SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 30
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राप्त हुआ।" थेरगाथा अट्ठकथा के अनुसार उसे श्रोतापत्तिफल तब प्रप्त हुआ जब बुद्ध ने तालच्छिगुलुपम सुत्त का उपदेश दिया ।" पिता बिम्बसार की मृत्यु से दुःखी होकर उसने बुद्ध के पास प्रव्रज्या ग्रहण की।" इस प्रकार अभयराजकुमार की कथा भी जैनबौद्ध दोनों- साहित्य में प्रचुर मात्रा में प्राप्त होती है । परन्तु स्थानांग वाली सूची में यह नाम नहीं है । प्रस्तुत अंग में यह कथा लोक प्रसिद्ध होने के कारण बाद में समाहित कर ली गयी। उपर्युक्त विवरणों से इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि वर्तमान में उपलब्ध अनुत्तरोपपातिक दशा की विषय-वस्तु नन्दी सूत्र की रचना के कुछ समय पूर्व तक अस्तित्व में आ गयी थी। संभवतः अन्तिम वल्लभी वाचना के पूर्व अनुत्तरोपपातिक में पूर्व की विषयवस्तु को हटा दिया गया, पर स्थानांग में उसके संकेत सुरक्षित बचे रह गये। बाद में नयी विषय-वस्तु को जोड़ दिया गया जिससे कुछ अध्ययन अन्तकृद्दशा के समान हो गये। ___सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि श्वेताम्बर-परम्परा के आगम स्थानांग और दिगम्बर-परम्परा के ग्रन्थ राजवातिक (७ वीं-८ वीं सदी), धवला (९ वीं सदी) एवं अंगप्रज्ञप्ति में इसके अध्ययनों के संबंध में लगभग एकरूपता है । इससे यही लगता है कि दिगम्बर-श्वेताम्बर भेद के पहले से चले आ रहे परम्परागत पाठ 'स्थानांग' तक समान रहे जो दिगम्बर-परम्परा को भी मान्य थे। पर वल्लभी वाचना (देवद्धिगणि) के समय इसमें बदलाव आ गया और श्वेताम्बर-परम्परा में नवीन पाठ को समाहित कर लिया गया। खण्ड २२. बंक ४ २६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy