SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करके दिखा देना ही सज्जन लोगों का उत्तर हुआ करता है, शब्द से वे उत्तर नहीं दिया करते । इसलिये मैं तुम्हारे चुप रहने से यह नहीं समझता कि तुम मेरे संदेश को ले जाने में अस्वीकृति दिखा रहे हो । १७ कालिदास ने कितने चातुर्य से अपनी बात को बुद्धिसंगत से कुछ बुलवाया भी नहीं और अपनी बात भी नहीं बिगड़ने दी । का यही उपयोग है । शैली तत्त्व काव्य का चौथा तत्त्व शैली है । शैली में वे सब बातें आ जाती हैं जो किसी भावाभिव्यक्ति के लिये आवश्यक होती हैं । हम अपने भावों को भाषा के द्वारा व्यक्त करते हैं, इसलिये शैली में मुख्य बात भाषा की रहती है । अलंकार भी शैली के अन्तर्गत ही है। विचार या भाव काव्य की आत्मा है और भाषा उसका शरीर है । भाषा भाव को मूर्तिमान करती है अतः भाषा और भाव का परस्पर गहन सम्बन्ध है । शृंगार रस के वर्णन में भाषा में कोमलता रहती है और वीर रस के वर्णन में उसमें कठोरता (समस्त तथा द्वित्व पदावली ) आ जाती है । भाव तभी जागृत होते हैं जब उनके अनुकूल भाषा का प्रयोग किया जाता है । बड़े-बड़े कवियों की भाषा में यही गुण विद्यमान रहता है। वे जानते हैं कि किस शब्द का प्रयोग किस स्थान पर करना है । यदि कोई कृष्ण-भक्त मनुष्य किसी दुर्धर्ष अत्याचारी के हाथ से छुटकारा पाना चाहता है तो उसके लिये " हे गोपिकारमण ! हे वृन्दावन बिहारी !!" आदि कहकर पुकारने की अपेक्षा " हे मुरारि ! हे कंस निकन्दन !!" आदि सम्बोधनों से • पुकारना अधिक उपयुक्त होता है । क्योंकि कृष्ण के द्वारा कंस आदि का मारा जाना देखकर उसे अपनी रक्षा की आशा होती है न कि उनका वृन्दावन में गोपियों के साथ विहार करना देखकर । महाकवि जब वर्षा की नन्हीं-नन्हीं बूंदों के बरसने का वर्णन करते हैं तो उनकी पदावली से ध्वनित होने लगता है मानो सचमुच वर्षा की बूंदें पड़ने का धीमा-धीमा शब्द हो रहा है । जब मूसलाधार वर्षा के पड़ने का वर्णन करते हैं तब भाषा बदल जाती है। जहां पर एक क्षुद्र नदी का वर्णन करना है, वहां मृदुध्वनि शब्दों का प्रयोग करना चाहिये । किन्तु जहां समुद्र का वर्णन करना है वहां भाषा में भी मेघ गर्जन चाहिये । अंग्रेजी के कवि पोप ने अपने समालोचना विषयक निबन्ध (Essay on Criticism) में लिखा है कि कविता में इतना ही पर्याप्त नहीं कि किसी प्रकार के कर्णकटु शब्दों का प्रयोग किया जाये, प्रत्युत यह आवश्यक हैं कि ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाये जिनके उच्चारण मात्र से अर्थ ध्वनित हो जाए । ३०० Jain Education International For Private & Personal Use Only बना दिया । मेघ काव्य में बुद्धितत्त्व तुलसी प्रशा www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy