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________________ है-- 'जहां उपमान और उपमेय की समान शोभा प्रकाशित हो वहां उपमालद्वार होता है। उनके इसी ग्रंथ 'चन्द्रालोक' के अलङ्कारविषयक पञ्चम मयूख को अप्पय्यदीक्षित ने कुछ परिवर्धित करके 'कुवलयानन्द' नामक ग्रन्थ की रचना की है। १३. विद्यानाथ जयदेव के पश्चात् विद्यानाथ प्रणीत 'प्रतापरुद्रयशोभूषण' नामक ग्रंथ उपलब्ध होता है । अलङ्कारों के वर्णन में यद्यपि उन्होंने रूय्यक का अनुसरण किया है तथापि काव्यप्रकाशकार भी उनका आदर्श रहा लगता है। उन्होंने उपमालङ्कार को परिभाषित करते हुए लिखा है- 'जहां स्वतःसिद्ध अर्थात् स्वयं से भिन्न संमत (योग्य) जन्य (अवर्ण्य, उपमान) के साथ किसी धर्म के कारण एक ही बार वाच्यरूप में साम्य का प्रतिपादन किया जाय वहां उपमालकार होता है । १४. विश्वनाथ __विश्वनाथ प्रणीत 'साहित्यदर्पण' संस्कृत काव्यशास्त्र का अनुपम ग्रंथ है । शब्दलङ्कारों का निरूपण करने के पश्चात् अर्थालङ्कारों में विश्वनाथ ने सर्वप्रथम उपमा का निरूपण करते हुए लिखा है कि 'एक ही वाक्य में दो पदार्थों के वैधर्म्य रहित वाच्य सादृश्य को उपमालङ्कार कहते हैं । विश्वनाथ ने अर्थालङ्कारों के निरूपण में उपमा को सादृश्यमूलक अलङ्कारों का प्राणभूत (उपजीव्य) माना है। १५. अप्पयदीक्षित अप्पयदीक्षित के अलङ्कारशास्त्र पर तीन ग्रंथ-कुवलयानन्द, चित्रमीमांसा, वृतिवातिक प्रसिद्ध हैं। इनके ग्रंथ कुवलयानंद का अलङ्कारशास्त्र के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने उपमा का लक्षण प्रस्तुत करते हुए लिखा है--'जहां दो वस्तुओं अर्थात् उपमान और उपमेय की समानता से दो वस्तुओं के सादृश्य पर आधारित चमत्कार पाया जाय वहां उपमालङ्कार होता है। उपमा को विस्तृत करते हुए दीक्षितजी ने लिखा है-- यत्रोपमानोपमेययोः सहृदयहृदयाह्लादकत्वेन चारुसादृश्यमुद्भुततयोल्लसति व्यङ्गय्मर्यादा विनास्पष्टं प्रकाशते तत्रोपमालङ्कारः। अर्थात् ऐसा काव्य जिसमें उपमेय और उपमान की सुन्दरता की समानता सहृदय भावुकों के हृदय को प्रसन्न करती है और उपमान तथा उपमेय की चमत्कारपूर्ण समानता प्रस्फुटित होती है वह उपमालङ्कार होता है । १६. पंडितराज जगन्नाथ ___पंडितराज जगन्नाथ संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रौढ़ आचार्य हैं। इनका ग्रंथ 'रसगंगाधर' काव्यशास्त्र का एक प्रामाणिक ग्रंथ है। यह ग्रंथ दो आननों में विभक्त है । उपमा अलङ्कार को जगन्नाथ ने इस प्रकार परिभाषित किया है । 'साद श्यं सून्दरम.........."उपमालङकृति ।' उन्होंने सादृश्य के चमत्कारी होने को ही उपमालङ्कार माना है। उनके अनुसार वाक्य के अर्थ को सुशोभित करने वाला सुन्दर सादृश्य ही उपमा है । इस प्रकार विभिन्न आचार्यों ने उपमा के स्वरूप को विभिन्न लक्षणों के साथ प्रस्तुत किया है। खण्ड २२, पंक४ ३०७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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