Book Title: Tulsi Prajna 1995 10
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तुलसी प्रज्ञा TULSI PRAJÑA Jain Vishva Bharati Institute Research Journal अनुसंधान-त्रैमासिकी पूर्णाङ्क-९५ र विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनू -३४१३०६ jam Vishva-bharati Institute, Ladnun-341306 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुलसी प्रज्ञा TULSI PRAJNA पूर्णाङ्क-९५ अनुसंधान-त्रैमासिकी Research Quarterly JAIN VISHVA-BHARATI INSTITUTE RESEARCH JOURNAL Editor Dr. Parmesbwar Solanki Vol. XXI Oct.-Dec., 1995 No. 3 Jain Vishva-bharati Institute, (Deemed University) Ladoun-341 306 (Raj.) INDIA Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI Oct.-Dec., 1995 No. 3 मूल्य : बीस रुपये The views expressed and facts stated in this journal are those of the writers. It is not necessary that the institute agree with them. Editorial enquiries may be addressed to : The Editor, Tulsi Prajñā, JVBI Research Journal, Ladnun-341 306. Annual Subs. Rs. (C/ Life Membership Rs. 600/ Published by Dr. Parmeshwar Solanki for Jain Vishva-bharati Institute, Deemed University, Ladnun-341 306 and printed by him at Jain Vishva-bharati Press, Ladaun--341 306. Published on 29.2.96 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ २४५ २६७ २७३ २८१ २८५ अनुक्रमणिका/Contents १. संपादकीय २. ॐ नमः सिद्धम् सोहनलाल पटनी ३. ओघनियुक्ति में उपधि सा० जतनकुमारी 'कनिष्ठा' ४. जैन दर्शन में शांति की अवधारणा सुरेन्द्र शर्मा ५. जैनदर्शन में सल्लेखना विनोद कुमार पाण्डेय ६. 'वाक्पदीय' में काल की अवधारणा रघवीर वेदालंकार ७. मगध में काण्व-शासन और युगपुराण उपेन्द्र नाथ राय ८. काम्यकगच्छ शिव प्रसाद ९. पंच महाव्रत एक संक्षिप्त विवेचन साध्वी संचितयशा १०. प्रकीर्णकम् १. वर्णमाला में जैन दर्शन २. परम विदुषी मदालसा ३. भक्ति में भारतीय दर्शनों का स्वरूप ४. आख्यानों का विवेचन (२) ५. संगीत संबन्धी एक पद ११. पुस्तक-समीक्षा English Section 12. When did untouchability originate ? Upendranath Roy 13. The Truth of the Nomenclature Harisbankar Pandey 14. The Jain Stupa and its Inspirational Source Ratanlal Mishra 15. World Peace Through Jaina's way of Living Suresh C. Jain 16. Apahouti Alankāra : A Critical Analysis Dhananjaya Bbanja 17. Non-Violence in Medical Science Anil K. Dhar 18. Book Review २९५ ३२३ ३४५ 79 95 99 103 105 111 117 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय ॐकार की महिमा और संवृत 'अ' ध्वनि सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्रधीरा मनसा वाचमक्रत । अत्रा सखायः सख्यानि जानते भ्रद्रैषी लक्ष्मीनिहिताधि वाचि ।।२।। हृदा तष्टेषु मनसो जवेषु यब्राह्मणा संयजन्ते सखायः । अत्राह त्वं वि जहुर्वेद्याभिरोह ब्रह्माणो वि चरन्त्युत्वे ॥८॥ ऋग्वेद संहिता, मण्डल-दश के सूक्त ७१ में पढ़े गये ये दोनों मन्त्र वागर्थ के सम्बन्ध में हैं । पहले मंत्र में आंगिरस ऋषि बृहस्पति कहते हैं कि जैसे बुद्धिमान् लोग सत्तू को छालनी से छान कर काम में लाते हैं वैसे ही वे वाक् को मन में छानकर, सम्यक् विचार से उसे निर्दोष बनाकर बोलते हैं। पहले तोलते हैं, फिर बोलते हैं। ऐसी वाणी बोलने वाले परस्पर मित्र होते हैं और वह वाणी भद्र होती है। दूसरे मंत्र में भी यही कहा गया है कि परस्पर मित्रभाव रखने वाले ब्राह्मणों ने गुण-दोष निरूपण से संगतिकरण करके मंत्रों को कहा है। इसलिए उनका अर्थ-चिन्तन भी तादृश ही मनीषी विद्वानों (ओह ब्राह्मण) को प्रकरण आदि से संगति बैठाकर और सामंजस्यपूर्वक करना चाहिए। पुराकालीन भारतीय वाङ्मय में 'वाक्' अथवा शब्द-ब्रह्म की व्याख्या के लिए शिक्षा, निरुक्त और शब्दानुशासन-तीन प्रकार के ग्रन्थ थे जो क्रमशः आधुनिक ध्वनिशास्त्र, व्युत्पत्तिशास्त्र और व्याकरणशास्त्र के वाचक कहे जा सकते हैं। शिक्षा, प्रातिशाख्यों के रूप में; निघंटु-निरुक्त, धातु पाठों के रूप में और शब्दानुशासन, व्याकरण के रूप में विकसित हुए किन्तु कालान्तर में ये ग्रन्थ भारतीय वाङ्मय से विलोप हो गए। फलतः वरतंतु शिष्य कौत्स ने कह दिया कि यदि वेद-मंत्रों के अर्थ खण्ड २१, अंक ३ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठीक-ठीक जानने हैं तो यह प्रयास व्यर्थ है क्योंकि वेद-मंत्र अर्थहीन हैं - ( यदि मन्त्रार्थ प्रत्ययायानर्थकं भवतीति कौत्सः । अनर्थका हि मन्त्राः । तदेतेनोपेक्षितव्यम् । ) निरुक्त - परिशिष्ट (२) के अनुसार यह परिस्थिति युग सहस्र वर्षों तक रही (... विद्या महान्तमात्मानं, महानात्मा प्रतिभां, प्रतिभा प्रकृति, सा स्वपिति युगसहस्रम् 1) फिर निरुक्त और शब्दानुशासन को पुनः प्रश्रय मिला । यास्क मुनि ने स्वयं अपने निरुक्त (परिशिष्ट १.१२ ) में यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है कि ऋचाओं का अर्थ सुनकर या तर्क से नहीं करना चाहिए । न उन्हें अलग-अलग स्वतंत्र रूप में निर्वचन करना चाहिए। उनकी व्याख्या में सबसे अधिक प्रधानता प्रकरण को देनी चाहिए (अपि श्रुतितोऽपितर्कतः । न तु पृथक्त्वेन मंत्रा निर्वक्तव्याः । प्रकरणश एव तु निर्वक्तव्याः । ) – यह प्रतिपादन भी उपरि उद्धृत वेद मंत्रों की ही प्रतिध्वनि है । यास्क मुनि के अलाबा औदुम्बरायण, गार्ग्य, वार्ताक्ष, शाकटायन, वार्ष्यायणि प्रभृति अनेकों ध्वनिशास्त्र (स्फोटवाद) के प्रवक्ता हुए। नैरुक्त और व्याकरणवेत्ता भी दर्जनों उल्लिखित मिलते हैं किन्तु सरलता, सुबोधता और सुस्पष्टता के कारण यास्क का निरुक्त, पाणिनि का व्याकरण और पतंजलि का महाभाष्य विशेष प्रसिद्ध हुए और शेष पुनः अदर्शन हो गए । फिर भी अभिनव शोध में ऐन्द्र, कातन्त्र और जैनेन्द्र व्याकरण, आपिशलि, काशकृत्स्न धातुपाठ और चन्द्र, आपिशल, कात्यायन, उब्वट, प्रभृति के शिक्षा सूत्र तथा व्यास, वामन और हर्षवर्द्धन के लिंगानुशासन आदि अनेकों ग्रन्थ रत्न अब प्रसिद्ध हो रहे हैं और भर्तृहरि के 'वाक्य प्रदीप' की तरह वाक् तत्त्व अथवा शब्द ब्रह्म के रहस्यों का उद्घाटन भी होने लगा है । 'तुलसी प्रज्ञा' के प्रस्तुत अंक में 'ॐ नमः सिद्धम्', 'वर्णमाला में जैनदर्शन' और 'संगीत संबंधी जैनागम का एक पद' -- शीर्षक तीन लेख प्रकाशित हो रहे हैं । ये लेख उपर्युक्त वाक् तत्त्व, शब्द ब्रह्म अथवा महान्तम् आत्मा का ही चिन्तन-मनन है । 'ओम्' - अ + उ +म् में क्रमशः ह्रस्व स्वर, दीर्घ स्वर और ऊष्माण रूपी २४ ध्वनियां समाहित हैं अथवा संवृत- 'अ' के विवृत ध्वनि--'अ' में परिणत होने पर ही जगत् की प्रक्रिया शुरू होती है (विवर्ततेऽर्थ भावेन प्रक्रिया जगतो यतः ) । इसे और स्पष्ट करें । संवृत - 'अ' श्रुति सबकी जन्मदातृ है, अक्षर है, और समस्त ध्वनियों और प्रतिश्रुतियों का माध्यम है । प्रातिशाख्यकारों में इसके उच्चारण पर मतभेद है— ऋक् प्रा० इसे कण्ठ्य (कण्ठ्योऽकारः ) कहता है तो कात्यायन प्रा० अ, ह और विसर्ग को कण्ठ्य कहता है (अह विसर्गनीयाः कण्ठे ) । तैत्तिरीय प्रा० ने कहा है कि 'अ' के उच्चारण में ओष्ठ और हनु न तो अति उपसंहृत होकर खिंचते हैं, न अति फैलते हैं (अवर्णे नात्युपसंहृतमोष्ठ हनु नातिव्यस्तम् ) वरन् 'अ' का उच्चारण आभ्यन्तर प्रयत्न से न होकर बाह्य प्रयत्न से होता है (अनादेशे प्रण्यस्ता जिह्वा अकारवद् ओष्ठौ ) । महाभाष्यकार पतंजलि ने भी 'बाह्यमास्यात्स्थानमवर्णस्य' तुलसी प्रशा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि 'अ' वर्ण का उच्चारण स्थान बाह्य कण्ठविल है - ऐसा कहा है जबकि आपिशल स्पष्ट ही सम्पूर्ण मुख प्रदेश को इसका उच्चारण स्थल मानता है (सर्व मुखस्थानमवर्णस्य ) । यह अकार सभी विकृत स्वर एवं सभी घोषवान् व्यंजनों की नाद ध्वनि है (आहुघोष घोषवतामकारम् ) । 'अ' का शुद्ध नाद कण्ठविल की प्रातिश्रुत्कता है । यह वह कंपन है जिसके बिना मुख से कोई उच्चारण हो ही नहीं पाता। मुख विवर से बाहर संपूर्ण जगत् में ऐसा कंपन निरंतर होता रहता है । दूसरे शब्दों में जैसे प्रकृति हर पल जागृत रहती है वैसे ही घट में भी श्वासोच्छ्वास की प्रक्रिया होती रहती है अथवा अकार विवृत होता रहता है अनुप्रदानात्संसर्गात् स्थानात्करण विभ्रमात् । जायते वर्ण वैशेष्यं परिमाणाच्च पंचमाद् ॥ इसका रूपक यह है कि हमारी जिह्वा (सरस्वती) जो वीणा बजाती है, उसकी तुम्बी दोनों फेफड़े हैं । वीणा के तार और खूंटी प्राणवायु की नली और काकालक ( कागलिया ) है । कण्ठविल में अलिजिह्वा के साथ क्रमशः उपलि जिह्वा, हनुमूल, तालु, नासिका विल, मूर्द्धन, वयें और दंतोष्ठों से सात तार (सप्त स्वर) बंधे हैं और उपलि जिह्वा का सतत कंपन ही संवृत अकार को विवृत अकार के रूप में ( वर्णाक्षरों की ध्वनियों में) बदलता है । मूलतः मौलिक अक्षर १७ हैं-चार अक्षर स्वर-अ, ऋ, इ, उ; चार मौलिक ऊष्माण -ह, श, ष, स, चार अन्तस्थ य, र, ल, व और पांच वर्गादि की ध्वनियां —क, च, ट, त प । इनमें चार अक्षर स्वरों से चार वैकृत स्वर- ए, ऐ, ओ, औ बनते हैं जो अक्षर स्वरों के साथ ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत भेद से २४ होते हैं । लृकार में दीर्घ नहीं होता, इसलिए जो उसे स्वरों में शामिल करते हैं, उनकी दृष्टि में ये २६ हो जाते हैं । जैसा कि वासिष्ठी शिक्षा में लिखा मिलता है - लुवर्ण दीर्घं परिहाय्य स्वराः षड्विंशति प्रोक्ताः । व्यंजन की मात्रा ह्रस्व की आधी और संयुक्त व्यंजनों की मात्रा ह्रस्व की एक चौथाई होती जिसे क्रमश: अणु और परमाणु कहा गया है - व्यंजनमर्द्धमात्रा तदर्द्धाणु परमाणुरर्द्धाणु मात्रा । ऋक् प्रातिशाख्यकार ने लिखा है कि स्वर चाहे अकेले आवे अथवा व्यंजन के साथ, वह अक्षर है - स व्यञ्जनः सानुस्वारः शुद्धो वापि स्वरो अक्षरम् किन्तु एक श्वासीय होने से अकेला अकार अशब्द = = फोनीम है ( स्वं रूपं शब्दस्याशब्द संज्ञा ) जो स्फुट ध्वनि के तीनों रूपों ध्वनि, ध्वनिरूप और संकेतित पदार्थ - में द्वितीय ध्वनिरूप में प्रत्यय और आदेशादि के विकार से रूपान्तरित होता है । इस प्रकार अकार अथवा ओंकार ही सब कुछ है (ओमिति एतदक्षरमिदं सर्वम्) । शिवाथर्व शीर्ष उपनिषद् में इसका निर्वचन इस प्रकार है- य उत्तरतः स ओंकारः, य ओंकार स प्रणव, य प्रणवः स सर्वव्यापी, यः सर्वव्यापी खंड २१, अंक ३ ७ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोऽनन्तः, योऽनन्तस्तत्तारं, यत्तारं तच्छुक्लं, यच्छुक्लं तत्सूक्ष्म, यत्सूक्ष्म तद्वैद्युत्तं, यद्वैद्युत्तं तत्परं ब्रह्म, यत्परं ब्रह्म स एकः, यः एकः स रूद्रः, यो रूद्रः स ईशानः, यः ईशानः स भगवान् महेश्वरः । अर्थात् क्योंकि इसके उच्चारण में प्राण खिंचते हैं; इसलिये यह ओंकार है। ओंकार होने से प्रणव है, प्रणव होने से सर्वव्यापी है, सर्वव्यापी होने से अनन्त है, अनन्त होने से तारक है, तारक होने से शुक्ल है, शुक्ल होने से सूक्ष्म है, सूक्ष्म होने से वैद्युत है, वैद्युत् होने से परं ब्रह्म है और परं ब्रह्म होने से यह एक है, रूद्र है, ईशान है और महेश्वर है। __ऋग्वेद में भी वाक् की रचना अक्षर से ही बताई गई है। वहां (१.१६४.२४) अक्षर की महिमा इस प्रकार गाई गई है गायत्रेण प्रति मिमीते अर्कमर्केण साम त्रैष्टुभेन वाकम् ।। वाकेन वाकं द्विपदा, चतुष्पदाऽक्षरेण मिमते सप्त वाणीः ।। जैन दर्शन में भी आचार्यश्री शिवार्य 'वर्ण जनन' को दर्शन विनय कहते हैं--- भत्ती पूया वण्ण जणणं च णासणमवण्णवादस्स। . आसादणपरिहारो दसणविणओ समासेण ॥४६।। (-भगवती आराधना) -परमेश्वर सोलंकी तुलसी प्रज्ञा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ नमः सिद्धम् डॉ. सोहनलाल पटनी सभी धर्मों में सिद्ध पद का महत्त्व है । सिद्ध वर्ण भाषा व्याकरण के आधार पर स्वयं सिद्ध वर्ण है। यह उद्घोष किया गया है कि इहलौकिक एवं पारलौकिक सिद्धियां प्राप्त करने के लिये वर्ण मातृका की सिद्धि परमावश्यक है । वर्णमाला को ही यौगिक भाषा में मातृका कहते हैं। श्री सिद्धसेन सूरि विरचित सिद्ध मातृकाभिध धर्म प्रकरण के ६२वें श्लोक में कहा गया है सिद्धान्त तर्क श्रुत शब्द विद्या वंशादिकन्द प्रतिम प्रतिष्ठान् । अनादि सिद्धान् सुमनः प्रबन्धैः वर्णान् महिष्यामि जगत्प्रसिद्धान् ।।६२॥ "सिद्धान्त तर्क, श्रुत, शब्द एवं विद्याओं रूपी वंशों के आदि कन्द रूप में प्रतिष्ठित अनादि सिद्ध एवं जगत्प्रसिद्ध वर्णों की में श्लोक रचना रूप पुष्पों से अर्चना करता हूं।" __ यह मातृका अनादि है, अनन्त है। बुद्धिमान् पुरुषों के ज्ञानमय तेज का जनन परिपालन एवं विशोधन करने के कारण इसका माता के समान महत्त्व है। माता नानाविध कष्टों को सहन कर अपनी सन्तान को स्वहित परार्थ, इहलोक एवं परलोक के लिये तैयार करती है। मातका भी ज्ञान-विज्ञान का बीज रूप बन संसार की बद्ध एवं मुक्त आत्माओं को अपनी-अपनी भावनाओं के अनुरूप फलदायिनी होती है । भूमिति शास्त्र के सिद्धान्त के अनुसार बिन्दु में से रेखा बनती है एवं रेखा में से वत। यह रेखा कला का प्रतीक है । संसार की समस्त भाषाओं की चित्रात्मकता बिन्दु एवं रेखा पर ही आधारित है। बिन्दु एवं कला के योग से जो भाव आकार ग्रहण करता है उसकी अनुगूंज नाद है जो अपने ध्वनि-सामर्थ्य से संसार के त्रिगुणात्मक रूप में संक्षोभ पैदा कर तदनुसार अमिचक्र का निर्माण कर साधक की भावनाओं को मूर्त रूप प्रदान करता है। यही वर्ण सिद्ध और मंत्रों में बीजाक्षर बन महत्त्वपूर्ण बनता है । श्री सिंहतिलक सूरि विरचित 'मंत्रराज रहस्य' में लिखा है-- षोडष चतुरधिविंशतिरष्टौ नाभी दलानि हृदि मूनि । आधं हान्तं वर्णाः शरदिन्दुकला नभः प्रभवाः ॥४४५।। अर्थात् बिन्दु एवं कला में से उत्पन्न अ से ह पर्यन्त ४९ वर्णों का चिन्तन करना चाहिए। इन अ से ह पर्यन्त के वर्गों में क से म तक २५ व्यञ्जन अ से अः तक के १६ स्वर एवं य से ह पर्यन्त के ८ अन्तस्थ एवं ऊष्म आ जाते हैं। वर्गों के महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए ऋग्वेद में कहा गया है खाद २१, बंक ३ २३५ www.jainelibrary:org Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन्देवा अधिविश्वे निषेदुः । यस्तन्नवेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्ते अमी समासते || — ऋग्वेद, १.१६४.३१ अर्थात् ऋचाएं परम अविनाशी शब्द मय अक्षर में ठहरी हैं जिनमें देवता अर्थात् शब्द के विषय (अर्थ) ठहरे हैं । जो उस अक्षरार्थं को नहीं जानता वह ऋचाओं से क्या लाभ प्राप्त करेगा महाभाष्यकार महर्षि पतंजलि ने भी वर्णों का या वर्ण मातृका का बड़ा महत्त्व प्रतिपादित किया है । वे ब्रह्म ज्ञान के लिये वर्ण ज्ञान को परमावश्यक मानते हैं वणं ज्ञानं वाग्विषयो यत्र च ब्रह्म वर्तते । तदर्थमिष्ट बुद्धयं लघ्वर्थं चोपदिष्यते ॥ - महाभाष्य १।१२ के शैव तन्त्र में ६४ कलाओं का प्रतिपादन किया गया है तो पाणिनीय शिक्षा में भी "त्रिषष्टिः चतुः षष्टिर्वा वर्णाः शम्भुमते मता :" अर्थात् परमात्मा के मतानुसार वर्ण ६३ या ६४ हैं । जैनागम का हृदय बिन्दु सिद्ध चक्र भी वर्ण माला का समुदाय है एवं ऋषि मंडल यंत्र में भी इसी सिद्ध वर्ण की उपासना समंकित है । इन वर्णों का प्रत्येक का अपना आकार एवं अर्थ है जैसे अ-नहीं, आ-अच्छी तरह, इ–गति, उ - और, ऋ - गति, लुगति, क सुख, ख आकाश, ग गति, च पुनः, ज उत्पन्न होना, झ नाश, त पार, थ -ठहरना, दा-देना, धाधारण करना, न नहीं, पा-रक्षा करना, भा— प्रकाश करना, मा-नापना, य -- -जो, रा-देना, ल- - लेना, वा- गति, स साथ और ह - निश्चय अर्थ रखता है । तीर्थंकर २४ हैं । वे हृदय कमल २४ दल हैं एवं २५वां म कणिका है । इसे प्रकारान्तर से यों भी कहा जा सकता है कि क से भ पर्यन्त चौबीस व्यञ्जन हैं एवं कर्णिका काम अनुनासिक है जो इन २४ दलों में अनुगुंजित है । योग शास्त्रानुसार नाभि कमल के १६ पक्ष हैं जो १६ स्वर रूप में प्रकाशमान हैं । " स्वयं राजन्ते इति स्वरा: " अर्थात् वे स्वयं प्रकाशमान हैं, सिद्ध हैं एवं व्यंजनात्मक (प्रकाशमान -- दृश्य - मान) संसार का आधार हैं । इन स्वरों के बिना व्यञ्जन अपूर्ण हैं, अनुच्चरणीय हैं । वैसे ही मुख में अष्टदल कमल है जो अन्तस्थ एवं ऊष्म रूप में ( य र ल व श ष स ह ) वर्णमालाओं में प्रसिद्ध हैं । इस वर्ण माला को शाश्वत ज्ञान का प्रतीक माना जाता है एवं ये प्राणिमात्र के लोक निर्माण एवं परलोक साधना में आधार भूत हैं। इनकी साधना के उपरान्त ही श्रुत सागर में अवगाहन किया जा सकता है। इसके महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है इमां प्रसिद्ध सिद्धान्त प्रसिद्धां वर्ण मातृकाम् । ध्यायेद्यः सत्रुताम्भोधेः पारं गच्छेच्च तत्फलात् ॥ अर्थात् जो ज्ञानी पुरुष वर्ण मातृका का ध्यान करता है वह अवश्य ही श्रुत सागर का पार पा सकता है । यही वर्ण माला या मातृका मंत्र शास्त्र, तंत्र शास्त्र तथा योग शास्त्र का मूल तुलसी प्रज्ञा २३६ ---- Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीज है । 'ॐ नमः सिद्धम्' में इसी सिद्ध पद की उपासना, अर्चना एवं वन्दना की गई है। ॐ क्या है ? ॐ अ उ म आदि तीन वर्णों से बना है। यह अ वर्ण माला का प्रधान या बीजाक्षर है । पाणिनीय शिक्षा में कहा गया है 'सर्व मुखस्थानमवर्णमित्येके' अर्थात् मुख से उच्चरित सभी वर्गों में केवल एक अ ही प्रधान है। समस्त शब्द समूह और समस्त ध्वनि समूह स्थान प्रयत्न भेद से उसो अकार का ही रूपान्तर है । वही अकार प्रत्येक उच्चारण में उपस्थित रहता है। बिना उसकी सहायता के न तो कोई वर्ण कहते बनता है एवं न उसे समझा है. जा सकता है । यह अक्षर अपने प्रबल अस्तित्व के कारण अन्य वर्णों का अभाव भी सूचित करता है और अपनी पूर्णता भी; अतः यह बिन्दु रूप है । सभी अक्षरों में यह स्तम्भ या दण्ड (1) रूप में विराजमान है अर्थात् प् से प और ब् में ब । यह उसका कला रूप है । इसी कला रूप से यह हलन्त वर्गों को उच्चारण में स्थायित्व प्रदान करता है जो उसका नाद रूप है। इस एक ही अक्षर अ में बिन्दु, नाद एवं कलामय तीनों रूपों का समावेश हो जाता है। संसार एवं ब्रह्माण्ड के मूल में भी ब्रह्म की बिन्दु, नाद एवं कला रूप त्रिविध शक्ति निहित है । यही अ प्रधान है, प्रमुख है एवं प्रथम है जो अनादि है, अनन्त है एवं अमृत रूप है। ह्रस्व, दीर्घ एवं प्लुत भेद से यह स्वयं तीन प्रकार का है जो सत्व रज एवं तमो गुणों का प्रतीक है, इसका अर्थ सब, कुल, पूर्ण, व्यापक, अव्यय, एक और अखण्ड , निषेध, अभाव आदि होता है । श्रीमद्भगवद्गीता में कहा गया है-अक्षराणामकरोस्मि अर्थात् मैं अक्षरों में अकार हूं। उ पांचवां स्वर है जो पंच भूतात्मक संसार का प्रतीक है। इसे पंच परमेष्टियों का भी प्रतीक माना जा सकता है। संगीत में पंचम स्वर प्रमोद एवं हर्ष का रूपक माना जाता है । यह निम्न धातु से बना है । अत् (सतत गमन)+डु से बना है जो व्यक्ति को निरन्तर चरैवेति (ऐतरेय ब्राह्मण) चलते रहो, क्रिया शील रहो की प्रेरणा देता है । उ पुष्टि दाता भी है और मुक्ति दाता भी। उ का संप्रसारण म वर्णमाला का २५वां अक्षर है एवं हृदय कमल की कणिका में स्थित है। इसके चारों ओर स्थित २४ दलों में क से भ पर्यन्त २४ वर्ण है जो जैनों के २४ तीर्थकर, हिन्दुओं के २४ अवतार एवं बौद्धों के २४ बुद्धों के प्रतीक माने जा सकते हैं । पाणिनीय शिक्षा के अनुसार --"कादयो मान्ता : स्पर्शा' अर्थात् क से लगाकर म तक के वर्ण स्पर्श माने जाते हैं। दार्शनिक भाषा में स्पर्श का अर्थ है इंद्रिय संवेद्य वस्तु । इस प्रकार अउम् का अर्थ हुआ इंद्रिय संवेद्य ज्ञान से अतीन्द्रिय जगत् की ओर जो सतत गमन करवाये वह ॐ अर्थात् दृश्य अदृश्य ब्रह्माण्ड का आदि और अन्त इसी में व्याप्त है। अ- अमात्र है एवं म त्रिमात्र है। उ- अर्द्ध मात्र है अर्थात् त्रिमात्र (संसार) में से अमात्र (ब्रह्म) में जीने के लिए उ सेतु रूप है । अ से आरंभ उ से गमन एवं म से मापन क्योंकि म मा (मापना) धातु का प्रतीक है । माण्डूक्योपनिषद् में कहा गया है--यह अध्यक्षर रूप परमात्मा त्रिमात्रिक ॐकार है । अकार, उकार और मकार इसके तीन पाद हैं और पाद ही मात्राएं हैं। प्रथम मात्रा 'अकार' सर्व ध्यापक और आदि होने के कारण जागृत अवस्था का द्योतक है । द्वितीय मात्रा 'उकार' श्रेष्ठ खंड २१, अंक २ २३७ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और द्विभावात्मक होने से स्वप्न अवस्था एवं तृतीय मात्रा 'मकार' मापक और विलीन करने वाली होने से सुषुप्ति अवस्था की द्योतक है । ये ही तीन मात्रायें क्रमश: विश्व, तेजस एवं प्राश नामक तीन चरणों की द्योतक हैं। मात्रा रहित ॐकार अव्यवहार्य, प्रपंचातीत एवं कल्पनारूप है। यही ब्रह्म का चतुर्थ चरण है। तांत्रिक परिभाषा में बिन्दु नवक अर्द्ध मात्रा रूप है । यह ॐकार त्रिमात्र रूप है। इस त्रिमात्र से अमात्र रूप में जाने हेतु बिन्दु नवक रूप नवपद सेतु रूप है। इसलिये जैनागमों में ॐ के प्रणिधान पूर्वक नवपद की आराधना अनिवार्य बताई गई है। नवपद सिद्ध चक्र का रूढि प्रयुक्त नाम है । 'प्रयोगक्रमदीपिका' में कहा गया है अकारो भूरुकारस्तु भुवो मार्ग स्वरीरितः --- का ॥११॥ अर्थात् अउम में भू भुवः स्वः तीनों का समावेश हो जाता है। श्री पंचपरमेष्ठि वाचक यह ॐकार अ+अ+आ+उ+म् आदि ५ वर्णों के योग से बना है जिन्हें क्रमशः अरिहत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु का प्रतीक कह सकते हैं। यह परमेष्ठि भगवंतों का एकाक्षरी मंत्र है। पंचनमस्कृतिदीपक नामक ग्रन्थ में पूज्यपाद् समन्तभद्रसूरि ने इसकी महिम इस प्रकार गाई है कि श्वेत वर्ण से ध्यान करने से यह ॐ शान्ति, तुष्टि, पुष्टि आदि प्रदान करता है। लाल वर्ण से ध्यान करने से वशीकरण करता है । कृष्ण वर्ण का ध्यान करने से शत्रु का नाश एवं धूम्रवर्ण से ध्यान करने से यह स्तम्भन करता है। ॐकार को प्रणव भी कहते हैं। शिव पुराण में कहा गया है-"नूतनं वे करोतीति प्रणवं तं विदुबुधाः" नित्य नवीनता कर देने वाला होने से पंडितजन इसे प्रणव कहते हैं। प्रणव का अर्थ है प्रकृति से उत्पन्न हुए संसार के लिये नोकारूप अथवा (प्र) प्रपंच (न) नहीं है (व) तुममें अर्थात् आत्माओं में कोई प्रपंच नहीं है। _नमः में चार वर्ण एवं एक विसर्ग है। न+अ+म् +अ+विसर्ग जिसका अर्थ है न्-नहीं, अ का अर्थ अभाव, म्-नापना (अपूर्णता) एवं विसर्ग का अर्थ सृष्टि अर्थात् सचराचर सृष्टि की पूर्णता के मापने में, मूल्यांकन में अपूर्णता नहीं होनी चाहिये । सपरापर सृष्टि का भौतिक प्रतीक वर्ण मातृका है एवं परारूप अहं है जो मातृका का सार बीज है । सभी को यथायोग्य सम्मान देना ही नमः का तात्पयार्थ है। कहा गया है "तन्नम इत्युपासीत" अर्थात् उसी एक नमः की उपासना की जानी चाहिए। नमः की तीन मात्रायें प्रणव की त्रिमात्रता की सूचक है। त्रिमात्र का अर्थ है संसार अर्थात् नमः नमने वाले को संसार की सभी वस्तुएं आसानी से प्राप्त हो जाती हैं। ये न और म दोनों अनुनासिक हैं एवं विसर्ग प्राणध्वनि है । समस्त अनुनासिकों में ये दोनों ही प्रधान हैं एवं स्थान भेद से ये ही न-नारि शक्ति एवं म-महेश्वर पुरुष रूप बन • आ ण आदि पंच रूपों में प्रकट होते हैं जो पंचभूतात्मक संसार का प्रतीक है । ये न म अनुनासिक है जिनका स्थान नासिका है । नासिका में वायु नाभि कमल की ओर प्रयाण करती है। यही नाभि विसर्ग का उच्चारण स्थान है अर्थात् नमः से नाभि कमन से प्राण का उर्ध्वगमन हो नासिका से श्वासोच्छ्वास रूप में २३८ तुलसी प्रहा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहर आता है । प्राणायाम में नाभि नीचे का अंग एवं वायु उध्वं अंग माना जाता है । इस प्रकार नमः में नासिका से नाभि पर्यन्त प्राण वायु के संचार का पूरक योग है और यदि न को नासिकादि उर्ध्व अंगों का प्रतीक माना जाए एवं म को नाभि आदि अध अगों का प्रतीक माना जाये तो इसे यों भी कहा जा सकता है कि नमः में शरीर के समस्त अंगों का सकोच है । नमः का विलोम मन है जो संसार का प्रतीक है । कहा गया है मनः एव मनुष्याणां कारणं मोक्ष बन्धयोः । जब मन को संसार पर से हटा लिया जाता है तब व्यक्ति नम विनयशील बनता है एवं मोक्ष प्राप्त होता है । नमः नम् धातु से बना है जिसका अर्थ है झुकना । झुकना विनय, सहिष्णुता एवं सरलता का प्रतीक है। पाणिनीय व्याकरण के अनुसार नमः योगे चतुर्थी की दार्शनिक व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है । नमस्कार करने से चतुर्थी अवस्था अर्थात् मोक्षावस्था मिलती है । मोक्ष का अर्थ है सांसारिक एवं आध्यात्मिक कष्टों का सदा के लिए नाश । नमः का अर्थ है नमस्कार एवं नमस्कार से वाणी की कठोरता, मन की कृपणता एवं बुद्धि की कृतघ्नता नष्ट होती है । नमस्कार दूसरों के गुण ग्रहण एवं स्वयं के दोषों को दूर करने की क्रिया है । नमः पद पूजा के अर्थ में है जिसका अर्थ है द्रव्य भाव संकोच । द्रव्य संकोच में हाथ, सिर, पांव आदि आठों ही अंगों को नमः में अष्टांग योग जिनका न्यास सिद्ध व्यापार । अतः इस प्रतीक हैं का नियमन एवं भाव संकोच का अर्थ है मन का शुद्ध जब वशवर्ती करते हैं तभी किसी को नमस्कार होता है है । ये आठों अंग अवर्गादि शवर्ग पर्यन्त आठों वर्गों के चक्र आदि में किया जाता है । नमः पद सर्वोत्कृष्ट शरणागति का सूचक है क्योंकि जिसे नमस्कार किया जाता है उसकी शरण स्वीकार की जाती है । उसमें एक तरफ हाथ, सिर आदि सर्वांग का समर्पण है एवं दूसरी तरफ उसके द्वारा आत्मा के सर्व प्रदेशों का समर्पण है । इस प्रकार 'ॐ नमः सिद्धं" का अर्थ हुआ मैं व्यंजनात्मक संसार से अव्यक्त में उर्ध्वगमन करने के लिए समर्पण पूर्वक सिद्ध पद वाच्य अहं की शरण स्वीकार करता हूं । अब रही सिद्धम् की बात | अ से क्ष पर्यन्त पचास वर्ण सिद्ध रूप में प्रसिद्ध हैं । उनका ही चक्र (समुदाय) सिद्ध चक्र कहा जाता है । अकारादि क्षकारान्तानां पञ्चाशत सिद्धत्वेन । प्रसिद्धानां यच्चक्रं समुदाय स्तत्सिद्ध चक्रम् ॥ न. स्वा. सं. वि. पृ. ३० सिद्धहेमशब्दानुशासन वृ. वृ. ये वर्ण ही मातृका हैं एवं इनके पठन-पाठन, स्मरण एवं विचिन्तन का फल योगशास्त्र में इस प्रकार बताया गया है ध्यायतोऽनादिसंसिद्धान् वर्णानेतान्यथाविधि । नष्टादि विषयं ज्ञानं ध्यातुरुत्पद्यते क्षणात् ॥५॥ अर्थात् अनादिकाल से भली प्रकार से सिद्ध वर्णों का विधि प्रमाण से ध्यान करते हुए ध्याता को नष्टादि विषयक ज्ञान अल्प समय में उत्पन्न होता है । सारस्व खण्ड २१, अंक ३ २३९ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याकरण में सिद्ध: वर्ण: कहकर वर्ण का सिद्ध स्वरूप बताया गया है क्योंकि इन्हीं सिद्ध वर्णों में समग्र ब्रह्ममय संसार व्याप्त है या सा तु मातृका लोके पर तेजः समन्विता । तया व्याप्तमिदं सर्वं मा ब्रह्म भुवनान्तरम् ॥ ब्रह्म के दो रूप हैं एक शब्द ब्रह्म एवं दूसरा अर्थ ब्रह्म । सृष्टि भी दो प्रकार की है शब्दमयी एवं अर्थमयी । इस प्रकार सिद्ध वर्ण के दो रूप हुए पदमय एवं पदार्थमय । पतंजलि ने अपने महाभाष्य में लिखा है- -"अर्थवन्तो वर्णाः" अर्थात् प्रत्येक वर्ण अर्थवान् होता है । इसी अर्थ में समग्र संसार का ज्ञान विज्ञान निहित रहता है । वर्ण मातृका को लिपिमयी देवी भी कहते हैं । यह वर्ण मातृका मातृका का लौकिक रूप है । सूत संहिता के टीकाकार माधवाचार्य ने 'तात्पर्य दीपिका का पररूप परा और पश्यन्ती से परे बिन्दु नादात्मक है । लौकिक रूप है और इसमें अकार से हकार तक समस्त वर्णों का पाठ हो जाता है में लिखा है कि मातृका वर्ण मातृका सृष्टि का और यही अर्हं सूक्ष्म से लेकर स्थूल पर्यन्त अखिल सृष्टि का वाच्य है । पररूप अहं है जो इसमें अग्नि बीज सभी सांसारिक जला देता है अहं सांसारिक संसार से मुक्ति रूप रेफ का वासनाओं एवं तब वह अहं बन अग्नि के रूप रूप में केवल व्यष्टि में के मध्य ऊर्ध्वगतिमय बन्धन, ममता एवं आवर्त का रूप है। मातृका का वीतरागता एवं माध्यस्थता का प्रतीक है, क्योंकि सन्निवेश है । जब व्यक्ति ( अह ) असे ह पर्यन्त इच्छाओं को अग्नि बीज स्वरूप उर्ध्व गत्यात्मक र से जाता है । र अन्तस्थ है अर्थात् संसार नाश की भावना सुप्त रिक आत्माओं में विद्यमान रहती है तब तक व्यक्ति अहं के ही आविष्ट रहता है । जब अकारादि हकारान्त कामनाओं फात्मक अग्नि बीज का वपन करते हैं तो अहं होते हैं । यही अहं पररूप मातृका का सार है । ॐ नमः सिद्धम् में पररूप मातृका के सार भूत इसी अहं की उपासना है । श्री सिद्ध मन्त्रोद्धार पूजन विधि की प्रथम चौबीसी में इसी भाव की पुष्टि की गई है - में सांसा अर्हमात्मानम अग्नि शुद्धं गाया मृतप्लुतं । सुधा कुम्भस्थ माकण्ठं, ध्यायेच्छान्तिक कर्मणि ॥ २० ॥ ऋषिमंडल स्तोत्र में भी कहा गया है आद्यन्ताक्षर संलक्ष्य मक्षरं व्याप्य यत् स्थितं । अग्नि ज्वाला समं नाद, बिन्दुरेखा समन्वितम् ॥ १ ॥ - ऋषि मंडल स्तोत्र अहं मनोमल का प्रतीक है और अहं मनोमल का विशोधक है । अहं का अर्थ है शरीर संज्ञानी तो अहं का अर्थ है आत्म संज्ञानी । अहं यदि व्यष्टि है तो अहं शिव । अहं हं का प्रतिपक्षी है । यही अहं ब्रह्म है । पंच परमेष्ठियों का वाचक है । वर्णं मातृका रूप सिद्ध चक्र का सद्बीज है । कहा गया है— २४० तुलसी प्रज्ञ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहमित्यक्षरं ब्रह्म, वाचक परमेष्ठिनः। सिद्धचक्रस्य सद्बीजं, सर्वतः प्रणिदध्महे ॥३॥ -ऋषि मंडल स्तोत्र अहं वर्णमाला का सूक्ष्म सार रूप है । यही सिद्ध है जिसकी ॐ नमः सिद्धम् में उपासना की गई है । मंत्र को प्राणवान् चैतन्यवान् बनाने हेतु उसमें सृजन शक्ति का समावेश करना अत्यन्त आवश्यक होता है। ह पुरुषाकार है तो अ प्रकृति रूप। जब तक पुरुष तथा प्रकृति का भाव रहता है तब तक सृष्टि में कर्मों का सृजन होता रहता है एवं जब अग्निबीज के द्वारा पुरुष तथा प्रकृति का भेद समाप्त कर दिया जाता है तब आत्मा का अहं रूप परमात्मा का सिद्ध रूप अहं बन जाता है । यही अहं नवपद सिद्ध चक्र का बीजरूप है जो जैनागम में विशुद्ध ज्ञानमार्ग का प्रतीक है । सिद्धचक्र के पूजन के द्वितीय वलय में (१) अवर्ग के अ आदि १६ स्वर (२) क वर्ग से प वर्ग पर्यन्त २५ व्यंजन ४ अन्तस्थ य वर्ग एवं ४ ऊष्म श वर्ग तथा एक अनाहत नाद की अर्चना की गई है। उसके दूसरे मंत्र इन्हीं वर्णों की विविधात्मिका व्याख्या है। यह अहं प्राणायाममय है। इसका प्रथमाक्षर अ पूरक है, ह रेनक है एवं म कुम्भक है । म को बिन्दु रूप में भी यक्त करते हैं। यह बिन्दु सभी प्राणियों के नासानुभाग में स्थित है एवं योगियों द्वारा चिन्तनीय है। इसकी पुष्टि सिद्ध चक्र मंत्रोद्वार पूजन विधि में की गई है आह्वानं पूरकेणव, रेचकेन विसर्जनम् ।।२२।। तो यह स्पष्ट हुआ कि सिद्धचक्र जिसको नवपद भी कहते हैं सिद्ध वर्गों का समुदाय है जिसके मूल में अ से ह पर्यन्त तेजोमय अहं स्थित है त्रिज्याक्षराणि बिन्दुश्च यस्य देवस्य नामवै । स सर्वज्ञः समाख्यातः अहं च इति पण्डितैः ।। -----धर्मोपदेशमाला हम पहले कह चुके हैं कि मातृका लिपिमय देवी है जिसमें दृश्य एवं अदृश्य समस्त संसार समाया हुआ है। श्री सिद्धचक्र स्तोत्र में इस बात को इस रूप में स्पष्ट किया गया है-- ॐ ह्रीं स्फुटानाहत मूलमंत्र, स्वरः परीतं परितोऽस्ति सृष्ट्या । यत्राह मित्युज्जवलमाद्य बीजं, श्री सिद्धचक्रम् तदहं नमामि ।। तांत्रिक भाषा में जिसे बिन्दु नवक कहते हैं उसमें बिन्दु, अर्द्धन्दु, निरोधिनी, नाद, नादान्त, शक्ति, व्यापिनी, समना, उन्मना । आगमिक भाषा में इसे ही अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप अर्थात् नवपद की संज्ञा से अभिहित करते हैं। मांत्रिक भाषा में इसे स्वर, कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, बन्द २१, मंक ३ २४१ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "" ऊष्म एवं क्षवर्ग कहते हैं । "ननुक्षकारेण सह नववर्गाः ' - तंत्रालोक पवर्ग, अन्तस्थ, ६ अध्याय । बिन्दु नवक तंत्र के अन्तर्गत आता है जो ध्यानात्मक सिद्धचक्र यंत्र है एवं आकृत्यात्मक है । मातृका मंत्रात्मक है एवं वर्णात्मक है। सिद्धचक्र को शरीर में स्थापित किया उसकी आकृति पुरुष की सी है । उस पिंड स्वरूप में वर्णमाला का ध्यान करना पदस्थ ध्यान कहलाता है । पदस्थ ध्यान का मूल अथवा सार " अकाराद्यं हकारान्तं बिन्दुरेखा समन्वितं अहं" है । श्री जयसिंहदेवसूरि विरचित धर्मोपदेशमाला विवरण में अहं रूप सिद्ध मातृका का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है अकारादि हकारान्तं, प्रसिद्धा सिद्ध मातृका । इस सिद्ध मातृका की अपनी एक लिपि है जिसका न्यास मंत्र जपादि में प्रत्येक साधक को करना चाहिये जपादौ सर्वमंत्राणां विन्यासेन लिपेविना । कृतं स्यान्निष्फलं विद्या तस्मात् पूर्वं लिपि न्यसेत् ॥ अनादि सिद्ध मातृका को पद भी कहते हैं । पद वाचक है और उसका अर्थ वाच्य है । अहं पद परमेष्ठि भगवान् का वाचक है एवं पंच परमेष्ठि उसके बाच्य हैं । संसार के समस्त पदार्थों के साक्षात्कार हेतु अहं पद की उपासना, शरण एवं प्रतिष्ठापना आवश्यक है । अहं के तीन पद अ - उत्पाद व्यय का हं- ध्रौव्यात्मकता के प्रतीक 1 अ अव्यक्त होने से बिन्दु रूप हैं, र कलात्मक है, हैं की गूंज नादात्मक है । अर्ह का व्याकरण शास्त्रानुसार अर्थ है योग्य । अहँ जब तप की पावन अग्नि में हैं की हंकृति को भस्म कर देता है तब वह अ- - अशेष यानि सम्पूर्ण बन जाता है। ये अहं रूप सर्वज्ञ परमात्मा स्याद्वादशैली से मूर्त, अमृतं, कला रहित, कला सहित, सूक्ष्म, स्थूल व्यक्त, अव्यक्त, निर्गुण, सगुण, सर्वकायी, देश व्यापी, अक्षय, क्षयवान्, अनित्य एवं नित्य आदि १६ प्रकार का है जो १६ स्वर हैं एवं नाभिकमल के १६ पत्रों के प्रतीक हैं । इसी अहं के रूपों में यदि युग्म बना दिये जायें तो वे मूर्त अमूर्त, अकला, सकला आदि ८ युग्म बनेंगे जिन्हें मुक्त के अष्टदल का प्रतीक कहेंगे जिनके अन्तर्गत यरलवशषसह आदि अन्तस्थ ऊष्मादि आ जाते हैं । व्यंजन रूप २४ तीर्थंकर इसी अहं से भासमान हैं जिनमें बिन्दुरूप में म अनुगुंजित है नाद एवं कला से परे तुरीय रूप का भी समावेश है । काम एवं मोक्ष को प्रदान करने वाली हैं । ॐ नमः सिद्धम् में इसी अहं का पदस्थ ध्यान है इसीलिये तो कहा गया है। । अहं की चार मात्रायें हैं बिन्दु इसकी चारों मात्रायें धर्म, अर्थ, एकः शब्दः सम्यक् ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुग् भवतीति । इस प्रकार यह स्पष्ट हुआ कि ॐ नमः सिद्धम् में जिस सिद्ध की उपासना की गई है वह आद्यज्ञान का उद्वाहक, उद्घोषक एवं समायोजक वर्ण है । समग्र संसार वर्णमय है एवं वर्ण में ही संसार समाया हुआ है । वर्ण का अर्थ है वः - तुम न नहीं हो अर्थात् सब में मैं ही हूं निज स्वरूप ही जिन स्वरूप है । अभेदात्मक संसार का प्रतीक है वर्ण । यही अक्षर है अर्थात् जिसका क्षरण - नाश नहीं हो यानि यह अमृतरूप है । २४२ तुलसी प्रशा Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यही वर्ण जब दूसरे वर्ण के सहयोग से पदार्थ को समझाने हेतु संघटित होता है तो उसे पद कहते हैं । प्रत्येक वर्ण का निरपेक्ष अर्थ होता है पर पद का अर्थ सापेक्ष निरपेक्ष दोनों होता है । यही पद एवं उसकी ध्वनि मंत्र शास्त्र का प्राण भी है क्योंकि यही ध्वनि प्राण वायु को लेकर मनुष्य के चारों ओर एक निर्माण करती है जिसके अनुसार संसार परिणमित होता है । भाषा में तदाकार वृत्ति कहते हैं एवं इसकी प्राप्ति 'ॐ नमः सिद्धस्' की उपासना से आसानी से हो सकती है। तरंग माला का इसे दार्शनिक खंड २१, अंक ३ 150, शांतिनगर, सिरोही २४३ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओघनियुक्ति में उपधि - साध्वी जतनकुमारी "कनिष्ठा" जैन दर्शन में दो प्रकार की साधनाएं रही हैं। एक सचेलक साधना पद्धति और दूसरी अचेलक साधना पद्धति । जो साधक कायक्लेश तप की विशिष्ट-साधना लाघव धर्म की आराधना और कष्ट सहिष्णुता की कसौटी पर खरे उतरने के लिए अपनी अर्पणा करना चाहते, वे एक शाटक अथवा अचेलक रहते हैं और जो श्रमण अभिग्रहधारी प्रतिमाधारी व गण व्युत्सर्ग करना नहीं चाहते वो सचेलक साधना स्वीकार करते हैं। सवस्त्र और निर्वस्त्र दोनों प्रकार की परम्पराएं अभिमत, अनुमोदित एवं जिन आज्ञा से अनुप्राणित रही हैं । निर्वस्त्र साधना करने वाले श्रमण अपने को महान् और सवस्त्र साधना करने वाले को हीन श्रमण नहीं मानते थे। परिस्थिति भेद से दोनों अनुज्ञात थे। हीन और महान् का प्रश्न ही नहीं था। . जोडवि दुवत्थ तिवत्थो, एगेणअचेलगोव संथरइ । णहुंते हीलंति परं, सब्वेऽविते जिणाणाए । --आयारो, व ११६३ किसी के मन में किसी प्रकार का अवज्ञा भाव नहीं था। सब अपनी-अपनी सीमा में मस्त थे, व्यस्त थे। जम्बू स्वामी तक यह परम्परा अविच्छिन्न रूप से चलती रही । जब से वोटिक ने अपनी ममतामयी चद्दर के गुरु द्वारा किये टुकड़े देखे, उसी दिन से उसने वस्त्रों का त्याग कर दिया और वस्त्रों सहित रहने वाले मुनि की मुक्ति नहीं हो सकती, ऐसी प्ररूपणा की। लगता है परम्परा भेद की प्रसव भूमि यहीं से प्रारम्भ हुई है। निर्वस्त्र (दिगम्बर) अपने आपको महावीर के सच्चे साधु तथा वस्त्रधारी को जिनाज्ञा से बहिर्भूत मानने लगे। धर्मोपकरणों को परिग्रह एवं मूर्छा का हेतु बताकर वस्त्रों को अविहित मानने लगे। जैन साहित्य में प्राचीनतम आगम आचाराङ्ग है। उसमें मुनि को एक वस्त्रधारी, दो वस्त्रधारी, तीन वस्त्रधारी कहा है वत्थं पडिग्गहं कंबलं पाय पुंछणं, उग्गहं च कडासणं ।' वस्त्र, कम्बल, पाद पोंछन अवग्रह और कटासन (जो गृहस्थों के लिए निर्मित हो) उनकी ही याचना करे । जो भिक्षु तीन वस्त्र और एक पात्र रखने की मर्यादा में स्थित है, उनका मन ऐसा नहीं होता कि मैं चौथे वस्त्र की याचना करूंगा।' आचारचूला के पांचवें अध्ययन में वस्त्रंषणा के चार प्रकार बतलाए हैं। खण्ड २१, अंक ३ २४५ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एषणीय, अनंषणीय, ग्रहणीय, अग्रहणीय वस्त्रों का पूरा-पूरा ब्यौरा है । जिस परम्परा ने आचार्य कुन्दकुन्द को आगम पुरुष व प्रामाणिक पुरुष माना, उन्होंने भी अपने प्रवचन सारोद्धार' में प्रतिलेखन प्रसंग में संख्या व्युत्क्रम से उन्हीं वस्त्रों का उल्लेख किया है । जिनका ओघनियुक्तिकार ने किया है। "ग्रामोनास्ति कुतः सीमा" वस्त्र रखना ही नहीं, तर याचना का प्रश्न ही क्यों ? एषणीय अनैषणीय का विधान ही क्यों ? कौन से वस्त्र साधुओं के लिए कल्पनीय हैं और कौन से अकल्पनीय ? यह चर्चा ही क्यों ? चर्चित प्रश्नों के आधार पर यह स्पष्ट है कि श्रमणों को वस्त्र रखना है और निश्चित रूप से रखना है। स्थानाङ्ग में वस्त्र रखने के तीन हेतु बतलाये हैं(१) लज्जा निवारण (२) घृणा निवारण और (३) परीषह (शीतादि के बचाव के लिए) प्रश्न व्याकरण प्रथम संवर द्वार में(१) संयम के उपग्रह और (२) वात, आतप, दंश, मच्छर के बचाव के लिए उपधि रखने का विधान किया है। . श्रुतधर आचार्य शय्यंभव ने भी इन्हीं दो प्रयोजनों को परिपुष्ट करते हुए लिखा है-भगवान् महावीर ने जहां मूर्छा है, वहां परिग्रह की नियामकता बतलाई है किन्तु परिग्रह है वहां मूर्छा की नियामकता नहीं। संयम निमित्त और लज्जा निमित्त वस्त्रोपकरणों को रखा जाता है । उसमें किसी प्रकार का दोष नहीं। जंपि वत्थं व पायं व, कंबलं पाय पुंछणं । तंपि संजम लज्जट्ठा, धारंति परिहंतिय ।। नसो परिग्गहो बुत्तो......" 'छक्काय रक्खणट्ठा' कहकर ओपनियुक्ति के उपर्युक्त प्रयोजनों को स्वीकारते हुए साधनोचित समस्त भण्डोपकरणों का विधान किया है जो इस प्रकार है---- उपधि-जिसको सामीप्य से धारण किया जाता है। उपकरण--जो उपकृत करता है।" शिष्य ने कहा--क्या धारण किया जाता है ? आचार्य ने कहा-द्रव्य से शरीरोपकरणादि और भाव से ज्ञानदर्शनादि । उपधि के दो प्रकार हैं(१) ओघ उपधि (२) औपग्रहिक उपधि तुमसी प्रमा २४६ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओघ उपधि के दो प्रकार हैं(१) गणना प्रमाण (२) प्रमाण, प्रमाण औपग्रहिक उपधि के भी दो प्रकार हैं(१) गणना प्रमाण (२) प्रमाण, प्रमाण जो स्थायी रूप से अपने पास रखा जाता है उसे ओघउपधि कहा जाता है और जो विशेष कारणवश रखा जाता है उसे औपग्रहिक उपधि । शीत से पीड़ित मुनि अग्नि सेवन न करें। उसके लिए वस्त्र और पात्र के अभाव में ग्रहित वस्तु के परिशाटन से जीव हिंसा की संभावना न बने । उसके लिए पात्र का विधान किया है। जिनकल्प और स्थविर-कल्प दोनों प्रकार की साधना करने वाले साधकों के लिए वस्त्रों का विधान इस प्रकार हैजिनकल्पी के लिए बारह स्थविरकल्पी के लिए चौदह १ पात्र २. पात्र बन्ध ३. पात्र स्थापना ४. पात्र केसरिका ५. पटल ६. रजस्त्राण ७. गोच्छक ८. तीन प्रच्छादक ९.प्रच्छादक १०. प्रच्छादक ११. रजोहरण और १२. मुखवस्त्रिका १३. मात्रक और १४. चोलपट्टक' जिणा वारस रुवाइं, थेरा चउद्दसरुविणो । अज्जाणं पन्नवी संतु, अ ओ उडं उवग्गहो ॥६७२।। जिन कल्पिक स्थविरकल्पिकों की तरह आर्याओं के लिए पच्चीस उपधियों का उल्लेख है। बारह उपकरण पूर्ववत् है । अतिरिक्त उपकरण इस प्रकार है : १३. मात्रक १४. कमदक-साध्वियों का पात्र विशेष १५. उग्गणंतग-गुह्य अंग की रक्षा के लिए नाव के आकार का होता है ! १६. पट्टक -- यह वस्त्र जांघिया के आकार का होता है। १७. उद्धोरुग-पट्टक के ऊपर पहना जाता है। बंर २१, बंक ३ २४७ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. चलनिका-यह घुटनों तक आता है, बिना सिला हुआ होता है । १९. अभितर नियंसिणी—यह आधी जंघों तक रहता है। २०. बहिनियंसिणी २१. कंचुकी २२. उक्क:च्छिय २३. नेकच्छिय २४. सिंघाटी-ये चार होती है। २५. खंधकरणी रूपवती साध्वियों को कुब्जा जैसी दिखाने के लिये काम में . लाया जाता है। जिन-कल्प स्थविर-कल्प और साध्वियों के उपधियों को जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट नाम से तीन-तीन हिस्सों में विभक्त किया जाता है। (नि० गा० ६७२-७९) इससे अधिक जो उपधि रखे जाते हैं वे सब औपग्रहिक होते हैं । (अ ओ उङ्ग उवग्गहो गा ६७२) उपधि उपग्रह, संग्रह, प्रग्रह, अवग्रह, भण्डक, उपकरण और करण ये सब पर्यायवाची हैं। __यहां पत्र संबंधी सात उपकरणों का उल्लेख हुआ है। (पात्र)-ग्लान बाल, वृद्ध, शैक्ष अतिथि गुरु और असहिष्णु को भोजन लाकर देने के लिए तथा जीवन रक्षा के लिए पात्र रखे जाते हैं । पात्र को बांधने के लिए पात्र बन्ध उसे रज आदि से बचाने के लिए पात्र स्थापन रखा जाता है ।" पात्र केसरिका का अर्थ वस्त्र की मुख-वस्त्रिका है इससे पात्र की प्रति लेखना की जाती है ।१४ मोचरी के समय स्कन्ध और पात्र को ढांकने के लिए पुष्प, फल रज, रेणु आदि से बचाव करने के लिए पटल रखा जाता है ।" तथा शकुन पुरीष, लिंग संवरणादि के लिए भी पटल का प्रयोग किया जाता है। चूहों तथा अन्य जीवों व बरसात के पानी आदि से बचाव के लिए रहस्त्राण रखा जाता है। पटलों का प्रमार्जन करने के लिए गोच्छग होता है। इनमें पात्र स्थापन और गोच्छग ऊन के तथा मुख-वस्त्रिका कपास की होती है। इन्हें पात्र निर्योग (पात्र-परिकर) कहा जाता है । वैयावत्य करने वाले मुनि के लिए एक नन्दी पात्र का विशेष विधान है । प्रमाणपात्रों से अधिक रखा जा सकता है । सेवार्थी वृहतपात्र से एक साथ ही बहुत से साधुओं को परिपुष्ट कर देता है। कुछ भोपग्रहिक उपधियों का वर्णन इस प्रकार है ---(१) दण्ड, (२) यष्टि, (३) चर्म, (४) चर्म-कोश, (५) चर्म-च्छेद, (६) योग पट्टक, (७) चिलमिली और (८) उपानह ।" __ वृहत्कल्प भाष्य (३८१७-८१९) में निम्नलिखित उपकरणों का उल्लेख है १. तलिका–(जूते) २४८ तुलसी प्रशा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. पुटक-विवाई फटने पर उपयोग में लाया जाता है ३. वहन- जूते सीने के लिए चमड़े का टुकड़ा ४. कोशक--नख भंग की रक्षा के लिए अंगुस्ताना ५. कृति-(चर्म) ६. सिक्कक-छींके के समान उपकरण जिसमें कुछ लटका कर रखा जा सके ७. कापोतिका-- जिसमें बाल साधु को बिठाया जा सके. ८. सूची-(सूई) ९. पिप्पलक-(छूरी) १०. आश ११. नखहरणिका-(नहरनी) नेलकटर १२. नन्दी-भाजन १३. धर्म करक-पानी आदि छानने के लिए छन्ना १४. गुटिका बौद्ध भिक्षुओं के माठ परिष्कार हैं :१,२,३. चीवर ४. एक पात्र ५. धुरी पात्र ६. सूची ७. काय-बन्धन ८. पानी छानने का कपड़ा" इस प्रकार ओधनियुक्ति में उपकरणों का पूरा विवरण उपलब्ध होता है। सन्दर्भः १. आ. श्रु. १ अ. २, ५ सू. ११२ २. जो भिक्खू तिहिं...............""आ. व. अ. ८३ सू. ४३ ३. प्रवचन" ....."गा ५९०,९१,९२ ४. उप धा-तीत्युपधिः ओ. नि. ७. ६६७, पत्र ४६९ ५. उपकरोतीत्युपकरणम्" "" " , " ६. ओहे उवग्गहंमि-ओ.भि.गा. ६६८ व ४६९ ७. एक्केक्कोऽविदुविहो ओ. नि. गा. ६६८ ८. ओघोपधिनित्यमेव............". ४६९ ९. मो. नि. गा. ६६९,७०,७१ । १०. पसंपत्ताबंधो..................नि. गा. ६७५ तिन्नेव या पच्छागा.............",, ,, ६७६ उग्गहणंतग......................" , , ६७७ उक्कच्छिय वेकच्छिय..........." , , ६७८ बण्ड २१, अंक ३ २४९ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. उवही............ ..........."ओ.नि.गा. ६६८ १२. अन्तर बाल बुङ्ग......."ओ.नि.गा. ६९३ १३. रयमादि रक्खणट्टा........ ओ.नि.गा. ६९६ १४. पायपमज्जण हेउं............ ओ.नि.गा. ६९७ १५. पुप्फफलोदय रय...................ओ.नि.गा. ७०३ १६. मूसयरम उक्केरे................. , , , ७०५ १७. पत्तट्ठवण , ...................." ,,,,६९५ ७.४७९ १८. पात्रनिर्योग:.... ,,,६६९ १९. वेयावच्चधरो................"ओ.भा.गा. ३२१ ३४७० २०. दंडए लट्ठिया................."ओ.नि.गा. ७२९ २१. कुम्भकार जातक" द्वारा-श्री जैन श्वेतांबर तेरापंथी सभा, डागा भवन, १८७/ए-२७ पी एपी कॉलोनी, शिवकाशी-पूर्व-६२६१८९ तुलसी प्रज्ञा Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन में शांति की अवधारणा Cडॉ० सुरेन्द्र शर्मा धर्म और दर्शन में शांति का प्रत्यय बड़ा प्राचीन है । न केवल हिंदू धर्म में बल्कि अन्य भारतीय धर्मों में भी शांति के लिए कामना की गई है । वेदों में शांति स्तुति के लिए कई मंत्र मिलते हैं । जैन दर्शन में यद्यपि शांति की व्याख्या या उसके स्वरूप और उसमें निहितार्थ भावों का वर्णन हमें बहुत स्पष्ट रूप से नहीं मिलता किन्तु यदि उसकी आचरण-संहिताओं का पालन किया जाए तो वे सभी निश्चित रूप से हमें शान्ति के मूल्य की ओर ही अग्रसर करती प्रतीत होती हैं। सभी जैन धर्म-ग्रन्थ (आगम साहित्य) प्राकृत में ही रचे गए हैं । प्राकृत भाषा में शांति के लिए 'संति' शब्द का प्रयोग हुआ है । प्राकृत हिदी कोश' के अनुसार 'संति' के कई अर्थ हैं । निम्नलिखित पांच महत्त्वपूर्ण हैं १. 'क्रोध आदि का उपशमन' २. 'मुक्ति ' ३. 'अहिंसा' ४. 'उपद्रव निवारण' ५. 'विषयों से मन को रोकना' जैन दर्शन में 'संति' के उपरोक्त सभी अर्थ अपनाए गए हैं किन्तु यदि हम इन अर्थों का सूक्ष्म निरीक्षण करें तो इनमें मूलतः 'मुक्ति' का अर्थ ही प्रकट होता है। शान्ति क्रोध से, हिंसा से, उपद्रव से, और विषयों से मुक्ति है। . जैन दर्शन में आत्मा की साम्य/शान्त अवस्था के लिए क्रोध आदि कषायों के उपशमन पर विशेष बल दिया गया है । क्रोधादि चार कषाय माने गए हैं-क्रोध, मान, माया और मोह । इनमें से क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती है, मान विनय को समाप्त करता है और लोभ सर्वविनाशी है । अतः इन सभी कषायों पर विजय प्राप्त करना स्वयं मनुष्य के अपने हित में है। जैन दर्शन के अनुसार क्रोध, मान, माया और लोभ को क्रमशः क्षमा, मार्दव, आर्जव और संतोष से वश में किया जा सकता है। जब तक इन कषायों का उपशमन नहीं होता, व्यक्ति स्वयं अपने 'स्व' में अवस्थित नहीं हो सकता और न ही शांति प्राप्त कर सकता है। ... व्यक्ति का परम पुरुषार्थ मोक्ष माना गया है । मोक्ष का अर्थ अन्ततः जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति है । मोक्ष एक ऐसी अवस्था है जो सभी प्रकार के द्वंद्वों और संघर्षों से परे है और इसलिए यह स्वभावत: परम शान्ति की अवस्था है । इसे निर्वाण भी .. खण्ड २१, अंक ३ २५१ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा गया है। निर्वाण के स्वभाव को स्पष्ट करते हुए जैन दर्शन कहता है कि यह वह अवस्था है जिसमें न दुःख है, न सुख है, न पीड़ा है न बाधा है, न मरण है और न जन्म है । जिस तरह सभी प्राणियों का अधिष्ठान जगत् है, उसी तरह मोक्ष का आधार शान्ति है ।" जैन-दर्शन मोक्ष को 'शान्ति' और संसार को 'अशांति' मानता है। व्यक्ति को शांति लाभ तभी संभव है जब वह संसार के जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है । मृत्यु शांति नहीं है क्योंकि वह तो पुनर्जन्म की भूमिका है। वस्तुतः मनुष्य का जीवन क्षणभंगुर है। जिसने इस सत्य को भली भांति समझ लिया है वही शांति और मृत्यु के बीच भेद को ठीक-ठीक देख पाता है।' जैन दर्शन का सर्वोच्च मूल्य निर्विवाद रूप से अहिंसा है। आगम में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो लोग बंधन-मुक्ति के लिए प्रयत्नशील होते हैं, ऐसे मेधावी पुरुष अहिंसा के मर्म को अनुत्घात को, अर्थात्, किसी को भी हानि न पहुंचाने के महत्त्व को-अच्छी तरह समझते हैं । जो अहिंसक नहीं है उसके लिए मुक्ति भी संभव नहीं है । यही कारण है कि वीर पुरुष, जिसने अपनी सभी दुष्प्रवृत्तियों पर विजय पा ली है, हिंसा में लिप्त नहीं होता। हिसा में निहित आतंक और अहित शांति का स्पष्ट ही विलोम है । जहां जहां आतंक है, उपद्रव है-अशांति है। शांति का अर्थ उपद्रवों से मुक्ति है। शांति निरुपद्रवी' है। उपद्रव कई प्रकार के हो सकते हैं । कुछ उपद्रव प्राकृतिक होते हैं, कुछ अतिप्राकृतिक और कुछ वैयक्तिक-सामाजिक होते हैं । प्राकृतिक उपद्रवों में अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि जैसे उपद्रव आते हैं। चूहों द्वारा, पतिंगों द्वारा और अन्यान्य हिंसक पशुओं द्वारा उत्पन्न उपद्रव भी प्राकृतिक उपद्रवों की कोटि में ही रखे जा सकते हैं। महामारी (रोगों) से उत्पन्न उपद्रव भी प्राकृतिक ही कहे जायेंगे। अति प्राकृतिक उपद्रवों में राक्षसी उपद्रव आदि शामिल हैं। इसी प्रकार शत्रुओं द्वारा आक्रमण आदि सामाजिक-राजनैतिक उपद्रव कहे जा सकते हैं । जैन धर्म में इन सभी प्रकार के उपद्रवों के निवारण हेतु शांति-स्तुति की गई है ।' विषयों से मन को रोकना वस्तुतः संयम है। जैन दर्शन के अनुसार हमारी सारी कठिनाइयों के मूल में व्यक्ति का विषयों के प्रति 'ममत्व' है। इसे 'मूर्छा' भी कहा गया है । मनुष्य के लिए अपनी आत्मिक शान्ति हेतु यह आवश्यक है कि वह किसी भी विषय के प्रति ममत्व न रखे । विषयों को 'स्व' न मानकर 'पर' ही समझे। यही संयम है । मनुष्य को शान्ति के लिए स्वयं 'पर' पर विजय प्राप्त करना चाहिए। मैं और मेरे के भाव से ऊपर उठना चाहिए । अपने पर विजय प्राप्त करना बेशक कठिन है। लेकिन एक आत्मविजेता ही अंततः इस लोक और परलोक में सुखी होता, है।" उचित यही है कि मैं स्वयं ही संयम और तप द्वारा अपने पर विजय प्राप्त करूं । बंधन और हिंसा द्वारा दूसरों के द्वारा मैं दमित किया जाऊं, यह ठीक नहीं है।" जैन दर्शन इसीलिए एक ओर निवृत्ति तो दूसरी ओर प्रवृत्ति के लिए उपदेश देता है-- असंयम से निवृत्ति ओर संयम में प्रवत्ति ।