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________________ ब्राह्मण में दी एक अन्य कथा में पुरूरवा को दिन में नग्न देखकर उर्वशी तिरोहित हो गई तो पुरूरवा ने उसे ढूढते हुए कमलों से आच्छादित कुरूक्षेत्र के प्लक्षसर पर पाया। इस प्लक्षसर का उल्लेख अनेकों प्राचीन ग्रन्थों में भी मिलता है ।। प्लक्षसर से सरस्वती पश्चिम को मुड़ती है और ४४ आश्वीनानीति (आश्विनं अथवा आश्वीनं-घुड़सवार की एक दिन की यात्रा-देखे : सहस्राश्वीने वा इतः स्वर्गोलोक :-ऐतरेय ब्राह्मण) दूरी पर विनशन में अन्तसंलिला हो जाती है । अतः प्लक्षसर सरस्वती का मध्यवर्ती आवर्त (भंवर) है जो शर्यणावर्त, प्लक्ष, ब्रह्मसर आदि विभिन्न नामों से अभिहित है । ताण्ड्य ब्राह्मण, वामन पुराण, नारद पुराण, महाभारत आदि में इसका विवरण है। तैत्तिरीय आरण्यक में कुरूक्षेत्र की सीमा दी गई है-तेषां कुरुक्षेत्रं वेदिरासीत् । तस्य खाण्डवो दक्षिणार्ध आसीत् । तुनमुत्तरार्धः । परीणजघनार्धः मरवः उत्करः।अर्थात् कुरूक्षेत्र ब्रह्मवेदि था। उसके दक्षिण में खाण्डव वन, उत्तर में तूर्ध्न प्रदेश तथा उसका जघन परीण और ऊंचा उठा हुआ मरुप्रदेश था। इन में खांडव वन को जला कर पाण्डवों ने इन्द्रप्रस्थ बसाया था । तू प्रदेश, तक्षशिला और पाटलिपुत्र को जोड़ने वाले मार्ग पर स्थित था। पंतजलि ने उसकी राजधानी सुघ्न को मथुरा की तरह प्रसिद्ध बताया है और उसके प्राकार और प्रासादों को दर्शनीय कहा है।' परीण और परिणह कुरूक्षेत्र का पश्चिमी भाग है, जहां ताण्ड्य ब्राह्मण के अनुसार अग्नि प्रज्वलित करने का विधान है--संवत्सरे परीण ह्यग्नीना वधीत (२५.१३.१) । परीण से लगा मरूप्रदेश था । ___मनुस्मृति के अनुसार कुरूक्षेत्र से लगता प्रदेश मत्स्य था और उससे सटा पांचाल और शूरसेनक । यह ब्रह्मावर्त के बाद ब्रह्मर्षिदेश कहा जाता था ।' अभिधान चितामणि के अनुसार ब्रह्मावर्त सरस्वती और दृषद्वती नदियों के मध्य का भाग था । जो महाभारतकाल में सिमट कर वर्तमान हरियाणा प्रदेश जैसा हो गया ।१ कुरूक्षेत्र का ऐतिह्य कृष्ण यजु : संहिता में आये विवरण के अनुसार कुरूक्षेत्र की भूमि पर ब्राह्मणों का राज्य था- ये देवा देवसुवः स्थ त इममामुष्यायणमनमित्राय सुवध्वं महते क्षत्राय महत आधिपत्याय महते जनराज्यायष नो भरता राजा सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानां राजा । -जिसका राजा सोम था । उसके पूर्वजों में देवदत्त, यज्ञदत्त, आममित्र---इन तीन राजाओं के नाम मिलते हैं ।१२ कृष्ण यजु : संहिता के अनुसार इस ब्राह्मण राज्य में प्रति वर्ष १२ दिनों का रत्नि होम कार्य होता था जिसमें प्रथम दिन ब्राह्मण गृह में जाकर राजा बृहस्पति चरू से यज्ञ करता और श्वेत रंग का वृषभ (बैल) दक्षिणा में दान करता । दूसरे दिन क्षत्रिय के घर में, तीसरे दिन राजपहिषी (महारानी) के घर, चौथे दिन वावाता (प्रिय रानी) के घर, पांचवें दिन परिवृक्ता (अप्रिय रानी) के घर, छठे दिन सेनापति के, सातवें दिन सारथी के, आठवें दिन अन्तःपुराध्यक्ष के, नवमें दिन ग्रामणी के, दशवें दिन संग्रहीता (कोषाध्यक्ष) के, ग्यारहवें दिन भागदुध (राजस्व संग्रहकर्ता) के तथा बारहवें दिन द्यूतकार (जूआ कराने वाले) के घर जाकर "खण्ड २२, अंक ४ ममम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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