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________________ अध्यवसाय के आधार पर भी जीव का अस्तित्व सिद्ध किया है । अकलंक की जीव की परिभाषा पूज्यपाद एवं वाचक उमास्वामी से व्यापक भी है क्योंकि उन्होंने चैतन्य को ज्ञान-दर्शन आदि के साथ सुख-दुख वीर्य आदि के रूप में भी माना है। ___ इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अकलंक जीववादी भी हैं और आत्मवादी भी हैं । इसलिये उन्होंने इस प्रश्न का भी उत्तर दिया है कि आत्मा जीव कैसे हो जाता है ? उनका कथन है कि आत्मा में विशेष सामर्थ्य होती है कि वह कर्मों से सम्बद्ध होकर जीव रूप धारण कर ले । उसमें यह सामर्थ्य उसके अनादिकाल से कर्मबद्ध होने के कारण आता है । इस प्रकार आत्मा अनादि काल से जीव मूर्तिक ही है। इसलिये उसका कर्म से प्रभावित होना स्वाभाविक ही है । इसे ठीक औषधियों या मदिरा आदि से जीव के चैतन्य के अभिभूत होने के समान समझना चाहिये । इस अनादि सम्बन्ध की धारणा से अकलंक-जैसे तार्किक ने भी इस मूलभूत प्रश्न का उत्तर नहीं दिया कि शुद्ध आत्मा सर्वप्रथम कैसे जीव बना होगा ? यह प्रश्न आत्मवाद की धारणा पर बड़ा भारी प्रश्नचिह्न लगाता है । इसका उल्लेख जैनी ने भी अपनी पुस्तक में किया है। तत्वतः शुद्ध आत्मा तो जन्म-मरण रहित है और उसका संसारिक रूप ही असंभव है । अतः संसार में जीव ही हैं, कर्मबद्ध जीव ही हैं। उनका ही वर्णन शास्त्रों में अधिकांश पाया जाता है। उनके नैतिक उत्थान, सुख-संवर्द्धन की दिशा एवं निष्कामकर्मता की विधियां वहां बतायी गई हैं । फलस्वरूप अकलंक ने जीव को अनेक जगह आत्मा का समानार्थी माना है, पर उनका आत्मवाद भी मनोवैज्ञानिक भित्ति पर स्थित है जो हमारे जीववाद में आशावाद के दीप को प्रज्ज्वलित किये रहता है। बीसवीं सदी और अकलंक __ अकलंक आठवीं सदी के विद्वान थे। जीववाद संबंधी धारणाओं पर पिछले तीन सौ वर्षों में पर्याप्त अनुसंधान हुए हैं और अनेक तत्कालीन मान्यताएं पुष्ट हुई हैं तथा कुछ परिवर्द्धन के छोर पर हैं। लेकिन आत्मा संबंधी मान्यताएं अभी भी विज्ञान के क्षेत्र से बाहर बनी हुई हैं। अनेक लेखक, जिनमें वैज्ञानिक भी सम्मिलित हैं, आजकल भौतिकी एवं परामनोविज्ञान सम्बन्धी पूर्वोक्ति, दूरदृष्टि, अलौकिक कारणवाद आदि के अन्वेषणों के आधार पर “पदार्थ पर मन के प्रभाव" की चर्चा करते हुए चेतना या संवेदनशीलता का स्वरूप बताकर आत्मवाद को परोक्ष वैज्ञानिक समर्थन देने में अनेक उद्धारण प्रस्तुत करते हैं । वे यह भी बताते हैं कि आत्मावाद और इससे सहचर्य सिद्धांत दुखमय संसारिक जीवन में आशावाद, उच्चतर लक्ष्य के लिये यत्न, सर्व जीव संभाव एवं सहयोग की वृत्ति का मनोवैज्ञानिकतः पल्लवन करते हैं । इसके विपर्यास में वे यह भी बताते हैं कि चेतना और मन समानार्थी से रहे हैं (जिसे आत्मा भी कहा जा सकता है।) पश्चिमी विचारक तो मन और आत्मा को समानार्थी ही मानते रहे हैं । अब मन के अनेक रूप सामने आए हैं -चेतन, अवचेतन, अचेतन । चेतना के भी अनेक रूप सामने आए हैं --(१) अन्तरज्ञानात्मक या लोकोत्तर (२) आनुभविक या लौकिक एवं (३) स्व-चेतना । चेतना की परिभाषा क्या है, यह बहुत स्पष्ट तो नहीं है, लेकिन खंड २२, अंक ४ २८३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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