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________________ एक अन्य मंदिर में राजपूत शैली में निर्मित शंकर, पार्वती तथा गणेश की पत्थर से निर्मित मूर्तियां हैं । इसमें शंकर की मूंछे उत्कीर्ण की गयी हैं । गले में नरमुण्ड की माला है, एक हाथ में माला है, दोनों हाथों में सर्प लिपटे हैं। यहां पर भी पत्थर की नन्दी मूर्ति है, तथा गणेश मूर्ति पर शिलालेख है जिसमें संवत् १०८६ खुदा है । बटेश्वर के दिगम्बर जैन मंदिर के सम्बन्ध में कहा जाता है कि जब शौरीपुर मूल संघाम्नायी भट्टारकों का स्थान था। तो भट्टारक जगतभूषण और विश्वभूषण की परम्परा में १८वीं शताब्दी में हुए जिनेन्द्रभूषण भट्टारक ने बटेश्वर में इस विशाल मंदिर का निर्माण कराया और धर्मशाला बनवाई। यह मंदिर महाराज बदनसिंह द्वारा निर्मित घाट के ऊपर वि० सं० १८३८ में तीन मंजिलों का बनवाया गया था। इस मंदिर की दो मंजिलें यमुना तल के नीचे और दो ऊपर हैं। इस मंदिर के सम्बन्ध में एक किंवदन्ती है कि एक बार भदावर महाराज ने भटटारक जिनेन्द्र भूषण से तिथि पूछी तो वे अमावस्या को पूर्णिमा कह गये। जब उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ तो अपनी बात को रखने के लिए उन्होंने एक कांसी की थाली मंत्रित करके आकाश में चढ़ा दी, जोकि बोहर कोस तक चन्द्रमा की भांति चमकने लगी। महाराजा उनसे खुश हुए और कुछ मांगने का आग्रह किया तब भटटाकर जी ने मंदिर बनवाने की अनुमति मांगी। बटेश्वर में भगवान श्री अजितनाथ को कृष्ण पाषाण निर्मित पद्मासनस्थ साढे पांच फुट की महामनोश प्रतिमा विराजमान है, जोकि मनियादेव के नाम से प्रसिद्ध है । प्रकाश रश्मि पड़ने पर उसकी नाभि मणि शिखा की भांति चमकती है और दूर से दर्शन करने पर मूर्ति के वक्ष में एक और मूर्ति के दर्शन होते हैं। इसकी प्रतिष्ठा महोबा के परिमाल चन्देल वंश के प्रसिद्ध सेनानी आल्हा ऊदल के पिता जल्हण द्वारा वैशाख वदी सप्तमी संवत् १२२४ (ई० ११६६) में हुई थी। इसके आस-पास धातु की बनी बाइस प्रतिमायें हैं और मंदिर में एक अति कलापूर्ण शान्तिनाथ शिलापट्ट है जिस पर संवत् ११२५ (सन् १०६८) अकिंत है। प्रतिवर्ष यहां कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को उत्तर भारत का विख्यात मेला बड़ी धूमधाम से लगता है जो उसी महिने की पंचमी से शुरू होता है। यहां का मेला हिन्दुस्तान के सबसे बड़े और प्रसिद्ध पशु मेलों में से एक होता है। __ शौरीपूर उत्तर भारत का एक पावन प्राचीन दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र है। बाईसवें तीर्थकर भगवान् नेमिनाथ के जन्म कल्याणक तथा सुप्रतिष्ठित मुनियों की केवल ज्ञान भूमि होने के कारण यह पावन सिद्ध क्षेत्र है। १९वीं सदी के प्रारम्भ में कर्नल टॉड ने एक लेख में लिखा है कि "एक बार में प्राचीन नगरों के सम्बन्ध में ग्वालियर के एक प्रख्यात जैन भटटारक के एक शिष्य से बात कर रहा था तो उन्होंने मुझे ४५ वर्ष पूर्व की एक घटना सुनायी कि शौरीपुर में एक व्यक्ति को अवशेषों के बीच में शीशे का टुकड़ा मिला जिसे उसने एक रूपया देकर खरीद लिया, यह हीरा था। बाद में उसने इसे आगरा आकर पांच हजार में बेच दिया। जब गरीब को पता चला तब उसने उस सुनार से आधा पैसा मांगा, जब उसने उसे पैसा न दिया तो उसका खून कर दिया, २० तुलसी प्रज्ञा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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