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________________ २. भामह भरत के पश्चात् भामह ने अलङ्कारों का काव्यशास्त्रीय ढंग से विवेचन किया है । उन्होंने चालीस अलङ्कारों का निरूपण किया है। उनकी परिभाषा में कहा गया है'जहां देशकाल, क्रिया आदि की दृष्टि से विरुद्ध उपमान के साथ उपमेय की गुणविशेष के कारण समानता दिखायी जाय वहां उपमालंकार होता है ।" उनके अनुसार किसी भी वस्तु का दूसरी वस्तु के साथ साम्य कवि कल्पित ही हुआ करता है; वास्तविक नहीं । उन्होंने कहा कि किसी भी वस्तु या पदार्थ का सभी के साथ सादृश्य असम्भव है, इसलिए किञ्चित् साम्य होने पर भी उपमा की स्थिति को स्वीकार करना चाहिए । ३. दण्डी भामह के पश्चात् दूसरे प्रसिद्ध आचार्य में काव्यालङ्कारों का विशद् विवेचन किया है । सम्प्रदाय का समर्थक है तथापि उसमें गुण और है । दण्डी ने उपमा का लक्षण करते हुए लिखा है-जहां दो वस्तुओं में अर्थात् उपमान और उपमेय में किसी भी रूप में कुछ समानता का भाव प्रकट होता हो तो वहां उपमालङ्कार होता है । उनके अनुसार उपमान और उपमेय में साम्य की प्रतीति ही उपमा है । दण्डी हैं । दण्डी ने 'काव्यादर्श' यथापि 'काव्यादर्श' अंशतः रीति अलङ्कारों का निरूपण किया गया आचार्य भरत ने उपमा की परिभाषा में 'यत् किञ्चित्' शब्द का प्रयोग किया था साथ ही किञ्चित् सदृशी उपमा की सत्ता स्वीकार की थी । दण्डी की उपमाधारणा भी भरत की 'उपमा' से ही अनुप्राणित प्रतीत होती है । ४. उद्भट अलङ्कार शास्त्र की परम्परा में दण्डी के पश्चात् उद्भट को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । उद्भट ने अपने काव्यालङ्कार सारसंग्रह' में अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के कुछ अलङ्कारों का परिष्कृत रूप में विस्तार पूर्वक विवेचन किया है तथा कुछ- अलङ्कारों के नवीन लक्षण प्रस्तुत किये हैं । उद्भट ने उपमान और उपमेय के मनोहरी साधर्म्य को उपमा कहा । भामह ने जहां उपमान और उपमेय का साम्य, उपमा का लक्षण माना था वहां उद्भट ने 'साधर्म्य' शब्द का प्रयोग किया। भरत ने इसके स्थान पर 'सादृश्य' शब्द का प्रयोग किया था । उद्भट ने साधर्म्य के साथ ही 'चेतोहारी' विशेषण का प्रयोग भी किया है । ५. वामन आचार्य वामन उद्भट के समकालीन आचार्य हैं । सूत्र शैली में लिखा गया ग्रन्थ है । उन्होंने इस ग्रन्थ में अलङ्कारों का महत्त्व स्वीकार किया है जिनके मूल में अलंकारों को उपमा प्रपञ्च सिद्ध करना चाहते हैं । ३०४ Jain Education International इनका 'काव्यालङ्कारसूत्र' (अर्थालङ्कारों में ) उन्हीं सादृश्य हो । वामन सभी उन्होंने उपमा-लक्षण प्रस्तुत तुलसी- महा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524586
Book TitleTulsi Prajna 1996 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages246
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size10 MB
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