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________________ उपनिषद् और जैनदर्शन में आत्मस्वरूप-चिन्तन हरिशंकर पाण्डेय भारतीय दर्शन का आधार विन्दु है-'आत्मा' । सबने इसके अस्तित्व को स्वीकार किया है। उपनिषदों में इसे सर्वज्ञ एवं सर्वव्यापक तत्व के रूप में स्वीकार किया गया है। गीताकार ने इसे अलिप्त, अच्छेद्य एवं सर्वप्रकाशक कहा है। न्यायसूत्र के रचयिता गौतम की दृष्टि में इच्छा, द्वेष, सुख-दुःख और ज्ञान का आश्रय आत्मा है । वैशेषिककार ने इच्छा, प्रयत्न प्राण जीवनादि को आत्मा का लिङ्ग माना है।' सांख्य दर्शन आत्मा के लिए पुरुष शब्द का विनियोग करता है तथा उसे त्रिगुणादि से भिन्न द्रष्टा और अकर्ता मानता है। वह असंग है तथा सुषुप्ति आदि अवस्थाओं का साक्षी है । ' मीमांसकों के अनुसार ज्ञानादि क्रिया-सम्पन्न तथा क्रिया से अलग मस्तित्व रखनेवाला आत्मा है। सदानन्द ने वेदान्तसार में आत्मा को नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, सत्यस्वभाववान् तथा सर्वव्यापक तत्त्व के रूप में स्वीकार किया है।' बौद्ध दार्शनिकों के अनुसार आत्मा नाम की कोई वस्तु नहीं है। किन्तु जनदर्शन में आत्मा चैतन्य लक्षणवाला तथा रत्नत्रय स्वरूप है।। आत्मन् शब्द अनेक धातुओं से व्युत्पन्न होता है। महर्षि यास्क ने भ्वादिगणीय 'अत सातत्यगमने एवं स्वादिगणीय 'आप्ल व्याप्ती धातु से इसे निष्पन्न माना है-आत्मा अततेर्वा आप्तेर्वा । अर्थात् आत्मा सतत गतिमान् एवं सर्वव्यापक होता है। अदादिगणीय 'अन प्राणने धातु से भी वह निष्पन्न माना गया है.---'अनिति प्राणान् धारयतीति आत्मा'९३ अर्थात् जो प्राणों को धारण करे वह आत्मा है। आचार्य शंकर ने कठोपनिषद्-भाष्य में लिङ्गपुराण के श्लोक को उधृत किया है जिसमें चार प्रकार से आत्मा शब्द की व्युत्पत्ति मानी गई है-~ यच्चाप्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयान्निह । यच्चास्य संततो भावस्तस्मादात्मेति कीर्त्यते ॥ अर्थात् यह सबको व्याप्त करता है, ग्रहण करता है, इस लोक में विषयों को भोगता है तथा इसका सर्वदा सद्भाव है, इसलिए यह आत्मा कहलाता है। यहां पर 'आप्ल व्याप्तो', आङ् उपसगं पूर्व क 'दान् दाने (दाने), अद भक्षणे एवं अत-सातत्यगमने आदिचार धातुओं से आत्मा शब्द को निष्पन्न माना गया है। वायुपुराण में भी यत्किञ्चित् अन्तर के साथ आत्मा का व्युत्पत्तिपरक यही श्लोक उपलब्ध होता है : यदाप्नोति यदादत्ते यच्चास्ति विषयं प्रति । यच्चास्ति सततं भावस्तस्मादात्मा निरुच्यते ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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