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मनोगुप्ति (मन को वश में रखना), वाक् गुप्ति (वचन को वश में रखना) और काय गुप्ति (काया को वश में रखना)-ये तेरह नियम परिपालनीय हैं। कहा भी है
तिम्रः सत्तमगुप्तयस्तनु मनो भाषा निमित्तोदयाः पंचेर्यादि समाश्रयाः समितयः पंचव्रतानीत्यपि । चारित्रोपहितं त्रयोदश तपं पूर्व न दृष्टं पर
राचार परमेष्टिनो जिनपते वीरान् नमामो वयम् ।। अर्थात् भगवान् महावीर को नमस्कार है जिन्होंने तेरह प्रकार के चारित्र का प्रतिपादन किया। यह तेरह प्रकार का चारित्र है-अहिंसादि पांच महाव्रत, ईर्यादि पांच समितियां और मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियां। _ 'तेरापंथ' के साथ ये तेरह व्रत आदि इस प्रकार प्रयोक्तव्य बने हैं कि जैन जगत् में आचार-शिथिलता के विरूद्ध यह पंथ आचार-कुशलता और विचार-दृढ़ता का प्रतीक बन गया है । यही कारण है कि पिछले वर्ष (सन् १९९४) सुदूरवर्ती जोहनेसगुसवर्ग यूनिवसिटी, मेन्स (जर्मनी) में श्वेताम्बर तेरापंथी जैनों के आचार, साधुत्व और भक्ति भावना पर एक और पीएच. डी थीसिस उपाधि के लिए स्वीकृत हुआ है।
इससे पूर्व तेरापंथ के उद्भव और विकास पर दो शोध प्रबन्ध (राइज एण्ड डवेलपमेंट ऑफ तेरापंथ' तथा 'एडवेंट एण्ड ग्रोथ ऑफ तेरापंथ जैन सेक्ट-ए कमप्रिहेन्सिव हिस्टोरिकल स्टडी') क्रमशः महर्षि दयानंद सरस्वती यूनिवर्सिटी, अजमेर और जयनारायण व्यास यूनिवर्सिटी, जोधपुर में सन् १९९० और सन् १९९१ में स्वीकृत हो चुके हैं।
इसके अलावा तेरापंथ धर्मसंघ के वर्तमान, दशम आचार्य श्री महाप्रज्ञ के साहित्य पर आधृत दो थीसिस भी पीएच. डी. उपाधि के लिए स्वीकृत होकर शोधकर्ताओं को डिग्री मिल चुकी है। वस्तुत: यह क्रम सन् १९८१ में ही शुरू हो गया था जबकि एक तेरापंथी श्रावक को आचार्य भिक्षु (संत भीखणजी) के व्यक्तित्व और कृतित्व-पर भागलपुर यूनिवर्सिटी, भागलपुर से पीएच. डी. एवार्ड हुई थी।
जर्मन विद्वान् पीटर फुगेल ने अपना रीसर्च वर्क पो. ई. डब्लू. मूलर और असोसियट प्रो. ब्रुसकेफेर के मार्गदर्शन में पूरा किया है। उसने सभी जैन-संप्रदायों का व्यापक सर्वेक्षण करके उनमें तेरापंथ की संस्थिति और उसके साधुओं की दीक्षा-शिक्षा पर प्रकाश डाला है। जैन गृहस्थों के आदर्शों की चर्चा करके साधु और गृहस्थों के आचार-विचार का विवरण दिया है और तेरापंथ में हुए सामाजिक एवं धार्मिक सुधारों का मुकम्मल लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है ।
पीटर फुगेल ने जैनधर्म में भावना का महत्व, विदेशों में हुए जैन धर्म विषयक शोध का विवरण, जैन जगत् की आधारभूत समस्याएं, तेरापंथ की साधु-परम्परा, उसकी मर्यादाएं और सामाजिक उद्देश्य आदि सभी विषयों पर पर्याप्त प्रकाश डाला है। शोध कर्ता का मानना है कि किसी भी धर्म में भेद-प्रभेदों का बढ़ना उसमें वर्तमान जीवन्तता का लक्षण है। इस दृष्टि से उसने जैन धर्म के समाज शास्त्र और उसकी संस्कृति पर पर्याप्त ऊहापोह किया है।
तुलसी प्रज्ञा
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