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'जैन मेघदूतम्' के रचनाकार : आचार्य मेरुतु ग नीलम जैन
जैन समाज में मेरुतुंग नाम के तीन आचार्य हुए हैं। उनमें काव्य-प्रणेता के रूप में केवल दो ही विद्वान् प्रसिद्ध हैं । प्रथम मेरुतुंग नगेन्द्रगच्छ के आचार्य चन्द्रप्रभसूरि के शिष्य हैं जो वैक्रम चतुर्दश शतक में वर्तमान माने जाते रहे हैं । उन्होंने " प्रबन्ध चिन्तामणि", विचार श्रेणी, धर्मोपदेश, थेरावली, षड्दर्शन- विचार आदि ग्रन्थ लिखे हैं । जिनमें प्रबन्ध - चिन्तामणि नामक अर्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ विशेष प्रसिद्ध है । इसकी रचना वि० सं० १३६१ ( ई० सन् १३०४) में हुई है ।' जैन साहित्य में यह विद्वान् आचार्य मेरुतुंग के नाम से विख्यात हैं !
दूसरे मेरुतुंग अंचलगच्छीय महेन्द्रप्रभसूरि के शिष्य हैं । यह दूसरे मेरुतुंग ही जैन - मेघदूत काव्य के रचयिता हैं । महाकवि कालिदासवत् 'जैनमेघदूतम्' की रचना करने वाले श्री मेरुतुंगाचार्य का कार्यकाल विक्रमी संवत्सर का पंचदश शतक है । इनका जन्म मारवाड़ के माणी ग्राम हुआ था । इस ग्राम में पोरबालवंशीय बहोरा वीरसिंह रहते थे, जिनकी पत्नी का नाम नालदेवी था। इस नालदेवी के गर्भ से वि० सं० १४०३ में कवि मेरुतुंग का जन्म हुआ । बचपन में इनका नाम वस्तिक, वस्तो या वस्तपाल था । अंचलगच्छ के प्रसिद्ध आचार्य श्री महेन्द्रप्रभसूरि ने उन्हें दीक्षा देकर मेरुतुंग नाम प्रदान किया। अपने समय की शिक्षा-प्रणाली अनुसार इन्होंने संस्कृत, प्राकृत तथा अन्य शास्त्रीय विधाओं का ज्ञान प्राप्त किया है । कालक्रम से गुरु ने उनको वि० सं० १४२६ में पाटन में सूरिपद प्रदान किया। इसके बाद वि० सं० १४५५ में गच्छनायक की पदवी फाल्गुन बदी एकादशी को दी गई । वि० सं० १४७१ में मार्गशीर्ष सुदी पूर्णिमा के दिन पाटन में इस विद्वान् मनीषी का देहावसान हुआ । ६८ वर्षीय जीवन काल में ये सर्वदा अपने और समाज के विकास में संलग्न रहें । इनकी प्रमुख रचनाएं इस प्रकार हैं
१. जैन मेघदूतम्
२. सप्ततिका भाष्य टीका
३. लघुशतपदी
१. त्रयोदशस्वब्दशतेषु चैकषष्ट्यधिकेषु क्रमतो गतेषु ।
वैशाखमासस्य च पूर्णिमायां ग्रन्थः समाप्ति गमितो मितोऽयम् ॥
-- प्रब० चि० प्रशस्ति पद्य ॥ ५॥
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