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________________ शरीर या भौतिक रूप : १. नारकीय, कर्म, शरीर २. शरीर, अवगाहन, योनि, श्वासोच्छवास, आहार, प्रविचार, भाषा, जन्म मरण, आयु ज्ञानात्मक रूप : १. दर्शन, ज्ञान, उपयोग २. इन्द्रीय, उपयोग, संज्ञा/मन संवेग/मनोभावी रूप : १. लेश्या, दृष्टि, संज्ञा २. कसाय, लेश्या, सम्यक्त्व क्रियात्मक रूप : १. योग २. योग, संयम संवेदनात्मक/अनुभूति : ---- २. सुख-दुख, शीत-उष्ण, वेदना आदि "जीव पर्याय/परिणाम" के रूप में ये एकीकृत रूप "जीव" (सदेह आत्मा) के ही हो सकते है । प्रारम्भ में मार्गणा स्थानों को भी “जीव स्थान" ही कहा जाता था। उन्हें भी इन ५ रूपों में वर्गीकृत किया जा सकता है । इस प्रकार, प्रारम्भ में जीव का स्वरूप पंच रूप था। सभी रूपों की समकक्ष मान्यता रही है । उमास्वामी ने तत्वार्थ सूत्र में प्रायः इन सभी (शरीरादि, मनोभाव, उपयोग योग एवं वेदना) रूपों के माध्यम से जीव का ही वर्णन किया है। लेकिन जब जीववाद, आत्मवाद में परिवद्धित हुआ, तब इनमें से उपयोगात्मक परिभाषा मुख्य हो गयी और अन्य परिभाषाएं द्वितीय कोटि में चली गईं। आत्मा (शुभ या शुद्ध ?) स्वामी हो गया और जीव बेचारा दास हो गया । आगमोत्तर काल के शास्त्रों में प्राप्त जीव की परिभाषाओं को तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है : १. जीव शब्द पर आधारित परिभाषाएं प्राण, आयु आदि मनोभाव । २. जीव के ज्ञानात्मक/आध्यात्मिक स्वरूप पर आधारित परिभाषाएं-ज्ञान, दर्शन, सुख-दुख, वीर्य, उपयोग और । .. ३. जीव के भौतिक एवं आध्यात्मिक स्वरूप पर आधारित परिभाषाएं या मिश्र परिभाषाएं-प्राण और उपयोग। इन परिभाषाओं का ऐतिहासिक अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि जीव की प्रारम्भिक परिभाषा प्राणधारण (द्रव्य प्राण) और आयुष्य ग्रहण से संबंधित रही होगी । प्राण शब्द का सामान्य अर्थ श्वासोच्छवास होता है, पर जैनों का अर्थ अन्य तन्त्रों की तुलना में व्यापक है। उसके अन्तर्गत बल, इन्द्रीय, आयु और श्वासोच्छवास समाहित होते है । ये सभी पोद्गलिक हैं तथा आयु और नामकर्म के रूप है। फलत: जीव की यह प्रारम्भिक परिभाषा भौतिक दृष्टि को निरूपित करती है। यह आचारांग सूत्रकृत, स्थानांग, प्रज्ञापना, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, धवला-१ तथा कुंदकुंद के प्रवचनसार एवं पंचास्तिकाय में पाई जाती है। आजीवक सम्प्रदाय भी जीव को परमाणुमय, वृत्ताकार या अष्टफलकीय आकृति वाला एवं नीले रंग का मानता था। धवला, भगवती एवं पंचास्तिकाय में जीव के १७-२३ नाम बताये गये हैं जिनमें अधिकांश जीव के भौतिक स्वरूप को परिलक्षित करते हैं । श्वेताम्बर आगमों में जन्तु, जन्म, खण्ड २२, अंक ४ २७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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