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काव्य के तत्त्व और परिभाषाएं मुनि गुलाबचन्द्र 'निर्मोही'
काव्य क्या है ? इस विषय पर विद्वानों ने भिन्न-भिन्न मत प्रकट किये हैं । आज तक काव्य की कोई एक ऐसी परिभाषा नहीं बन सकी जिसके सम्बन्ध में यह कहा जा सके कि इस परिभाषा के अनन्तर अब और परिभाषाएं नहीं बनाई जाएंगी । काव्य इतनी विशाल और विचित्र वस्तु है कि इसको एक-दो वाक्यों की परिभाषा में बांध देना बहुत कठिन है । काव्य के स्वरूप के सम्बन्ध में भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों की कैसी-कैसी धारणाएं हैं इस बात को स्पष्ट करने के लिये नीचे काव्य की कुछ मुख्य-मुख्य परिभाषाएं दी जाती हैं । पहले हम भारतीय विद्वानों के द्वारा दी गई परिभाषाओं का उल्लेख करते हैं ।
" वे शब्द और अर्थ जो दोष रहित हों, माधुर्य आदि गुणों से युक्त हों और जिनमें कहीं-कहीं चाहे अलंकार न भी हों, काव्य कहलाते हैं । '
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कहना न होगा कि इस परिभाषा को समझने के लिये होते हैं ? दोष क्या होते हैं ? अलंकार किन्हें कहा जाता है ? चित होना आवश्यक है । इसलिये साधारण व्यक्ति की समझ तरह नहीं आ सकती ।
साहित्य-दर्पण के लेखक आचार्य विश्वनाथ ने काव्य की परिभाषा इस प्रकार
दी है
"जिस वाक्य में पाठक या श्रोता के हृदय में रस-संचार करने की शक्ति हो, उसे काव्य कहा जायेगा ।"
माधुर्य आदि गुण क्या इत्यादि बातों से परिमें यह परिभाषा अच्छी
रस से अभिप्राय है— शृङ्गार, करुण, वीर आदि रस । जिस वाक्य को पढ़कर करुण आदि रस से हमारा हृदय द्रवित हो जाए वह वाक्य काव्य बन जाएगा ।
संस्कृत के एक और प्रसिद्ध आलोचक तथा कवि हैं— पंडितराज जगन्नाथ । उन्होंने काव्य को इस रूप में समझा है-
"वह शब्द काव्य कहलाता है जो रमणीय अर्थ को बतलाने वाला हो ।" रमणीय का अर्थ है हृदय में आनन्द का उदय करने वाला ।
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संस्कृत के कुछ साहित्य - शास्त्रियों के अनुसार रस ही काव्य की आत्मा है । उसके अभाव में छन्दोबद्ध कविता भी काव्य नहीं है अथवा एक निकृष्ट श्रेणी
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खण्ड २२, अंक ४
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