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________________ छत्र सिंहासन, उपासकों, प्रभामण्डल जैसे प्रातिहायों, लांछनों एवं शासन देवताओं का अंकन हुआ है। एलोरा की जैन गुफाओं का निर्माण अधिकतर राष्ट्रकूट नृपतियों के राज्यकाल में हुआ है । देवगिरि से प्राप्त अभिलेखों से यह पता चलता है कि राष्ट्रकूटों के बाद एलोरा की गुफाओं के निर्माण में देवगिरि के यादवों ने भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की, जिनका शासनकाल दसवीं शती ई० तक रहा। इन्हीं के समय में एलोरा की अधिकांश जैन गुफाएं खोदी गई । एलोरा की जैन मूर्तियां अधिकतर उन्नत उकेरी में हैं । एलोरा की जैन मूर्तियों में तीर्थंकरों के वक्षस्थल पर 'श्रीवत्स' के अंकन की परिपाटी उत्तर भारत के समान प्रचलित नहीं थी । समकालीन पूर्वी चालुक्यों की जैनमूर्तियों में भी यह चिह्न नहीं मिलता। साथ ही अष्ट महाप्रातिहार्यों में से सभी का अंकन भी यहां नहीं हुआ है । केवल त्रिछत्र, अशोकवृक्ष सिंहासन, प्रभामण्डल, चांवरधरसेवक एवं मालाधरों का ही नियमित अंकन हुआ है । शासन देवताओं में कुबेर या सर्वानुभूति यक्ष तथा चक्रेश्वरी, अम्बिका एवं सिद्धायिका यक्षियां सर्वाधिक लोकप्रिय थीं ।" जिनों के साथ यक्ष-यक्षियों का सिंहासन छोरों पर नियमित अंकन हुआ है । दिगम्बर- परम्परा में महापुराण की रचना राष्ट्रकूट शासक अमोघवर्ष प्रथम ( लगभग ८१९ से ८८१ ई०) एवं कृष्ण द्वितीय ( लगभग ८८० - ९१४ ई०) के शासन काल एवं क्षेत्र में हुई, अतः महापुराण की कलापरक सामग्री का स्पष्टतः समकालीन राष्ट्रकूट कलाकेन्द्र एलोरा ( ओरंगाबाद, महाराष्ट्र ) की जैन गुफाओं ( गुफा संख्या ३० से ३४ ) की मूर्तियों का शास्त्रीय और साहित्यिक पृष्ठभूमि की दृष्टि से विशेष महत्त्व है । ज्ञातव्य है कि महापुराण एवं एलोरा की जैन गुफाएं समकालीन ( ९वीं - १०वीं शती ई० ) और दिगम्बर- परम्परा से सम्बद्ध हैं, जिससे महापुराण की कलापरक सामग्री से एलोरा की जैन गुफाओं की मूर्तियों की दृष्टि से तुलना का महत्त्व और भी बढ़ जाता है ।" जैन पुराणों में महापुराण सर्वाधिक लोकप्रिय था जो आदिपुराण और उत्तरपुराण इन दो खण्डों में विभक्त है । आदिपुराण की रचना जिनसेन ने लगभग नवीं शती ई० के मध्य और उत्तरपुराण की रचना उनके शिष्य गुणभद्र ने नवीं शती ई० के अंत या दसवीं शती ई० के प्रारम्भ में की थी । कलापरक अध्ययन की दृष्टि से आदिपुराण एवं उत्तरपुराण अर्थात् महापुराण ( दिगम्बर - परम्परा ) की सामग्री का विशेष महत्त्व है क्योंकि उनका रचनाकाल ( ९वीं - १०वीं शती ई०) तीर्थकरों सहित अन्य शलाकापुरुषों (जैन देवकुल के २४ तीर्थंकरों तथा १२ चक्रवर्ती, ९ ९ नारायण और ९ प्रतिनारायण सहित कुल तिरसठ ) तथा जैन देवों के स्वरूप या लक्षण निर्धारण का काल था । इन ग्रन्थों की रचना के बाद ही श्वेताम्बर और दिगम्बर- परम्परा में विभिन्न शिल्पशास्त्रीय ग्रन्थों की रचना हुई, जिनमें जैन आराध्यदेवों के प्रतिमालक्षण का विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया । एलोरा में २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ और गहन साधना के प्रतीक ऋषभनाथ के पुत्र बाहुबली की सर्वाधिक मूर्तियां उकेरी गईं हैं। एलोरा की बाहुबली मूर्तियों में उनके शरीर से लिपटी बलभद्र, २८८ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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