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________________ अर्थात् जिसका मन शांत है, जो जितेन्द्रिय है, जिसके दोष समाप्त हो चुके है, जो गुरु और शास्त्रानुसार क्रियारत रहता है, जो निरभिमान तथा आचार्यानुगत हो वही इस विद्या का अधिकारी है-उसी को आत्मविद्या प्रदान करनी चाहिए। गीताकार गोविन्द ने इस विषय में बिस्तार से चर्चा की है : बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृत्याऽऽत्मानं नियम्य च । शब्दादीविषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषो व्युदस्य च ॥ विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमान सः । ध्यान योगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः ।। अहंकारं बलं दपं कामं क्रोधं परिग्रहम् । विमुच्य निर्ममो शान्तः ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति । समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्ति लभते पराम् ॥" अर्थात आत्मविद्या के अधिकारी में निम्नलिखित गुणों का होना आवश्यक हैविशुद्ध बुद्धि संयुक्त, आत्मा में अनुरक्त, अन्तःकरण को वश में करने वाला, इन्द्रियादि के विषयों से उपरत, राग-द्वेष से विरत, एकान्तवासी, अल्पभोजी, मन-वाणी और शरीर को जीतने वाला, लोक-परलोक के सभी भोगों से नित्य-अचल वैराग्य से युक्त, ध्यान निरत, अहङ्कार, बल क्रोधादि दुर्गुणों का सर्वथा परित्याग, अपरिग्रही, ममत्व का परित्याग, अन्तःकरण की स्थिरता, सच्चिदानन्द में लीन, प्रसन्नहृदय, शोकरहित, आकांक्षा रहित, समदर्शी आदि । उपर्युक्त मान्यता के अनुसार ही आगमों में अनेक स्थलों पर आत्मविद्या के अधिकारी के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। संयमी, महाव्रती, समदर्शी, आत्मरत, रागादि से उपरत, अहिंसा सम्पन्न व्यक्ति ही आत्मसाधना का अधिकारी हो सकता है। अर्थात् उत्कृष्ट आत्मजिज्ञासा से सम्पन्न मुनि ही साधना पथ (आत्मप्राप्ति-पथ) का यात्री हो सकता है। मुण्डकोपनिषद् का ऋषि जिज्ञासा करता है 'कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति" । आचारांग का साधक भी इसी जिज्ञासा से अपनी यात्रा शुरु करता है-'के अहं आसी ? के वा इओ चुओ पेच्चा भविस्सामि ?" तात्पर्यत: यह कहा जा सकता है कि साधना का प्रथम सोपान आत्मजिज्ञासा ही है। महाभाव नचिकेता की यात्रा भी यहीं से प्रारंभ होती है। वह यमराज से कहता है :-- येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये ___ऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके । एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं वराणामेष वरस्तृतीयः ॥" अर्थात् मरे हुए मनुष्य के विषय में जो यह सन्देह है कि कोई तो कहते हैं 'रहता है और कोई कहते हैं 'नहीं रहता है'-आपसे शिक्षित हुआ मैं जान सकू। मेरे वरों में यह तीसरा वर है। खण २२, अंक ४ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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