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________________ अर्थात् हे प्रियतम ! सम्यक् ज्ञान के लिए शुष्क तार्किक से भिन्न शास्त्रज्ञ आचार्य द्वारा कही हुई बुद्धि, जिसे कि तूं प्राप्त हुआ है, तर्कद्वारा प्राप्त होने योग्य नहीं है । अहा ! तू बड़ा ही सत्यधारणा वाला है । हे नचिकेता ! हमें तुम्हारे समान प्रश्न करनेवाला प्राप्त हो । मुण्डकोपनिषद् का ऋषि आत्म विद्या के अधिकारी का स्पष्ट वर्णन क तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक् प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय ।" येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच तां तत्त्वतो बह्मविद्याम् ।। अर्थात् विद्वान् गुरु अपने समीप आये हुए उस पूर्णतया शान्तचित्त एवं जितेन्द्रिय शिष्य को उस ब्रह्मविद्या का तत्त्वत: उपदेश करे जिससे उस सत्य और अक्षर पुरुष का ज्ञान होता है । तात्पर्य यह है कि ब्रह्मविद्या या आत्मविद्या का अधिकारी वही हो सकता है जो प्रशान्तचित्त और जितेन्द्रिय हो। आत्मविद्या के लिए 'चित्तविशुद्धि' परमावश्यक है.---इस तथ्य को सबने स्वीकार किया है । उपनिषदों में इस सत्य की बार-बार उद्घोषणा की गई है ज्ञान प्रसादेन विशुद्धसत्वः ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः । गीताकार ने भी इस तथ्य को ओर निर्देश किया है ----- ___ योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः । सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ।।" वेदान्तसार के प्रणेता सदानन्द ने अधिकारी के स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला है :-अधिकारी तु विधिवदधीतवेदवेदाङ्गत्वेना पाततोऽधिगताखिलवेदार्थोऽस्मिन् जन्मनि जन्मान्तरे वा काम्यनिषिद्धवर्जनपुरस्सरं नित्यनैमित्तिकप्रायश्चित्तोपासनानुष्ठानेन निर्गतनिखिल कल्मषतया नितान्तनिर्मलस्वान्तः साधनचतुष्टय सम्पन्नः प्रमाता । अर्थात् जिस पुरुष वेदों और वेदाङ्गों का सम्यक अध्ययन कर सम्पूर्ण वेदार्थ का ज्ञान प्राप्त कर लिया, इस जन्म अथवा जन्मान्तर में काम्य, निषिद्ध कर्मों का त्याग करते हए नित्य नैमित्तिक कर्म तथा प्रायश्चित और उपासना के अनुष्ठान से समस्त कल्मषों को समाप्त कर अपने अन्तःकरण को नितान्त निर्मल बना लिया है तथा साधन चतुष्टय-१. नित्य-अनित्त वस्तु का विवेक, २. भौतिक एवं स्वर्गिक सुखों के भोग से विरक्ति, ३. शम, दम, उपरति, तितिक्षा, श्रद्धा और समाधान (समाधि) आदि छः सम्पतियों से युक्त तथा ४. मोक्ष की इच्छा से सम्पन्न व्यक्ति ही आत्मविद्या का अधिकारी हो सकता है। सदानन्द भगवती श्रुति का एक श्लोक उधृत करते हैं जो अधिकारी के स्वरूप पर प्रकाश डालता है : प्रशान्तचित्ताय जितेन्द्रियाय च प्रहीणदोषाय यथोक्त कारिणे । गुणान्वितायानुगताय सर्वदा प्रदेयमेतत्सततं मुमुक्षवे ॥ तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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