SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सारणी १ जीव-वाचक प्राचीन शब्दों के अर्थ भगवती शीलांक १.प्राण दस प्राणों से युक्त २-४ इन्द्रीय जीव (स) २. भूत कालिक अस्तित्व एकेंद्रिय वनस्पति (स्थावर) ३. जीव आयुष्यकर्म एवं प्राणयुक्त पंचेद्रिय (त्रस) ४. सत्व कर्म-संबंध से विषादी एकेंद्रिय पृथ्वी आदि चार (स्थावर) ६. विज्ञ खाद्य-रसों का ज्ञाता ६. वेद सुख-दुख संवेदी ७. आत्मा सतत संसार-भ्रमणी चतुर्वेदी का विचार है कि मानव के प्रारम्भिक वैचारिक विकास के प्रथम चरण में वह क्रियाकांडी एवं सामान्य बुद्धिवादी था। वह इहलौकिक जीवन को ही परमार्थ मानता था । वह वस्तुतः चार्वाक था । अपने विकास के द्वितीय चरण में मानव चिंतनशील, बुद्धिवादी, कल्पनाप्रवीण एवं प्रतिभावान् बना। इस चरण में उसने आत्मवाद एवं उससे सहचरित अनेक सिद्धांतों की बौद्धिक कल्पना की जिससे वह न केवल हिंसात्मक क्रियाकांडों से ही मुक्ति पा सका, अपितु अध्यात्मवाद के साये में उसने जीवन को अनन्त सुखमय बनाने का महान आशावादी उद्देश्य और लक्ष्य भी पाया। अपने बुद्धिवाद से उसने सामान्य-अर्थी सतत-विहारी आत्मा शब्द का ही अमूर्तीकरण नहीं किया, अपितु अनेक भौतिक प्रक्रमों एवं वस्तुओं (प्राण, इन्द्रिय, मन आदि) का भी अध्यात्मीकरण किया। इस प्रक्रिया में जीवन की घटनाओं की व्याख्या सामान्य जन के लिये दूरवबोध हो गई। जल, थल व नभ आदि के अध्यात्मीकरण ने ऋषिमुनियों को जो भी प्रतिष्ठा दिलाई हो, पर सामान्य जन तो परेशानी में ही पड़ा। वह आत्मवादी बने या जीववादी ? आत्मवादी बनने में अनन्त सुख एवं आयु थी, जीववादी बनने में सांत सुख एवं सीमित आयु थी। एक ओर कल्पना जगत का आनंद था, दूसरी ओर व्यावहारिक जगत की आपदायें थीं। श्रमण-संस्कृति एवं उपनिषदों के उपदेष्टा साधु जीवन की श्रेष्ठता की चर्चा कर उसे उत्सर्ग मार्ग बताते थे, अपवादी तो बेचारा "जीव" माना गया। बहुसंख्यकों की यह अप्रतिष्ठा धर्मज्ञ ही कर सकते थे। यह स्थिति अब तक बनी हुई है। इससे आत्मवाद मौलिक सिद्धांत हो गया। जैनों में तो आत्मप्रवाद नाम से एक स्वतन्त्र पूर्वागम ही माना जाता है, यद्यपि इसके नाम से प्रकट है कि यह एक विषमवादी प्रकरण रहा है। इसीलिये कबीर को भी अपने समय में यह कहना पड़ा कि मैं बाजार में भाषण दे रहा हूं पर श्रोता गण नदारद हैं । क्यों ? अब मानवबुद्धि इसका उत्तर दे सकती है। अध्यात्मवादी, मान्यताओं की कोटि व्यावहारिक जगत की विरोधी दिशा में जाती है। इनके बीच समन्वय कम दिखता है । अतः सामान्य जन "जीव" बने रहने में, साधु बनने की अपेक्षा, अधिक आनन्द मानता है । वह सोचता है कि सांसारिक कष्ट तो हलुए में किशमिस के समान हैं जो उसके आनन्द को ही बढ़ाते हैं । सत्यभक्त ने बताया है कि संसार में शारीरिक और मानसिक दुःखों की संख्या १०८ है और मूलतः ८ प्रकार के सुखों (जीवन, विद्या, खंड २२, मंक ४ २७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy