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________________ मन का विकास मन की तीन अवस्थाएं होती हैं-विक्षेप, एकान और अमन । योग की भाषा में अवधान, एकाग्रता व ध्यान । इन तीन अवस्थाओं की मान्यता है जो मनोविज्ञान में भी-अटेन्शन, कान्सट्रेशन और मेडीटेशन के रूप में स्वीकृत हैं। मन का विकास इन अवस्थाओं से गुजरकर क्रमशः होता है। ___'मनोनुशासनम्' में मूढ़, विक्षिप्त, यातायात श्लिष्ट, सुलीन और निरूद्ध-के रूप में मनोविकास की भूमिकाएं बताई गई हैं। 'पातंजलयोग' में क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरूद्ध-यह क्रम दिया गया है। हेमचन्द्राचार्य ने विक्षिप्त, यातायात, श्लिष्ट और सुलीन तथा स्वामी विवेकानन्द ने क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त और एकाग्रचार स्तर बताएं हैं जबकि मनोविज्ञान में इड्, ईगो और सुपर ईगो-तीन ही भूमिकाएं मान ली गई हैं। १. मूढ-बाहरी दुनियां में लगे हुए मन की अवस्था मूढ होती है। उसमें द्वेष और आसक्ति का वेग अत्यन्त प्रबल रहता है। तभी तो कहते हैं—'दृष्टिचारित्रमोहपरिव्याप्तं मूढम् ।" योगदर्शन में यह चित्त की द्वितीय भूमिका है । विवेकानंद भी इसे दूसरी अवस्था के रूप में तमोगुणात्मक कहते हैं । चित् की इस अवस्था में अज्ञान, अधर्म आदि रहते हैं। २. विक्षिप्त-'इतस्ततो विचरणशीलं विक्षिप्तम् ।"५ इस अवस्था में सत्त्वगुण आ जाने से मनुष्य की प्रवृत्ति धर्म, ज्ञान, वैराग्य आदि में होती है पर रजोगुण उसे विक्षिप्त करता रहता है जैसे जमे हुए कूड़े को कुरेदने पर दुर्गन्ध फूट पड़ती है वैसे ही यह अवस्था है। ३. यातायात-जिस अवस्था में मन कभी बाहर व कभी भीतर भ्रमण करता है वह यातायात अवस्था है। 'कदाचिदन्तः कदाचिद् बहिविहारि यातायातम् ।। विक्षिप्तावस्था की अपेक्षा इसमें एकाग्रता बढती है पर वह चिरकालीन नहीं होती। ४. श्लिष्ट- 'स्थिरंश्लिष्टम्" इसमें ध्याता का ध्येय के साथ श्लेष तो हो जाता है पर एकात्मकता नहीं हो पाती है। स्थिर होने के कारण आनन्दमय बना हुआ चित्त श्लिष्ट कहलाता है। ५. सुलीन-सुलीन का तात्पर्य है-सम्यक् प्रकार से लीन होना। अर्थात् श्लिष्ट अवस्था शिखर पर पहुंच जाती है । 'सुस्थिरं सुलीनं । १८ हेमचन्द्र ने भी कहा है -~~'सुलीनमतिनिश्चलम् । ६. निरुद्ध-'निरालम्बनं केवलमात्मपरिण तिः निरुद्धम् । अर्थात् जब मन बाह्यालम्बनों से शून्य होकर केवल आत्मपरिणत हो जाता है तब उसे निरुद्धावस्था कहते हैं। 'विरामप्रत्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽन्यः२१ जब चित्त का स्थायी निरोध हो जाता है तब वह अवस्था निरुद्धभूमि कहलाती है। इस प्रकार विकास के क्रम में मन की प्रथम दो अवस्थाएं निम्नस्तर, तीसरी मध्यमस्तर व अग्रिम उच्चस्तर की अवस्थाएं कही जा सकती हैं। सन २२, बंक ४ ३१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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