१२ जब तक मन के मूल में ममत्व का जल बना रहता है, आशा की बेल सदैव हरी रहती है ।" आशा से यहां तात्पर्य किसी भी तुलसी प्रज्ञा २५२ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तु की प्राप्ति की इच्छा और विश्वास से है। इसीलिए यदि विषयों से मन को रोकना है तो ममत्व को समाप्त करना चाहिए । इसी में शांति है। शान्ति के उपर्युक्त पांचों अर्थ नकारात्मक अर्थ हैं । ये बताते हैं कि शांति क्या नहीं है । अथवा वह किन-किन विषयों से मुक्ति है । और स्वयं मुक्ति के अर्थ में यह मोक्ष की वह अवस्था हैं जो जन्म-मरण, सुख-दुःख इत्यादि द्वैतों से परे है। किन्तु शान्ति का एक धनात्मक पक्ष भी है, और वह है चैन या आराम । जब हम शान्ति का अर्थ 'चैन' से लेते हैं तो यह चैन स्वयं मनुष्य का चैन है कि वह स्वयं अपने साथ, पशुओं के साथ और अपने समाज के साथ किस प्रकार आराम से, शान्ति से रहे । जैन दर्शन में शान्ति के इन पक्षों पर भी, इनका स्पष्ट नाम लिए बिना ही, काफो विचार किया गया है। स्वयं अपने साथ शान्ति व्यक्ति स्वयं अपने आप से ही अशांत रहता है। इसे सभी अनुभव करते हैं। प्रत्येक मनुष्य में एक प्रकार का द्वंद्व या संघर्ष सदैव चलता रहता हैं और इसका कारण मनुष्य द्वारा स्वयं को ठीक-ठीक न पहचान पाना है। मनुष्य का वास्तविक स्वरूप क्या है ? मनुष्य का वास्तविक स्वरूप उसकी आत्मा है और आत्मा का स्वरूप क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर हमें भगवान महावीर और गौतम के बीच हुए एक संवाद में मिलता है । गौतम पूछते हैं, भगवन् ! आत्मा क्या है ? और आत्मा का साध्य क्या है ? महावीर उत्तर देते हैं कि गौतम ! आत्मा का स्वरूप 'ममत्व' है और समत्व को प्राप्त कर लेना ही आत्मा का साध्य है। दूसरे शब्दों में कहें तो समता या समभाव ही मनुष्य का, आत्मा रूप में, स्वभाव है और विषमता विभाव है। आत्मा जब अपने स्वभाव में रहती है तभी शान्त रह सकती है । 'पर, से जुड़कर वह शांत नहीं रह सकती । समता का अर्थ है अपने मूल स्वभाव में विकृति न आने देना । सदैव स्वभाव में स्थित रहना । आचार्य हेमचन्द्र सूरी ने कहा --'आदीपमाव्योम समत्व भावं !' जैन दर्शन में वस्तुतः शान्ति से आशय समत्व से ही है । डा. सागरमल जैन लिखते हैं कि जैन दर्शन में मानसिक प्रशान्ति को ही शान्ति माना गया है और इसीलिए शान्ति और समचित्तता अथवा कहे, 'समत्व', को समानार्थक समझा गया है । शान्ति का अर्थ मानसिक और सामाजिक 'समत्व' है । जब मानसिक प्रशान्ति विचलित हो जाती है तो आन्तरिक शांति भी भंग हो जाती है। जैन धार्मिक आचरण मानसिक और सामाजिक समत्व के अभ्यास के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । इसीलिए जैन साहित्य की प्राकृत भाषा में 'समिअ' शब्द का प्रयोग किया गया है । 'समिअ' जैन दर्शन की एक महत्वपूर्ण अवधारणा है । यह वह धुरी है जिसके चारों ओर जैन दर्शन घूमता है। 'समिअ' के संदर्भानुसार . अनेक अर्थ हैं--प्रशान्ति, सम्यक् स्थिति, शुभ, समता या समत्व आदि । ५ ___आत्मा स्वयं अपने मे अवस्थित होकर ही शान्ति और चैन पा सकती है। इसके लिए 'पर' से विरत होना होगा । विषमताओं से बचना होगा और समत्व से जुड़ना होगा । दुःख-सुख, क्रोधादि कषाय, विषय भोग, इत्यादि सभी आत्मा के 'स्व' न खंड २१, अंक ३ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होकर, 'पर' हैं । इन पर मनुष्य जब तक विजय प्राप्त नहीं कर लेता वह 'समत्व' में स्थित नहीं हो सकता । यदि मनुष्य वास्तव में शान्ति चाहता है तो उसे सभी विषम और परभावी स्थितियों का दमन करना ही होगा । इसीलिए जैन दर्शन के अनुसार सामायिक का अभ्यास आवश्यक है । सामायिक समत्व योग है जो चित्तवृत्तियों को शांत करना, समभाव में स्थित होना, मध्यस्थ भावना का सेवन करना, समदृष्टि में वृद्धि करना और समत्व में रहकर समता - रस का आस्वादन करना सिखाता है । हमारा आज का जीवन जिसमें विषय भोगों पर अत्यधिक बल दिया जाता है, आत्मा को उन पदार्थों से जोड़ता है जो अनात्मन् या 'पर' हैं । व्यक्ति आज स्वयं को अपने आप में अवस्थित नहीं पाता, वह अन्यान्य विषयों से जुड़ जाता है । उसके लिए व्यक्ति की अपेक्षा वस्तुएं अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई हैं और यही अन्ततः उसके दुःख का मूल कारण है। जैन दर्शन इसीलिए इस बात पर बल देता है कि मनुष्य को वस्तुओं की बजाय स्वयं अपने से जुड़ना चाहिए। वह स्वयं ' अवस्तु' है, 'आत्मा' है । आत्मा से जुड़कर ही मनुष्य अपने 'स्व' में अवस्थित हो सकता है और तभी उसके लिए शान्ति संभव है, अन्यथा नहीं । मनुष्य जब तक समत्व भाव विकसित नहीं करेगा वह शान्ति और सुख प्राप्त नहीं कर सकता । जो प्राणी मात्र से समत्व अनुभव करता है तथा लाभ-अलाभ, दुःख-सुख, जीवन-मरण, निन्दा - प्रशंसा, मान-अपमान आदि द्वंद्वात्मक परिस्थितियों में समत्व अनुभव करता है, वही अपनी आत्मा में स्थित है । 'पर विषयों से व्यक्ति का ममत्व उसे अपनी आत्मा में अवस्थित नहीं होने देता । शास्त्र कहता है, इस संसार में मोह की संभावनाएं बार-बार प्रकट होती हैं" और मनुष्य अपने को रोक नहीं पाता । मंद बुद्धि मनुष्य मोह में अतिशय रूप से फंस जाते हैं । व्यक्ति जब तक सांसारिक विषयों के ममत्व पर विजय प्राप्त नहीं कर लेता, समत्वावस्था में नहीं आ सकता । अतः शान्ति के लिए, समत्व के लिए, सर्वप्रथम मनुष्य को अपने आपसे ही संघर्ष करना है । अपने ममत्व और अपने कषायों पर विजय प्राप्त करना है । १७ प्रकृति के साथ शान्ति प्रकृति की अवधारणा एक व्यापक अवधारणा है । इसमें न केवल प्राकृतिक नियम और वनस्पति जगत् निहित है, बल्कि पशु जगत् भी सम्मिलित है । आज मनुष्य वनस्पति जगत् को नाना प्रकार के साधनों द्वारा नष्ट करने और हानि पहुंचाने पर तुला हुआ है। महावीर के अनुसार, वनस्पति जगत् भी एक विकलांग व्यक्ति की तरह ही होता है । यह अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन है ।" वनस्पतियों को भी उसी तरह कष्टानुभूति होती है जिस प्रकार शस्त्रों से भेदनछेदने करने में मनुष्यों को दुःख होता है ।" वस्तुतः कई बातों में मनुष्य और प्रकृति विशेषकर वनस्पति जगत्, एक रूप है ।' जिस प्रकार मनुष्य जन्म लेता है, बढ़ता है, चैतन्ययुक्त है, छिन्न होने पर म्लान होता है, आहार ग्रहण करता है, अनित्य है, आशान्वित है तथा विकास और क्षय होने वाली विविधा अवस्थाओं को प्राप्त होता है, उसी तरह वनस्पति जगत् भी है ।" अतः मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह उन २५४ तुलसी प्रज्ञा Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधारक शस्त्रों का निर्माण, जो वनस्पति जगत् को हानि पहुंचाते हैं, न तो आरंभ करे, न करावे और न ही इस संबंध में अनुमति किसी दूसरे को प्रदान करे ।" प्रकृति तभी चैन से रह सकती है। __ मनुष्य और प्रकृति के बीच शांतिपूर्ण संबंधों के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि प्रकृति नियमानुसार कार्य करती रहे। प्रकृति के कार्यकलापों में अनावश्यक मानवी हस्तक्षेप प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ता है । आज अपने स्वार्थ और अहम्तुष्टि के लिए मनुष्य जिस तरह प्रकृति का शोषण कर रहा है, उससे प्रकृति का 'समत्व' पूरी तरह गड़बड़ा गया है । वनों की अन्धाधुन्ध कटाई से ऋतुओं के चक्र गड़बड़ा गए हैं । वीरान जगहों पर नाभकीय परीक्षणों से भले ही तुरन्त ऐसा प्रतीत न हो कि मनुष्य को कोई प्रत्यक्षतः दैहिक हानि नहीं हुई हैं, किन्तु ऐसे परीक्षण प्रकृति की सम्यक्-अवस्था को विचलित करते हैं। यह भी एक प्रकार से प्रकृति को हानि पहुंचाने के उपकरण ही हैं । मनुष्य और प्रकृति के बीच शान्ति बनाए रखने के लिए केवल यही आवश्यक नहीं है कि मनुष्य प्रकृति को प्रत्यक्षतः कोई हानि न पहुंचाए बल्कि उसे उन सब शस्त्रों/योजनाओं को भी समाप्त कर देना चाहिए जो प्रकृति के अहित में सहायक हो सकती हैं । जैन दर्शन प्रकृति को नुकसान पहुंचाने वाले संघारकों (शस्त्रों) के निर्माण करने की अनुमति नहीं देता । अहिंसा की दृष्टि से जिन व्यवसायों को जैन दर्शन में निषिद्ध माना गया है उनमें ऐसे शस्त्रों का उत्पादन भी सम्मिलित है जो कष्ट देने या हानि पहुंचाने के लिए बनाए जाते हैं ।२२ संघारक यंत्र के व्यापार के अतिरिक्त अंगार कर्म, वन कर्म, शकट कर्म, भाटक कर्म, स्फोटी कर्म, दंत वाणिज्य, लाक्षा वाणिज्य, रस वाणिज्य, विष वाणिज्य, केश वाणिज्य, निछांछन कर्म, दावाग्नि कर्म, सरोवर द्रह-तडाग शोषण तथा असतीजन पोषणता आदि व्यवसाय भी निपिद्ध बताए गए हैं क्योंकि ये सभी किसी न किसी प्रकार प्रकृति, पशुओं और स्वयं मनुष्य को हानि पहुंचाते हैं । अंगार-कर्म यदि जंगलों में आग लगाकर उन्हें साफ करता है तो वन-कर्म जंगल कटवाने की व्यवसाय है दावाग्नि दापन भी अग्नि कर्म ही है। जैन चिंतकों ने मानव परिवेश में वनों की महत्ता को बहुत पहले से ही समझ लिया था। वनों की कमी अन्ततः मानवी अस्तित्व तक के लिए खतरा बन सकती है, यह आज सुस्पष्ट है । प्रकृति की सुरक्षा के लिए वनों का संरक्षण आवश्यक है और इसमें मानव कल्याण है । __प्रकृति की सुरक्षा और शान्ति के लिए ही सरोवर-द्रह-तडाग शोषण भी निषिद्ध कर्म या व्यवसाय बताया गया है। आज हम पानी के संग्रह हेतु बड़े-बड़े बांध तो बना रहे हैं लेकिन हमारा ध्यान प्राकृतिक सर-सरोवर और झीलें इत्यादि के संरक्षण की ओर नहीं है । इससे परिवेश पर बड़ा दुष्प्रभाव पड़ा है। हमारी लापरवाही या कभी-कभी स्वार्थ-भावना, से प्राकृतिक तालाब और जलाशय सूखते जा रहे हैं और दूसरी ओर बड़े-बड़े बांध अन्य मानवी समस्याएं--- जैसे पुनर्वास और विस्थापन आदिको पैदा कर रहे हैं । इससे मनुष्य और प्रकृति दोनों अशांत है। इसी समस्या के पूर्वाभास से कदाचित् जैन दार्शनिकों ने सरोवर-द्रह-तड़ाग शोषण के व्यवसाय को खण्ड २१, अंक ३ २५५ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निषिद्ध घोषित किया था। प्रकृति की संरक्षा के हेतु विष-वाणिज्य निषिद्ध बताया गया है । उपलक्षण से इसमें हिंसक अस्त्र-शस्त्रों का व्यापार भी सम्मिलित हो जाता है। विडम्बना है कि जो व्यवसाय जैन दर्शन में निषिद्ध बताए गए हैं वे ही आज सर्वाधिक लाभप्रद समझे जा रहे हैं । विषाक्त रसायनों और आधुनिक आणविक तथा नाभकीय यंत्रों काव्यापार आज सर्वाधिक फलफूल रहा है और स्पष्ट ही यह समस्त मानव अस्तित्व के लिए ही एक बड़ा खतरा बन गया है। जैन दर्शन में इस खतरे से बचकर शान्ति से रहने का एक सरल उपाय यह बताया गया है कि विष और पीड़न यंत्रों या संहारक शस्त्रों का व्यवसाय हो न किया जाए । क्या यह वर्तमान में निःशस्त्रीकरण की मांग को पूर्व . पीठिका नहीं है ? ___ आज शिक्षा जगत् में पर्यावरण और प्रदूषण पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है । पर्यावरण संबंधी शिक्षा के मूलभूत सिद्धांत हैं .. १. प्रकृति पर विजय प्राप्त करने की वृत्ति पर अंकुश २ प्रकृति को स्वयं का एक भाग समझना और ३. प्रकृति के साथ समरसता से रहना । जैन आचार शास्त्र इन तीनों ही सिद्धांतों को स्वीकार करता प्रतीत होता है । समरसता से रहना ही समत्व है। पशुजगत् के साथ शान्ति जैन दर्शन में ६ प्रकार के जीव बताए गए हैं-पृथ्वीकायिक जीव, जल कायिक जीव, अग्निकायिक जीव, वनस्पति कायिक जीव, त्रसकायिक जीव तथा वायुकायिक जीव । यह एक बड़ी विडम्बना है कि मनुष्य जो स्वयं भी एक जीव है, अन्य जीवों को सताता मारता है । संहारक शस्त्रों से उनकी हिंसा करता है । इन सभी प्रकार के जीवों को शस्त्र से भेदन-छेदन करने से, उन्हें वैसा ही कष्ट होता है जैसा स्वयं मनुष्य को होता है। फिर भी मनुष्य नाना प्रकार के शस्त्रों से नाना प्रकार के जीवों की हिंसा करता है। भगवान् महावीर कहते हैं हिंसा निश्चित ही ग्रन्थि है, मोह और मृत्यु है यह नरक है । अतः वे उपदेश देते हैं कि व्यक्ति किसी भी प्रकार के जीव को मारने हेतु समारंभ नहीं करे, दूसरों से समारंभ न करवाए और इस प्रकार समारंभ करने वालों का अनुमोदन भी न करे ।" ऐसा करना वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा और पूजा के लिए, जन्म-मरण के मोचन के लिए, दुःख प्रतिकार के लिए अहितकर है। हिंसा एक ऐसा अज्ञान है जो सदैव अहित ही करता है। __ महावीर के उपदेश से स्पष्ट है कि जीव हिंसा न करने के पीछे जो दृष्टि है वह शांति की भावना है । मानव जीवन जो वस्तुतः प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए है, जन्म-मरण से मुक्ति के लिए है और दुःख के निवारण के लिए है - एक शब्द में शांति प्राप्त करने के लिए है.---उसमें हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं है । हिंसा निश्चित ही वास्तविक ज्ञान का अभाव है, एक ऐसा ज्ञानाभाव है जो शांति के हित में न होकर, उसके विरुद्ध कार्य करता है। प्रत्येक ज्ञानी पुरुष जो इस बात को समझ लेता है कि हिंसा जीवन-मूल्यों के लिए अहितकर है (अहित-बोध) और जिसे इस प्रकार यह ज्ञान हो जाता है कि हिंसा २५६ तुलसी ज्ञा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वस्तुत: आतंक का दर्शन है, वह अपने आंतरिक और बाह्य मर्म को जान लेता है। अर्थात् दूसरों के दुःख-सुख में अपना दुःख-सुख देखने लगता है। सुख-दुःख स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है । दूसरे के दुःख-सुख का संवेदन स्वसंवेदन के आधार पर ही किया जा सकता है । इसलिए वह परोक्ष ज्ञान है । निमित्त के मिलने पर जो अपने में घटित होता है वही दूसरों में घटित होता है और जो दूसरों में घटित होता है वही अपने में घटित होता है यही एक मात्र पैमाना है। भगवान् महावीर इसी तुला से आचरण का अन्वेषण करने के लिए निर्देशन देते हैं। महावीर ने इस प्रकार हमको पशुओं के साथ (बल्कि कहें, सभी जीवों के साथ) शांति से रहने के लिए एक मापदंड (टैलिसमैन) बताया है कि समस्त प्राणियों के सुख-दुःख को अपनी ही तरह का सुख-दुःख समझो और उनका संहार न करो । शान्ति-शोध के एक आधुनिक विचारक, जोहम गाल्तुंग, ने शान्ति को हिंसा का अभाब या अनुपस्थिति कहा है । वेशक यह शान्ति की कोई शास्त्रीय परिभाषा नहीं है । ऐसा सोचना शायद् शान्ति के पहले से ही अस्पष्ट प्रत्यय को और भी अस्पष्ट कर देना होगा । लेकिन इतना तो मानना ही पड़ेगा कि शान्ति और हिंसा एक दूसरे से कुछ इस तरह से जुड़ी हुई परस्पर संबंधित अवधारणाएं हैं कि शान्ति को हिंसा का अभाव माना जा सकता है ।" किंतु यहां यह ध्यातव्य है कि गाल्तुंक जब शान्ति को हिंसा का अभाव कहते हैं तो उनकी दृष्टि व्यापक रूप से जीव हिंसा पर न होकर, सामाजिक-राजनैतिक हिंसा पर अधिक रही है । वे सामाजिक-राजनैतिक शान्ति के लिए समाज में हिंसा के विरुद्ध हैं। लेकिन, जाहिर है, भगवान महावीर का दृष्टिकोण इससे कहीं अधिक व्यापक है । वे न केवल मनुष्य और मनुष्य के बीच शान्ति चाहते हैं वल्कि मनुष्य और पशुजगत् तथा मनुष्य और प्रकृति के बीच भी शांति कामी हैं । अतः पशुओं के प्रति बर्ताव में भी उन्होंने अहिंसा का अनुमोदन - किया है। जैन दर्शन में पशुओं के प्रति अहिंसक वृत्ति के लिए, कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है, कुछ अधिक ही आग्रह किया गया है । इसका मुख्य कारण शायद् महावीर के समय हिंदुओं में अत्यधिक हिंसा, विशेषकर यज्ञादि में होने वाली पशुबलि की प्रधानता रही होगी जिसमें हिंसा को हिंसा समझा ही नहीं गया। कहा भी गया है, यज्ञ में होने वाली हिंसा, हिंसा नहीं होती। महावीर का करुणामय हृदय अवश्य ही निरीह पशुओं की यज्ञ के नामपर होने वाली हिंसा को देखकर द्रवित हुआ होगा और इसीलिए उन्होंने सभी प्रकार के जीवों की हिंसा पर नियंत्रण के लिए इतना अधिक बल दिया उन्होंने यह प्रत्यक्ष देखा था कि मनुष्य अपने नानाविध प्रयोजनों के लिए शारीरिक बल, ज्ञानात्मक बल, मित्र-बल, पारलौकिक बल, देव-बल, राज-बल, चोर-बल, अतिथि बल, कृपण-बल और श्रमण-बल आदि, का संचय करता है और इन सभी प्रकार के सामथ्र्यों को प्राप्त करने के लिए हिंसा (दंड) का प्रयोग करता है। इससे स्पष्ट ही, जीव जगत् में अशान्ति उत्पन्न होती है । अतः भगवान् महावीर कहते हैं कि प्रयोजनों के लिए किसी भी मेधावी पुरुष को हिंसा का न तो प्रयोग करना र २१, अंक ३ २५७ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहिए, न दूसरों से प्रयोग करवाना चाहिए और न ही प्रयोग करने वालों का अनुमोदन करना चाहिए।" समाज के साथ शान्ति समाज में अशान्ति का मुख्य कारण मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद-भाव है । बेशक, परस्पर अंतर हो सकते हैं । कोई उच्च गोत्र में जन्म लेता है नो कोई निम्न गोत्र में, कोई स्वस्थ तो कोई विकलांग, लेकिन मनुष्य और मनुष्य के बीच ये सभी ऐसे अन्तर हैं जिसके लिए मनुष्य को अभिमान करने की आवश्यकता नहीं है । यदि हम पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं तो हम अच्छी तरह जानते हैं कि अपने अनेकानेक जन्मों में व्यक्ति कई बार उच्च गोत्र तो कई बार निम्न गोत्र में जन्म ले चुका होता है। ऐसे में भला कौन ऐसा होगा जो गोत्रवादी होकर अपने गोत्र में अभिमान कर सकेगा । और अपने गोत्र के प्रति मोह रख सकेगा। अतः मनुष्य को अपने गोत्रीय स्तर को न तो ऊंचा समझना चाहिए और न हीन समझना चाहिए। उसे इस प्रकार की स्पृहा से मुक्त हो जाना चाहिए । उसे अपने पद पर न तो हर्षित होना है और न ही कुपित । बल्कि इन भेदों के प्रति एक सम्यक-दृष्टि अपनाना ही श्रेयस्कर है । कोई स्वस्थ होता है तो कोई, बहरा, गूंगा, काना, लूला, कुबड़ा, बौना, कोढ़ी और कोई विरूप होता है । व्यक्ति नाना प्रकार के आधातों का अनुभव करता है और इस प्रकार हत या अपहत होता रहता है। ऐसे में परस्पर किसी भी प्रकार का भेद भाव का कोई औचित्य ही नहीं है । हमें एक दूसरे के दुःख-सुख को समझना चाहिए। इसी में हम सबका कल्याण है। - कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो मरना चाहता हो। सभी आयुष्मान होना चाहते हैं । वे सुख का अनुभव करना चाहते हैं और दुःख से घबराते हैं। उन्हें सुख अनुकूल है और दुःख प्रतिकूल है । उन्हें वध अप्रिय है और जीवन प्रिय है। सभी प्राणियों को जीवन प्रिय है । किन्तु विडम्बना यह है कि मनुष्य फिर भी कभी चतुष्पद पशुओं को और कभी द्विपद अपने साथियों का शोषण करता है, और उनका दुरुपयोग कर अपने भोग विलास के लिए, संपत्ति का संवर्धन करता है। लेकिन यह संपत्ति अंततः उसके किसी काम नहीं आती। परिवार के अन्य लोगों में यह बंट जाती है, चोर उसे चुरा लेते हैं, राजा उसे छीन लेते हैं, वह नष्ट हो जाती है, अथवा गृह दाह में जल जाती है। फिर भी एक अज्ञानी पुरुष हिंसा और शोषण से बाज नहीं आता । अपनी संपत्ति और साधनों में आसक्ति बनाए रखता है, और सुख की कामना करता हुआ अन्ततः दुःख भोगता है और इस प्रकार विपर्यास की एक बिपरीत स्थिति को प्राप्त होता है । सुख और शान्ति का स्पष्ट ही यह मार्ग नहीं है कि हम शोषण और क्रूर-कर्म द्वारा संपत्ति अजित करें और वह भी हमारे काम न आवे । ___ जैन दर्शन इस प्रकार समाज में अशान्ति का कारण हिंसा और परिग्रह में देखता है। यदि समाज से आवश्यक हिंसा और क्रूरता समाप्त हो जाए और व्यक्ति परिग्रह की संपत्ति के संवर्धन की निरर्थकता को समझ ले तो कोई कारण नहीं है कि समाज में अशांति रहे । २५८ तुलसी प्रज्ञा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रह में हिंसा निहित है। इसी प्रकार भोग में भी हिंसा निहित है। भोग और हिंसा एक ही रेखा के दो बिन्दु हैं। ऐसा कोई भोगी नहीं जो भोग का सेवन करता है और हिंसा नहीं करता । जहां हिंसा है, वहां भोग हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। किन्तु जहां भोग है वहां हिंसा निश्चित है। अतः यह आवश्यक है कि व्यक्ति एक संयमित जीवन के लिए जिए, किसी की हिंसा न करे और इस संयमित जीवन से कभी खिन्न न हो। आज सारे समाज में जो अशांति है उसका मुख्य कारण, जैन दर्शन के अनुसार, हम अतिभोग और विलास की वृत्ति तथा इसके लिए प्रचुर रूप में साधन-सुविधाओं को जुटाने में देख सकते हैं । मनुष्य इसी कारण अधिकाधिक हिंसक और क्रूर होता जाता है । जब तक मनुष्य इस हिंसा और क्रूरता से मुक्ति नही पाता वह स्पष्ट ही शान्ति को प्राप्त नहीं कर सकता । शान्ति का अर्थ अन्ततः हिंसा से विरति ही है। ऐसा नहीं है कि अर्थ और काम अपने आप में अशांन्ति प्रदान करने वाले हैं, अथवा विमूल्य हैं। वे विमूल्य तब हो जाते हैं जब हम उन्हें अपने जीवन का साध्य मान बैठते हैं और अर्थोपार्जन में या भोग-विलास में आसक्ति और ममत्व विकसित कर लेते हैं । जैन दर्शन इसी ममत्व के विसर्जन के लिए आग्रहशील है क्योंकि यही ममत्व आसक्ति, हिंसा और क्रूरता का कारण बनता है। समाज में सभी व्यक्ति यदि ममत्व से प्रेरित होकर हिंसा न करें बल्कि समत्व की भावना से परस्पर एक दूसरे के कल्याण के लिए कार्य करें शांति तभी संभव है । परस्परोपग्रहो जीवानाम् --प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे के कल्याण के लिए ही बना है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन में शान्ति अनेकार्थी है । शान्ति उपशमन है-क्रोधादि कषायों से मुक्ति है । शान्ति अहिंसा है–समस्त जीवों के प्रति करूणा और दया है । शान्ति उपद्रव निवारण है ---रोगों और शत्रुओं की समाप्ति है। शांति संयम है-विषयों के प्रति मन का नियंत्रण है। काम की अग्नि को बुझाना है। और अंततः शान्ति मुक्ति या मोक्ष है- जीवन और मरण के चक्र से छुटकारा है। इसी प्रकार शान्ति के कई पक्ष या आयाम भी हैं । स्वयं अपने आप से शान्ति का अर्थ है व्यक्ति का अपनी आत्मा में अवस्थित होना और इस प्रकार समत्व की स्थिति, जो एकमात्र शांतावस्था है-को प्राप्त होना । वनस्पति जगत् से शान्ति बनाए रखने का अर्थ है प्रकृति के नियमों में अनावश्यक हस्तक्षेप न करना क्योंकि यह भी एक प्रकार की हिंसा ही है । वनस्पति जगत् और प्राणी जगत् में कोई गुणात्मक अंतर नहीं है। दोनों में ही प्राणतत्त्व है । आज जैसा कि हम सभी जानते हैं, इस बात को विज्ञान भी स्वीकार करने लगा है। और आज, साथ ही इस बात की भी जागरूकता पैदा हो गई है कि वनस्पति जगत् को नष्ट करने में हानि अन्ततः स्वयं मनुष्य की ही है और इसीलिए पर्यावरण संरक्षण पर आजकल इतना बल दिया जाता है। पशु जगत् में शांति बनाए रखना भी जरूरी है। और इसका अर्थ है सभी जीवों को कष्ट पहुंचाने से विरति । अहिंसा की यह भावना जैन दर्शन का मर्म है। जैन धर्म की करुणा केवल मनुष्य तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वह एक व्यापक करुणा है जिसमें पशु जगत् भी खण्ड २१, अंक ३ २५९ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मिलित है। महावीर के अनुसार मनुष्य जीवन का लक्ष्य यदि दुःख से मुक्ति है तो भला यह कैसे संभव है कि वह अन्य किसी भी जीव को दुःख पहुंचाये। अपने सुखदुःख की अनुभूति की तुला से उसे पशुओं के सुख-दुःख को भी समझना चाहिए । जैन दर्शन में शान्ति का एक अन्य पक्ष समाज में शान्ति बनाए रखना है। समाज में अशांति का कारण विषमता और भेद-भाव है । परिग्रह की प्रवृत्ति और भोग-विलास है। इसमें निश्चित रूप से हिंसा और शोषण व्याप्त है। जब तक हम समाज में ममत्व की जगह समत्व और हिंसा के स्थान पर अहिंसा को वरीयता नहीं देते, समाज में शान्ति स्थापित नहीं हो सकती। इसीलिए जैन शांति स्तवों में शान्ति को 'निरुपद्रवी, निवृत्ति निर्वाण जननि', 'स्वस्तिप्रदे' और 'शुभावहे' आदि कहकर संबोधित किया गया है। संदर्भ १. प्राकृत हिंदी कोष, १८. आयारो, उपरोक्त, गाथा-१.११० वाराणसी, १९८७, पृ. ७९० १९. वही, गाथा १.२९.१११ २ समण, सुत्तं, वाराणसी १९८९, गाथा, २०. वही गाथा १.११३ २१. वही गाथा १.११६ ३. वही, गाथा, १३६ २२. देखिए, उपासक अभय देव वृत्ति १.४७ ४. वही, गाथा, ६१७ २३. आयारो, उपरोक्त, १.१५२ ५. सूत्र कृतांग, १.११.३६ ६. आयारो, जैन विश्व भारती, २४. वही, १-२५, ४८, ७९,१०७, १३४, १५८ ___ लाडनूं, गाथा, २.९६ २५. वही, १-३३, ६४, ८८ ७. वही, गाथा, २.१८१ ८. वही, गाथा, १.१४६ २६. वही, १-४४, ७५, १०३, २१, १३० ९. देखें, मंदिर मार्गी सं. २७. वही, १.२७ प्रदापों में शान्ति स्तव । २८. वही, १.१४६, १४७ १०. समणसुत्तं, उपरोक्त, गाथा, १२७ २९. वही, टिप्पणी ३६ पृ. ६६ ११. वही, गाथा, १२८ . ३०. वही, १.१४८ १२. वही, गाथा, १२९ ३१. देखें, कंटम्पररी पीस रिसर्च १३. आत्मानुशासन, बम्बई (संपादित) वि. सं. १९८६ गाथा २५२ नई दिल्ली १९८२, पृष्ठ, ९४ १४. भगवती सूत्र, १-९ ३२. आयारो, उपरोक्त, २.४१-४२ १५. देखें, सागरमल जैन, ३३. वही, २.४६ ___ "जैन कन्सैप्ट ऑव पीस" ३४. वही, २.४९-५६ १६. आयारो, उपरोक्त, गाथा-२.३३ ३५. वही, २.६३-६४ १७. समण-सुत्तं, उपरोक्त, गाथा-१२६ और ३६. वही, २.६५,६८,६९ १२७ ३७. वही, टिप्पणी, १३ पृ.१११ -पार्श्वनाथ विद्यापीठ आई टी आई मार्ग, करौंदी वाराणासी (उ. प्र.) २२१००५ २६० तुलसी प्रज्ञा Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शन में सल्लेखना विनोदकुमार पाण्डेय सल्लेखना शब्द सत्+लेखना इन दो शब्दों के मेल से बना है । 'सत् अर्थात् सम्यकप्रकारेण लेखना इति सल्लेखना' । लेखना अर्थात् सम्यक्प्रकारेण काय कषययोः कृषीकरणं क्षीणकरणं, नष्टकरणं वा सल्लेखना। अर्थात् भलीभांति काय और कषायों को क्षीण करना या नष्ट करना सल्लेखना है। तत्त्वार्थसूत्र में' -"मरणान्तिकी सल्लेखना योषिता" कहा गया है। अर्थात् मरणकाल में प्रीतिपूर्वक धारण करने वाला व्रत सल्लेखना है । समाधि-मरण, संन्यास-मरण, अन्त्यविधि, पण्डित-मरण, अंतक्रिया, मृत्युमहोत्सव, आर्याणां महाऋतु: आदि सब सल्लेखना के ही पर्याय हैं। सल्लेखना में जब सम्यक् प्रकार से काय और कषायों को क्षीण कर दिया जाता है तब विभिन्न विषय भ्रामरी वृत्ति वाला चित्त स्थिर एवं शान्त हो जाता है। इसे एकाग्रता या समाधि कहा गया है। मरण का अर्थ देह का परित्याग एवं शारीरिक ममत्व का परिहार है । मृत्यु की समीपता की अनुभूति से अनशनपूर्वक देहममत्व तथा उपाधिजीवन की साधन सामग्री का परित्याग करना ही सल्लेखना-मरण या समाधि-मरण है। चूंकि यह मरणान्तिकी व्रत या नियम ज्ञानी जनों के द्वारा ही पालनीय है या ज्ञानी जन ही इस साहसपूर्ण मृत्यु का आह्वान कर सकते हैं इसलिए इसे पण्डित-मरण भी कहा जाता है। मनुष्य जीवन की यह अन्तिम विधि, नियम, व्रत और क्रिया होने से अन्त्यविधि, अंतक्रिया या व्रतान्त कहा जाता है । आचार्य समन्तभद्र ने इसे 'सकाम मरण' कहा है। 