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________________ कवि और समालोचक काव्य की एक परिभाषा करने में सहमत नहीं हैं। स्वर्गीय द्विजेन्द्रलाल राय ने "काव्य क्या है ?" इसे एक और तरीके से समझाया है । वे कहते हैं कि "काव्य क्या है ?" यह न कहकर "काव्य क्या नहीं है ?" यह कहकर इसका स्वरूप विज्ञान आदि से पृथक् करके कुछ-कुछ समझा जा सकता है। विज्ञान से काव्य पृथक् है। विज्ञान की भित्ति बुद्धि है और काव्य की भित्ति अनुभूति है। विज्ञान का जन्म-स्थान मस्तिष्क है और काव्य की जन्मभूमि हृदय है। वर्डस्वर्थ की "Poets Epitaph" नामक कविता में इन दो पंक्तियों को Who would botanise Over his mather's grave ? १२ उद्धृत करके द्विजेन्द्रलाल ने बताया है कि काव्य के पवित्र राज्य में वैज्ञानिकों के प्रवेश का निषेध है। कहना न होगा कि काव्य की यह परिभाषा नकारात्मक है। पर यह नकारात्मक व्याख्या इस तथ्य को मानकर की गई है कि काव्य की कोई ऐसी परिभाषा हो ही नहीं सकती जिसमें काव्य के स्वरूप की वास्तविक झलक मिल जाए । किसी महापुरुष का अन्य प्रकरण में कहा हुआ यह वचन-“यदि न पूछो तो मैं जानता हूं, यदि पूछो तो मैं नहीं जानता"-काव्य की परिभाषा के ऊपर भी पूर्ण रूप से घटित होता है । तो फिर काव्य के स्वरूप का हमें परिचय कैसे मिले ? अतः अच्छा होगा कि यदि इन सब परिभाषाओं का समन्वय करके यह देखें कि काव्य की परिभाषा करने वाले भिन्न-भिन्न विचारक किन-किन तत्त्वों को काव्य का घटक अवयव मानते हैं। सब परिभाषाओं का मन्थन करने से चार तत्त्व हमारे हाथ लगते हैं जिनका थोड़े या बहुत अंशों में प्रायः सभी लक्षणकारों ने उल्लेख किया है। वे चार तत्त्व हैं १. भावतत्त्व, २. कल्पना तत्त्व, ३. बुद्धि तत्त्व और ४. शैली तत्त्व । साधारणतया हम कह सकते हैं कि जिस रचना में जीवन की वास्तविकता को छूने वाले तथ्यों, अनुभूतियों, समस्याओं, विचारों आदि का भावना और कल्पना के आधार पर अनुकूल भाषा में सुसंगत रूप से वर्णन किया जाए-वह काव्य है । भाव तत्त्व ऊपर जो चार तत्त्व बतलाए गए हैं उनमें भाव और कल्पना के तत्त्व को प्रमुखता प्रदान की जाती है । बुद्धि का तत्त्व काव्य में गौण रहता है। वह तो परस्पर विरोधी बातों में केवल संगति बैठाने का कार्य करता है। शंली तत्त्व में भाषा, अलंकार आदि आ जाते हैं। इन चार तत्त्वों में से किसी रचना में किसी तत्त्व की प्रधानता रहती है और किसी में किसी की। उच्चकोटि के काव्य वे माने जाते हैं खण्ड २२, अंक ४ २९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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