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________________ मन क्या है ? भगवान महावीर ने कहा - 'मणिज्जमाणे मणे । " मन से मनन अथवा जिससे मनन होता है वह मन है । पश्चिम के भौतिकवादी व भारत के चार्वाक, मन की सत्ता स्वीकार ही नहीं करते । किन्तु उपनिषदों में मन की बड़ी महत्ता है । शिव संकल्पोपनिषद् में कहा है कि ब्रह्मा से परे हरि हैं और उससे परे मन । वह मेरा मन शिव संकल्पवाला हो परात् परतरो ब्रह्मा तत्परात् परतो हरिः । तत्परात् परतोऽधीशस्तन्मेमनः शिवसंकल्पमस्तु ॥ 'मनोनुशासनम्' गणाधिपति श्री तुलसी का एक महान् योगपरक ग्रंथ है । उसमें कहा गया है— 'इन्द्रियसापेक्षं सर्वार्थग्राहि त्रैकालिकं संज्ञानं मनः ।" अर्थात् जो इन्द्रियों द्वारा गृहीत विषयों में प्रवृत्त होता है, शब्दरूपादि विषयों को जानता है तथा भूत, भविष्य और वर्तमान - तीनों का संकलनात्मक ज्ञान करता रहता है वह मन है । अथवा जो चेतना बाहर की ओर जाती है, उसका प्रवाहात्मक अस्तित्व ही मन है ।" यूं भी कहा जा सकता है कि मन चेतना जीव की वह अवस्था है जो बाहरी वातावरण और प्रवृत्तियों से प्रभावित होती है ।" आधुनिक मनोविज्ञान में मन को चेतना का ही पर्याय माना गया है । फ्रायड मन की तुलना हिमखंड से करता है जबकि युंग ने उसकी तुलना महासागर से की है । मन का स्वरूप मन के कार्यों से आसानी से समझा जा सकता है । मन के तीन कार्य हैं--स्मृति, चिंतन व कल्पना । मन अतीत की स्मृति, वर्तमान का चिंतन व व भविष्य की कल्पना करने में निमग्न रहता है जिससे उसका स्वरूप हर समय चंचल बना रहता है । चंचलता की प्रवृत्ति ही मन है और चंचलता का निरोध करना मन से ऊपर उठना है । मन का स्थान ११ मन के स्थान के बारे में भी अनेक मत हैं । कुछ आचार्य मन को शरीर व्यापी मानते हैं । कुछ लोग मन का स्थान हृदय से नीचे बतलाते हैं । वर्तमान शरीर शास्त्री मन का स्थान मस्तिष्क निर्धारित करते हैं । वास्तव में मन समूचे शरीर में ही ब्याप्त होता है क्योंकि यह संज्ञान का साधन है और संज्ञान के स्नायुओं का जाल हमारे पूरे शरीर में फैला हुआ है । 'मनोनुशासनम्' के भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञजी कहते हैं - 'साधना की समग्र पद्धति जिस मंदिर की परिक्रमा करती है— उसका देवता है मन । उसकी सिद्धि सबकी सिद्धि और उसकी असिद्धि सबकी असिद्धि होती है ।' 'ज्ञानार्णवः' के रचयिता आचार्य शुभचन्द्र का भी यही मत है । " उत्तराध्ययन सूत्र में केशी गौतम से पूछते हैं—गोतम ! यह साहसिक भयंकर अश्व दौड़ रहा है और तुम उस पर आरूढ हो, वह तुम्हें उन्मार्ग में कैसे नहीं ले जाता है ? तब गौतम कहते हैं - 'मणो साहसीओ ।" अर्थात् यह दुष्ट अश्व है— मन, जिसे मैं अपने अधीन रखता हूं । धर्मशिक्षा के द्वारा वह उत्तम जाति का अश्व हो गया है । ३१२ Jain Education International ..... For Private & Personal Use Only 'तुलसी प्रज्ञा www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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