'सकाम' शब्द यहां स्वेच्छापूर्वक मृत्यु के अर्थ में प्रयुक्त है । सल्लेखना वह पुनीत धर्माचरण है, जो मानव मात्र को सुष्ठ रीत्या मरणोन्मुख होने पर मृत्यु का पाठ पढ़ाता है। समाधिमरण वस्तुतः साधक के अन्तर्मन की चिर पोषित साध की मंगलपूर्ति या पूर्णाहुति है । जब साधक जीवन की अन्तिम वेला में अथवा किसी आसन्न संकट की अवस्था में इधर-उधर के विक्षेपविकल्प, माया-ममता, वैभव-विलास एवं ललाम-लालसा से पृथक् होकर अपनी स्वीकृत .साधना या आत्म मंथन के प्रति एकरूप हो जाता है, तब वह समस्त पाप, ताप और संताप, समग्र आसक्ति एवं प्रीति से विमुक्त होकर अनशनपूर्वक देहाध्यास एवं शरीर के मोहममत्व का परित्याग कर देता है। वस्तुतः साधक के जीवन की इसी उच्च पुनीत एवं विशुद्ध स्थिति का नाम सल्लेखना-मरण या समाधि-मरण है। दूसरे शब्दों में श्रावक के बारह व्रतों (पांच अणुव्रत और सात शीलवत) के जीवनपर्यन्त पालने के पश्चात् इनके परिणाम या फलप्राप्ति के लिए जिस क्रिया का आलंबन किया जाता है उस क्रिया का नाम सल्लेखना है। सल्लेखना जीवन के संपूर्ण कर्मों की बंड २१, अंक ३ २६१ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंजी है । इसके बिना जप, तप, नियम, साधना और त्याग सब निगंध पुष्प के समान है। जिस तरह विशाल प्रासाद की शोभा उसके शिखर पर स्थित कलश से होती है, उसी तरह जीवनरूपी भवन की शोभा भी सल्लेखना रूपी कलश से ही हो सकती है। ___ जैन आचार्यों ने मृत्यु के दो भेद बतलाये हैं, प्रथम नित्य-मरण और दूसरा तद्भवमरण । आयु श्वासोच्छवासादिक दश प्राणों का जो समय-समय पर वियोग होता है उसे नित्य-मरण तथा गृहीत पर्याय अथवा जन्म के नाश होने को तद्भव-मरण या मरणान्त कहा जाता है। इसी मरणान्त समय में सल्लेखना का चिन्तवन या सम्यक् प्रकार से कषायों को कृश करना सल्लेखना कहलाता है। इसके बाह्य और आभ्यन्तर दो भेद हैंबाह्य सल्लेखना में काय और बाह्य कषायों को कृश किया जाता है तथा आभ्यन्तर सल्लेखना में आंतरिक क्रोधादि कषायों को कृश किया जाता है। आचार्य समन्तभद्र ने सल्लेखना के दो भेद बतलाए हैं ....सगारी सल्लेखना और सामान्य सल्लेखना । सगारी सल्लेखना को इत्वरिक या कुछ काल के लिए ही ग्रहण किया जाता है । किसी अचानक उपस्थित संकट में जब जीवन की कोई आशा नहीं वची हो तब सगारी सल्लेखना व्रत धारण किया जाता है। पुनः संकट की समाप्ति पर यह व्रत स्वतः ही समाप्त हो जाता है अतएव इसे इत्वरिक या यावत्कालिक सगारी सल्लेखना कहा जाता है। दूसरी सामान्य सल्लेखना को यावत्जीवन तक के लिए ग्रहण किया जाता है। जीवन की अन्तिम अवस्था में जब शरीर और इन्द्रिय धर्म कार्य करने में असमर्थ हो जाते हैं तब मृत्युपर्यन्त के लिए जिस व्रत का संकल्प लिया जाता है उसे सामान्य सल्लेखना कहा जाता है । असाध्य रोग हो जाने पर जब पुनः स्वस्थ होने की आशा नहीं रहती तब भी मृत्युपर्यन्त सामान्य सल्लेखना को ग्रहण किया जाता है ।' सल्लेखना व्रत धारण करने की विधि जैन आगमों में सल्लेखना को संथारा कहा गया है। संथारा अर्थात् संस्तारक का अर्थ होता है बिछौना । चूंकि सल्लेखना में व्यक्ति संस्तारक ग्रहण करता है, अर्थात् अन्नादि चतुर्विध आहारादि का त्याग कर सर्वप्रथम मल-मूत्रादि अशुचि विसजन के स्थान का अवलोकन कर नरम तृणों की शय्या तैयार की जाती है, तत्पश्चात् सिद्ध , अरहंत और धर्माचार्यों को विनयपूर्वक नमस्कार कर पूर्वगृहीत प्रतिज्ञाओं में दोषों की आलोचना और उनका प्रायश्चित्त ग्रहण किया जाता है । इसके बाद समस्त प्राणियों से क्षमायाचना की जाती है तब साधक अठारह पापस्थानों या मोक्षमार्ग के विघ्नों का त्याग करने का मन वचन और काय से संकल्प लेता है । ये अठारह पाप स्थान हैं ___ "पाणाइवा यमलिअं चोरिक्कं मेहुणं दविणमुच्छं कोहं माणं मायं लोहं पिज्जं तहा दोषं कलहं अब्भक्खाणं पेसुन्न रइ-अरइ-समाउत्तं परपरिवायं मात्रा-मोसं मिच्छत्तसल्लं च वोसिरसु इमाइं मुक्खमग्गसं सग्गविग्धभूआई दुग्गइ-निबधणाई अप्ठारस पावठाणाई ॥ रत्नकरंडश्रावकाचार के अनुसार निम्न परिस्थितियों में ही सल्लेखना धारण २६२ तुलसी प्रज्ञा Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया जाता है "उपसर्गे दुभिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे । धर्माय तनु विमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ।।"५ अर्थात् भयानक उपसर्ग के समय, अकाल में, वृद्धावस्था में तथा आचार पालन में बाधा उपस्थित होने पर और असाध्य रोग के अवसर पर सल्लेखना ग्रहण किया जाता है । जैनागमों में श्रावक और श्रमण दोनो के लिए सल्लेखना व्रत का विधान मिलता सल्लेखना और आत्महत्या में अन्तर चूंकि सल्लेखना में स्वेच्छा मृत्यु को वरण किया जाता है अर्थात् दूरस्थ मृत्यु को आहारादि के त्याग से समीप बुलाया जाता है अतएव इसमें आत्महत्या जैसी स्थिति बनती है, परन्तु सल्लेखना और आत्महत्या में मौलिक अन्तर है । आत्महिंसा करने वाले व्यक्ति का संसार के प्रति रागात्मक सम्बन्ध बना रहता है, वह जीवन के संघर्षों से ऊबकर आत्महत्या के लिए उद्यत होता है। ऐसी स्थिति में उसके चित्त में क्रोधादि की स्थिति रहती है इसलिए ऐसा करने में दोष माना गया है, जबकि सल्लेखना धारण करने वाला साधक सांसारिक रागादि से रहित होता है, उसका चित्त कषायों के नष्ट हो जाने से स्वच्छ और निर्मल होता है, इसलिए सल्लेखना को आत्महत्या से भिन्न माना गया है । पञ्चाध्यायी में कहा भी है.--- "अर्थाद्रागदयोहिंसा चास्त्यधर्मो व्रतच्युतिः । अहिंसा तत्परित्यागो व्रतं धर्मो अथवा किल ।।६।। सल्लेखना में आत्महत्या जैसी प्रतीत होने वाली प्रकृति भी निर्दोष कही गई है क्योंकि ऐसा करने के पीछे साधक की सांसारिक भोगों की महत्त्वाकांक्षा नहीं होती, वरन् जीवन लक्ष्य की प्राप्ति की उत्कट इच्छा होती है । 'वृहदभाष्य" के अनुसार जिस तरह डॉक्टर का चीरफाड़ हिंसा जैसा प्रतीत होता है परन्तु ऐसा करने के पीछे डॉक्टर का उद्देश्य रोगी को दुःख पहुंचाना न होकर सुख पहुंचाना ही होता है, उसी तरह सल्लेखना का उद्देश्य देहिक पीड़ा न होकर आध्यात्मिक सुख की प्राप्ति है । सल्लेखना में आत्मस्वरूप का दिव्य प्रकाश है, तो आत्महत्या में मोह-ममता का गहन अन्धकार है । समाधिमरण आत्म जीवन है, तो आत्मघात जीवन का विनाश है, सद्वृत्तियों का पूर्णतः ह्रास है, दुर्गति का विधायक है और आत्मपीड़क है । सल्लेखना अपने बल, वीर्य, धृति तथा पुरुषार्थ का अधिक से अधिक सदुपयोग है, तो आत्महत्या जीवन की समस्त शक्तियों का एक साथ दुरुपयोग है । सल्लेखना एक नए जीवन का आह्वान है, मृत्यु को भी जोवन के रूप में परिवर्तित करने की एक धर्मयात्रा है और सबसे बढ़कर वीरतापूर्ण मुक्ति का अभियान है । आत्महत्या जीवन से पलायन है, कायरता है तथा हीन योनियों में भटकने की मन्त्रणा है। गीता में इस बात की स्वीकृति है कि मृत्यु के समय, जीव जैसी भावना करता है उसी के अनुसार योनि में उसका पुनर्जन्म होता है । आचार्य भद्रबाहु ने कहा है कि “साधक की देह संयम की साधना के लिए है यदि देह ही नहीं रही तो संयम कैसे रहेगा। अतः संयम की साधना के लिए देह का परिपालन खण्ड २१, अंक ३ २६३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इष्ट है, साथ ही देह का परिपालन संयम के निमित्त है, अतः देह का ऐसा परिपालन जिसमें संयम ही समाप्त हो किस काम का ?' तब साधक के लिए सल्लेखना या समाधि-मरण ही एक अन्तिम और उत्तम कार्य शेष रहता है। सल्लेखना का महत्त्व भारतीय नैतिक चिन्तन में जीवन जीने की कला पर तो विचार हुआ ही है साथ ही मृत्यु की कला पर भी कुछ कम चिन्तन नहीं हुआ है। जीवन कैसे जीना चाहिए इसके लिए आचारशास्त्रों की रचना हुई है उनमें ही जीवन का अन्तिम व्रत या आचार के रूप में सल्लेखना या समाधि-मरण का विधान मिलता है। संसार में प्रायः ऐसा देखा जाता है कि लोग बच्चों के जन्म के समय नानाविध मंगलाचरण या महोत्सव का आयोजन कराते हैं, लेकिन उनके मृत्यु के समय किसी प्रकार का मंगलाचरण या महोत्सव नहीं होता प्रत्युत् व्यक्ति मृत्यु के भय से नये जन्म में होने वाले सुख को भी भूला देता है। वस्तुतः इसी कारण भारतीय नैतिक चिन्तकों ने मृत्यु महोत्सव रूप सल्लेखना या समाधि-मरण का विधान किया है। वैदिक परम्परा में प्रायश्चित्त के निमित्त से मृत्युवरण का समर्थन सूत्र" और स्मृति" ग्रन्थों में मिलता है । यह सल्लेखना का ही एक रूप है। बौद्धदर्शन के संयुक्त निकाय२ में असाध्य रोग से पीड़ित भिक्षु वक्कलि कुलपुत्र द्वारा की गयी आत्महत्या का समर्थन बुद्ध ने किया था ऐसा प्रमाण मिलता है। रामायण और महाभारत तथा श्रीमद्भागवत में भी मृत्युवरण देखा जाता है । जैन आगमों में तो सल्लेखना मृत्यु महोत्सव के रूप में वर्णित है । जैन परम्परा के अतिरिक्त वैदिक परम्परा और बौद्ध परम्परा में सल्लेखना धारण करने की जो रीति है (जल एवं अग्नि प्रवेश, गिरि-शिखर पतन, विष या शस्त्र प्रयोग से मृत्युवरण) उसे जैन आचार्यों ने स्वीकार नहीं किया है, क्योंकि इसमें मरणाकांक्षा की संभावना रहती है । अतएव इन सभी बिन्दुओं पर विचार कर जैन आचार्यों ने सामान्यतया केवल उपवास के द्वारा ही देह त्याग करना उत्तम माना है। आचारांग सूत्र में सल्लेखना ग्रहण करने वाले की माध्यस्थवृत्ति का वर्णन करते हुए कहा गया है कि "सल्लेखना में साधक न जीवित रहने की आकांक्षा रखता है, न मृत्यु की प्रार्थना करता है वह जीवन और मरण में आसक्ति रहित होता है अर्थात् जीवन-मृत्यु में समभाव रखता है।" आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि "समस्त मतावलम्बी तप का फल अन्तक्रिया पर ही आधारित बताते हैं, इसलिए पुरुषार्थ भर समाधि-मरण के लिग प्रयास करना चाहिए।"१७ समाधि-मरण में किया गया काय-क्लेश भी आत्मा के कष्ट मिटाने या भावी जीवन को सुखमय बनाने के लिए है ।“ मृत्यु महोत्सव के अनुसार “तपे हुए तप, पालन किए हुए व्रत और पढ़े हुए शास्त्र बिना समाधि-मरण के वृथा है।"१९ . २६४ तुलसी प्रज्ञा Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संदर्भ: १. तत्त्वार्थसूत्र, ७३१७ ११. (क) मनुस्मृति, ११।९०.९१ २. रत्नकरंडश्रावकाचार अ० ५ (ख) याज्ञवल्क्य स्मृति, ३।२५३ ३. वही, अ० ५ (ग) गौतम स्मृति, २३।१ ४. संथारपइन्ना, ८।९।१० १२. संयुक्तनिकाय, २१।२।४१५ ५. रत्नकरंडश्रावकाचार, १३. रामायण, ६. पञ्चाध्यायी, ७५५ १४. महाभारत, २५६२-६४ ७. वृह० भा०, ३९५१ १५. श्रीमद्भागवत, ११वें स्कन्ध का १८वां ८. गीता, १८१५-६ अध्याय ९. ओघनियुक्ति, ४७ १६. आचारांग सूत्र, ११८,८।४ १०. (क) वशिष्ठ धर्मसूत्र, २०।२२, १३॥ १७. रत्नकरंडश्रावकाचार, १२३ १८. दशवैकालिक, ८ (ख) आपस्तम्ब धर्मसूत्र, १।९।२५॥