जितनी विविधता है, उतनी उपयोग के स्वरूपों में नहीं पाई जाती । इससे जीव की परिभाषा की सापेक्ष जटिलता प्रकट होती है। परिभाषा का मिश्रित रूप जीव की तीसरी कोटि की परिभाषा भौतिक एवं ज्ञानात्मक परिभाषाओं का मिश्रित रूप है । यह जीव की व्यावहारिक परिभाषा है । इस परिभाषा में जहां एक ओर खण २२, बंक ४ २८१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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