SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिनमें भाव तत्त्व का अर्थात् अनुभूतियों का वर्णन रहता है और दूसरे तस्व सहायक बनकर भावतत्त्व का साथ देते हैं। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिये महाकवि कालिदास की रचना से एक उदाहरण प्रस्तुत किया जा सकता है। शकुन्तला ससुराल जाते समय अपने शोक-विह्वल पिता कण्व को प्रणाम करती हुई कहती है-"पिताजी ! तपस्या से आपका शरीर पहले ही कृश हो रहा है, अब मेरे लिये शोक न करें।" पिता उत्तर में कहते हैं --"बेटी ! कुटिया के द्वार पर खड़ी होकर तुम पक्षियों के लिये जो धान फेंकती रही हो, उनमें से कुछ धान जब अंकुरित हो उठेंगे और मैं उनको देखा करूंगा तब मेरा यह शोक किस प्रकार दूर हो सकेगा ?" कन्या को पहले पहल ससुराल भेजते समय माता-पिता की जो दशा हुआ करती है, कण्व की यह उक्ति उसी दशा की अनुभूति कराती है। विवाह के बाद पहली बार कन्या के ससुराल चले जाने पर उसके हाथ से काढ़े हुए चौकी पर बिछे कढ़ाईपोश या मेज़ पर बिछे मेजपोश जिस प्रकार बार-बार उसकी कुछ दिनों तक याद दिलाते हैं उसी प्रकार शकुन्तला के हाथ से छितराए हुए धानों में से कोई-कोई धान अंकुरित होकर संसार की ममता से दूर तपस्वी कण्व को भी बेटी के वियोग में शोकाकुल करेंगे। कौन माता-पिता ऐसे हैं जिनकी अनुभूति कण्व की इस अनुभूति से नहीं मिलती ? काव्य वही है जिसमें हृदय को छू लेने वाली बात कही गई हो। ___यहां एक बात और समझने की है कि अनुभूति या भाव उदात्त हो। मानव को ऊंचा उठाने वाले हों। काव्य उस चीज को नहीं छूता जो कुत्सित है। काव्य का उद्देश्य मानव को पशुत्व से ऊपर उठाना है। इसीलिये महाकवियों ने आहार और शारीरिक क्रियाओं का वर्णन अपने काव्य में नहीं के बराबर किया है। पाशविक प्रवृत्तियों वाले लोग जिन बातों को बहुत रस ले-लेकर सुनते और सुनाते हैं, कवि लोग उन्हें छोड़कर आगे बढ़ जाते हैं। एक लेखक का कहना है कि विषय-वासना की तृप्ति करने में ही आनन्द होता तो मनुष्य की अपेक्षा पशु अधिक सुखी होते पर असल बात यह है कि मनुष्य का आनन्द उसकी आत्मा में निहित है, मांस में नहीं। आदमी का ध्यान यदि सारे दिन मांसल प्रसन्नता की प्राप्ति के उपायों में ही लगा रहेगा तो वह संसार में रहने के अयोग्य हो जाएगा। किसी भी ललित कला का यह उद्देश्य नहीं कि वह जीवन की कुत्सितता को लेकर आगे बढ़ें। जो भव्य है, सुन्दर है, मीठी अनुभूतियों का संचार करने वाला है, उसी का वर्णन करना काव्यकला, चित्रकला आदि कलाओं का ध्येय है । इसका अर्थ यह नहीं कि शृंगार रस का वर्णन त्याज्य है । अपनी सीमा में रहने वाला शृंगार रस काव्योपयुक्त बन सकता है। वह विष तभी बनता है जब अपनी सीमा का अतिक्रमण कर दे। कल्पना-तत्त्व कल्पना का अर्थ है अनुभूति के प्रकाशन में सहायता देना। कभी-कभी कवि कल्पना को इतनी अधिक प्रधानता दे देता है कि भाव गौण हो जाता है। ऐसी कल्पना हृदय में रस संचार नहीं करती । संस्कृत के एक कवि ने किसी राजा के यश का वर्णन २९८ तुलसी प्रशा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy