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________________ (३) आत्मा और पुद्गल का मिश्रण :-जो संसारी आत्मा में है। जैन दर्शन में कर्म का स्वरूपः जैन दर्शन में 'कर्म' शब्द क्रिया वाचक नहीं है । वह एक पारिभाषिक शब्द के रूप में है। जैन मंतव्यानुसार कर्म आत्मा पर लगे हुए सूक्ष्म पोद्गलिक पदार्थ का वाचक है। बन्ध की दृष्टि से जीव और पुद्गल दोनों एकमेक हैं, किन्तु लक्षण की दृष्टि से पृथक्-पृथक् हैं । जीव अमूर्त व चेतनायुक्त" है जबकि पुद्गल मूर्त व अचेतन, है। क्योंकि जब इन्द्रियों के विषय व इन्द्रियां स्वयं मूर्तमान हैं तो उनसे उत्पन्न सुखदुःख और उसका कारण भी मूर्तमान ही होगा ।१ जीव अपने मन, वचन, काय की प्रवृतियों से कर्म-वर्गणा के पुद्गलों को आकर्षित करता है और यह योगिक प्रवृत्ति तभी होती है जब जीव के साथ कर्म बन्धा हो। जीव के साथ कर्म तभी संबद्ध होता है जब यौगिक प्रवृत्ति हो। इस तरह प्रवृत्ति से कर्म और कर्म से प्रवृत्ति की परम्परा अनादि काल से चल रही है। कर्म और प्रवृत्ति के कार्य-कारणभाव को आधार मानते हुए पुद्गल परमाणुओं के कर्म को द्रव्यकर्म व राग-द्वेषात्मक प्रवृत्तियों को भाव कर्म कहा है ।१२ अकर्म में भी कर्म कहा गया है। अर्थात् अकर्म या शुद्धोपयोग में अवस्थित होने का अर्थ निकम्मापन नहीं है, बल्कि वहां अकर्म में कर्म की प्रतिष्ठा है । जीवन्मुक्त का स्थान सर्वोपरि है। जीवन्मुक्त निकम्मापन इसलिए नहीं है कि वहां न कर्तृत्व का अहंकार है और न ही कर्मफल की आसक्ति। इसीलिए अकर्म कर्म का बन्धन नहीं होता। जो जीव पहले से ही कर्मों से बन्धा है वही जीव नये कर्मों को बांधता है ।" शुभ और अशुभ कर्मों के बन्ध की चर्चा भगवती सूत्र में की गई है । वहां कहा गया है कि-मोहकर्म का उदय होने पर जीव राग-द्वेष में परिणत होता है और अशुभ कर्मो का बन्ध करता है। मोहरहित जो वीतराग जीव हैं वे योग के कारण शुभ कर्म का बन्धन करते हैं । संयत, संयतासंयत व असंयत ये सभी जीव कर्म बन्धक कहे गये हैं । अर्थात् जो सकर्म आत्मा हैं वे ही कर्म बांधती है। अकर्म आत्मा के बन्धन नहीं कहा गया है । इस दृष्टि से यह पूर्णसत्य है कि बद्ध जीव ही बन्धता है, अबद्ध नहीं बन्धता है । कर्म-बन्ध के कारण जीव और कर्म के अनादिकालीन बन्धन को देखकर यह जिज्ञासा सहज उत्पन्न हो जाती हैं कि जीव के कर्म बन्ध का कारण क्या है ? इसका उत्तर जैनागम प्रज्ञापनासूत्र में इस प्रकार दिया गया है कि :--ज्ञानावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शनावरणीय कर्म का तीव्र उदय होता है। दर्शनावरणीय कर्म के तीव्र उदय से दर्शनमोह का उदय होता है। दर्शनमोह के तीव्र उदय से मिथ्यात्व का उदय होता है। तथा मिथ्यात्व के उदय से जीव अष्टकर्मों को बांधता है। ___ स्थानांग", सूत्रकृतांग" व तत्त्वार्थ सूत्र में कर्मबंध के पांच कारणों खण्ड २२, अंक ४ २४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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