१. १९. मृत्युमहोत्सव, १६ ३,६ -संस्कृत विभान बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी १४ खंड २१, अंक ३ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'वाक्यपदीय' में काल की अवधारणा - डॉ० रघुवीर वेदालंकार क्रिया की सबसे बड़ी शक्ति 'काल' ही है। भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के तृतीय काण्ड में काल के सम्बन्ध में विस्तार से विचार किया है। उन्होंने क्रिया समुद्देश के पश्चात् काल समुद्देश को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया है । भर्तृहरि ने वहां पर काल की अन्य परिभाषाओं को उद्धृत करते हुए यह परिभाषा दी है कि जब जन्म क्रियाओं से पृथक् करके केवल एक ही क्रिया की ओर इंगित किया जाता है तब जिस वस्तु का परिमाण हमें ज्ञात होता है उसे 'काल' कहते हैं।' भर्तृहरि के अनुसार यह काल कथित या कथ्य मान क्रिया ही है ।' भर्तृहरि की दृष्टि में काल का सम्बन्ध सत्ता से होता है, वस्तु से नहीं। इसी को उन्होंने 'भूतो घट:' का उदाहरण देकर स्पष्ट किया है कि जब हम 'भूतो घटः' कहते हैं तो भूत का संकेत सत्ता की ओर ही होता है, वस्तु की ओर नहीं।' ___काल-समुद्देश के प्रारम्भ में भर्तृहरि 'एके' कहकर वैशेषिकों का मत भी दिखलाते हैं कि यह काल क्रिया से अतिरिक्त है, नित्य, विभु तथा द्रव्य है। वैशेषिकदर्शन में नौ द्रव्यों में 'काल' की गणना भी की गयी है। भर्तृहरि भी काल को विभु तथा स्वतन्त्र स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार इसका काल नाम इसीलिए है कि यह एक ही सत्ता की विविध कलाओं को जलयन्त्र की गति की तरह लगातार घुमाता रहता है या खण्डित करता रहता है। यहां पर जो यह खण्ड रूप में लिखकर भी अखण्ड रूप में प्रतीति होती है, यह काल के कारण ही है। संसार की प्रत्येक प्रक्रिया तथा जीवन का प्रत्येक व्यापार काल की प्रक्रिया से अनुस्यूत है इसीलिए भर्तृहरि काल को स्वयं एक ऐसा व्यापार मानते हैं जिसके अंगभूत होकर ही विश्व के अन्य व्यापार प्रवृत्त होते हैं । इस प्रकार समस्त संसार का सूत्रधार काल ही है। । यद्यपि भर्तु हरि काल को एक अखण्ड तथा अविच्छेद्य सत्ता मानते हैं पुनरपि उसके प्रवाह की दो सीमाएं-प्रतिबन्ध तथा अभ्यनुज्ञा के रूप में स्वीकार करते हैं। काल की इन्हीं दो शक्तियों के कारण उसका कथित विभाजन सम्भव हो पाता है।' काल की इन दो शक्तियों को इस रूप में समझा जा सकता है कि कोई भी पदार्थ एक दम सम्पूर्ण रूप से उत्पन्न नहीं हो जाता क्योंकि प्रतिवन्धक नामक काल शक्ति ने उसे रोका हुआ है, किन्तु इसकी उत्पत्ति सर्वथा ही नहीं रुक गयी है अपितु शनैः शनैः हो रही है । यही है काल की अभ्यनुज्ञा नामक शक्ति। ये शक्तियां प्रत्येक पदार्थ के साथ बम ११, अंक ३ २६७ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लगी हैं। भर्तृहरि इसे इस रूप में कहते हैं कि यदि काल अपनी इन दोनों शक्तियों के द्वारा पदार्थों को नियन्त्रित न करे तो उत्पत्ति में पौर्वापर्य नहीं रह पायेगा जिससे बीज में से अंकुर, नाल, फूल, फल आदि एक ही साथ उत्पन्न हो जाने चाहिए। ऐसा नहीं होता, क्योंकि काल ने प्रतिवन्धक नामक शक्ति के द्वारा उन्हें रोका हुआ है। यह प्रतिवन्ध स्थायी नहीं है अतः अभ्यनुज्ञा नामक शक्ति के द्वारा वे उससे जन्म भी लेते हैं । भर्तृहरि कहते हैं कि इसलिए किसी भी पदार्थ की उत्पत्ति, स्थिति तथा विनाश में काल को ही कारण मानना चाहिए।" हेलाराज ने यहां पर उदाहरण दिया है कि कुछ वनस्पतियां वसन्त में उत्पन्न होती हैं तो कुछ शरद् काल में। इनका निमित्त काल ही है। प्रतिवन्ध तथा अभ्यनुज्ञा के रूप में इन विभागों के रहने पर भी काल के स्वरूप में अन्तर नहीं आता वह तो कालिक दृष्टि से अखण्ड ही रहता है। इन दोनों शक्तियों को स्वीकार करके काल के निरन्तर प्रवाह में अवयव, क्रम, विभाग आदि का आभास उसी प्रकार होने लगता है जैसे अखण्ड शरीर के अवयवों में पार्थक्य का आभास । इस प्रकार प्रतिवन्ध तथा अभ्यनुज्ञा के द्वारा विभक्त दिखलाई देने पर भी काल अखण्ड ही बना रहता है।" प्रतिवन्ध तथा अभ्यनुज्ञा के वीच के अन्तर को भर्तृहरि इस रूप में स्पष्ट करते हैं कि जिस प्रकार घटी यन्त्र की तली में लगी नाली के छिद्र में से कुछ पानी तो बाहर निकल जाता है तथा कुछ अन्दर ही बना रहता है उसी प्रकार काल के सतत प्रवाह में एक अवधि को इस रूप में माना जा सकता है जिससे निर्गत काल को वद्ध भाग के रूप में कह सकते हैं। यहां पर प्रतिवन्ध तथा अभ्यनुज्ञा ने पानी को नियन्त्रित किया हुआ है । ये दोनों काल शक्तियां भी परस्पर सापेक्ष हैं। इनमें से एक पानी की पूर्ववर्ती स्थिति को बतला रही है तो दूसरी परवर्ती स्थिति को। इनमें पहले की स्थिति को अनागत तथा परवर्ती स्थिति को भूत या गत कहा जा सकता है। ___ इन दोनों शक्तियों -प्रतिवन्ध तथा अभ्यनुज्ञा के बीच के अन्तर को ही वर्तमान समझना चाहिए । यही इन दोनों को पृथक् करने वाला तत्त्व है। नालिका के छेद से जो पानी गुजर रहा है वह वर्तमान कालिक ही है। वर्तमान की यह अवधि एक क्षण से लेकर सुदीर्घ काल तक भी हो सकती है। यह प्रयोक्ता पर ही निर्भर करता है कि वह इसका कितना परिमाण माने यथा 'आजकल' शब्द के द्वारा एक दो दिन से लेकर वर्षों तक के समय को कह दिया जाता है। यह सब वर्तमान काल ही है जो कि भूत तथा भविष्य के मध्य एक सीमा का आभास देता है। वर्तमाने लट् (पा० ३।२।१२३) सूत्र पर महाभाष्य में पतञ्जलि ने प्रसङ्ग चलाया है कि 'इहाधीमद्र', 'इह पुष्यमित्रं याजयामः' इत्यादि प्रयोगों में भी लट् लकार का विधान करना चाहिए क्योंकि इन प्रयोगों में वर्तमानकालता न होने के कारण 'वर्तमानेलट्' से लट् लकार प्राप्त नहीं होगा। अध्ययन करते हुए तथा यजन करते हुए बीच बीच में भोजन आदि कार्य भी करने होते हैं। तब वर्तमान काल नहीं रहता यद्यपि अध्ययन तथा यजन आदि दीर्घ काल तक चलते रहते हैं। इसी प्रकार 'तिष्ठन्ति पर्वताः' यहां भी 'लट्' का विधान करना चाहिए क्योंकि यहां पर भूत भविष्य तथा २६८ . तुलसी प्रज्ञा Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान का कोई भेद नहीं है । पतंजलि ने इन दोनों शंकाओं का उत्तर दिया है कि देवदत्त नामक व्यक्ति भोजन करते हुए भी तो पानी पीता है, बातचीत भी करता है । उस क्षण में भक्षण क्रिया की वर्तमानकालना समाप्त हो जाती है पुनरपि 'भुङक्ते देवदत्तः' प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार 'इह याजयामः' आदि प्रयोग भी सिद्ध हो जायेंगे क्योंकि वहां भी वर्तमानकालता है। पतंजलि वर्तमान की परिभाषा देते हैं कि जबसे क्रिया प्रारम्भ की गयी है जब तक वह पूर्ण विराम को प्राप्त न हो, तब तक वर्तमान काल ही कहलायेगा, भले ही यह काल कितना ही दीर्घ क्यों न हो।" भर्तृहरि ने इस प्रसङ्ग को वाक्यपदीय में पतंजलि के अनुसार ही तीन श्लोकों में प्रकट किया है। यद्यपि भर्तृहरि काल को एक अखण्डात्मक इकाई ही स्वीकार करते हैं तथापि वे लोक व्यवहार की दृष्टि से इसके भूत, भविष्य तथा वर्तमान के रूप में क्रियाकृत तीन भेद मानते हैं । परमार्थतः काल एक ही है ।१६ क्रिया की समाप्ति पर भूतकाल कह दिया जाता है। सम्भावित क्रिया को दृष्टि में रखकर भविष्यत् काल कहा जाता है तथा प्रवाहरूप में वर्तमान क्रिया के कारण उस काल को भी वर्तमान कह दिया जाता है भले ही क्रिया का वह प्रवाह एक क्षण से लेकर सुदीर्घकाल तक ही क्यों न हो । यद्यपि काल एक ही है तथापि भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान के रूप में उसकी तीन प्रकार की शक्तियां हैं। इन शक्तियों के आधार ही पदार्थों के जन्म तथा विनाश होते हैं । वस्तुत: ये जन्म तथा विनाश विद्यमान पदार्थों के ही काल की इन्हीं शक्तियों के कारण आविर्भाव तथा तिरोभाव ही है।" ___इस प्रकार काल के अखण्ड प्रवाह को स्वीकार करके भी भर्तृहरि भावों के दर्शन तथा अदर्शन भेद से बुद्धि सीमा में गृहीत तथा अगृहीत काल को ही भूत, भविष्य तथा वर्तमान के रूप में विभक्त करते हैं। अदर्शन की दृष्टि से भूत तथा वर्तमान में भी बहुत अधिक अन्तर नहीं है। ये दोनों समान महत्त्व रखते हैं । ये दोनों ही अदृष्ट हैं। जो वर्तमान की दृष्ट स्थिति से पहले था, उसे अतीत कह दिया जाता है तथा जो वर्तमान दृष्टि से परे स्थित है उसे ही भविष्य कह दिया जाता है। भर्तृहरि कहते हैं कि इसी आधार पर कुछ लोग भूत तथा भविष्य में अन्तर ही नहीं मानते ।" क्योंकि अदर्शन की दृष्टि से दोनों समान हैं। भर्तृहरि भी जानते हैं कि दार्शनिक दृष्टि से भूत तथा भविष्य में अधिक अन्तर नहीं किया जा सकता पुनरपि इन दोनों में सूक्ष्म सा अन्तर वे खोज ही लेते हैं। प्रतिवन्ध तथा अभ्यनुज्ञा इसी अन्तर को प्रकट करते हैं। उनके अनुसार अनागत उस काल शक्ति का नाम है जो जन्म होने • की क्रिया में प्रतिवन्ध या वाधा बनकर नहीं आती अपितु वह उसके साथ ही रहती है इसके विपरीत अतीत या भूत के रहने पर किसी वस्तु के जन्म की सम्भावना भी नहीं की जा सकती।" इस प्रकार अखण्ड काल का भूत, भविष्य तथा वर्तमान के रूप में वैविध्य भर्तृहरि को स्वीकृत है । इतना ही नहीं अपितु भर्तृहरि भूत, भविष्य तथा वर्तमान के अवान्तर विभाग भी कहते हैं । उन्होंने भूत को पांच प्रकार का, भविष्य को चार प्रकार का तथा चंड २१, अंक ३ २६९ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्तमान को दो प्रकार का मानकर काल के ग्यारह विभाग भी किये हैं। हेलाराज ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है कि भूत सामान्य, अद्यतनीयभूत, अनद्यतनीयभूत इन दोनों के समुदाय से भिन्न तथा जो भविष्यत् होते हुए भी क्रिया निष्पत्ति या अतिदेश से भूत के कार्यों को प्राप्त करता है वह, इस प्रकार ये पांच भेद भूत के हैं। भविष्य के चार भेद इस प्रकार हैं -सामान्य भविष्य, असतनीय भविष्य, अनद्यतनीय भविष्य तथा इन दोनों का समुदाय । वर्तमान के दो भेद हैं- मुख्य वर्तमान तथा अमुख्य वर्तमान । अमुख्य वर्तमान वह है जो भूत तथा भविष्य दोनों की सीमाओं का स्पर्श करता है। पाणिनि भी भाषा वैज्ञानिक नियम के रूप में सूत्रों के द्वारा इसका निर्देश करते हैं। इस प्रकार संक्षेप में कहा जा सकता है कि काल तत्व नित्य विभु तथा अखण्ड है । इसमें दिन-मास-वत्सर आदि का विभाग लोक व्यवहार की दृष्टि से ही है। काल की कोई अवधि या सीमा नहीं है। कदाचित् इसी आशय से भवभूति ने भी 'कालो ह्यं निरवधिः' कहा होगा। संदर्भ: १. क्रियान्तर परिच्छेदे प्रवृत्ता या क्रियां प्रति । विज्ञति परिमाणा सा काल इत्यभिधीयते ॥ वा० ५० ३७७ २. अतः क्रियान्तर भावे सा क्रिया काल इष्यते । वही ३१७८ ३. भूतो घट इतीयं च सत्ताया एव भूतता। वही ३१७९ ४. व्यापारव्यतिरेकेण कालमेके प्रचक्षते । नित्यमेकं विभुं द्रव्यं परिमाणं क्रियावताम् ॥ वही ५. पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि (वैशे० ११५) ६. जलयन्त्र भ्रमावेश सदृशीभिः प्रवृत्तिभिः । स कलाः कालयन् सर्वा कालाख्यां लभते विभुः ॥ वही ३।१४ ७. प्रत्यवस्थं तु कालस्य व्यापारोऽत्र व्यवस्थितः ।। काल एव हि विश्वात्मा व्यापार इति कश्यते ॥ वही ३।१२ ८. प्रतिबन्धाभ्यनुज्ञाभ्यां तेन विश्व विभज्यते ॥ वही ३१४ ९. यदि न प्रतिवध्नीयात् प्रतिवन्धश्च नोत्सृजेत् । अनस्था व्यतिकीर्येरन् पौर्वापर्य विना कृता । वही ३१५ १०. वही, ३३३ ११. प्रतिवन्धाभ्यनुज्ञाभ्यां वृत्तिर्याऽस्म शाश्वती । तया विभज्यमानासौ भजते क्रमरूपताम् ॥ वही ३१३० १२. प्रतिवन्धाभ्यनुज्ञाभ्यां नालिकाविवराश्रिते । __ यदम्भसि प्रक्षरणं तत्कालस्यैव चेष्टितम् ॥ वही ३७० १३. अस्ति य मुक्तसंशये विरामः (भ० भा० ३।२।१२३ वा० ४) २७० तुलसी प्रज्ञा Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. न्याय्या त्वारम्भान्तवर्गात् । वही, वा० ३ १५. वा०प०३१८२-८४ १६. तस्याभिन्नकालस्य व्यवहारेक्रियाकृताः । भेदा इन त्रयः सिद्धा यॉल्लोको नातिवर्त्तते ।। वही ३१४८ १७. एकस्य शक्तयस्तिस्रः कालस्य समवस्थिताः । यत्सम्बन्धेन भावानां दर्शना दर्शनेसताम् ॥ वही ३।४९ १८. वही ३१५६ १९. अनागता जन्मशक्त: शक्तिरप्रतिवन्धिका । ___ अतीताख्या नु या शक्तिस्तया जन्म विरुध्यते ॥ वही ३१५१ २०. भूतः पञ्चविधस्तत्र भविष्यञ्च चतुर्विधः । वर्तमानो द्विधा ख्यात इत्येकादश कल्पना ॥ वही ३।५८ २१. लिङ निमित्त लुङ क्रियातिपत्ती । पा० ३।३।३० एवं वर्तमान सामीप्ये वर्तमानवहा । पा० ३।३।१३१ --बी २६६ सरस्वती विहार दिल्ली ३४ बंर २१, अंक ३ २७१ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगध में काण्व-शासन और युगपुराण 0 उपेन्द्रनाथ राय शासनारम्भ शुङ्गवंश के अन्तिम राजा देवभूमि (विष्णु और भागवत० में देवभूति) को मारकर उसका मन्त्री वसुदेव राजा बना। चूंकि वह काण्व गोत्र का था अतः मगध का यह राजवंश काण्ववंश के नाम से परिचित है। इस सम्बन्ध में मत्स्यपुराण का कहना है कि बचपन से ही व्यसन में पड़े हुए राजा देवभूमि को मारकर उसका ब्राह्मण अमात्य वसुदेव राजा बना । वायु और ब्रह्माण्ड भी वही बात कहते हैं ।' यह हत्या किस प्रकार की गई इस पर पुराण कोई प्रकाश नहीं डालते । इस सम्बन्ध में हमारी जानकारी का एकमात्र स्रोत बाण का 'हर्षचरित' है जिसमें कहा गया है कि मन्त्री वसुदेव ने दासी की कन्या को रानी के वेश में कामातुर राजा देवभूति के पास भेज कर उसको मरवा डाला-अतिस्त्रीसङ्गरतमनङ्गपरवशं शुङ्गममात्योवसुदेवो देवभूतिम् दासीदुहित्रा वीतजीवितमकारयत् ।। इससे ज्ञात होता है कि देवभूमि रानी के वेश में पराई स्त्रियों को अपने पास बुलाया करता था ताकि सब कुछ गुप्त रहे । इसे जानने वाले अमात्य ने किसी दासी की लड़की को सजाकर भेज दिया जिसने विषप्रयोग या अन्य किसी प्रकार राजा को मार डाला । घटक और शासनाविधि ___ काण्ववंश में कुल चार राजा हुए, इसमें कोई मतभेद नहीं है। इन राजाओं के नाम हैं -१. वसुदेव २. भूमि मित्र ३. नारायण और ४. सुशर्मा। इस राजवंश की शासनावधि सभी पुराण एक स्वर से ४५ वर्ष बताते हैं। व्यक्तिशः शासनावधि में कुछ मतभेद है जिसकी चर्चा आगे चलकर करेंगे। ये सभी राजा 'प्रणतसामन्ताः' कहे गये हैं जिससे इनका प्रतापी होना सिद्ध है । इनको धार्मिक भी कहा गया है। स्थितिकाल पुराणों के अनुसार परीक्षित् के जन्म से महापद्मनन्द के अभिषेक तक १५०० वर्ष बीते । फिर नन्द-शासन १३६ वर्ष, मौर्य-शासन १३७ और शुंगकाल ११२ वर्ष रहा । इसके बाद काण्ववंश का ४५ वर्षीय काल आता है। अतः ३१३७ -- १८८५= १२५२ ई० पू० से काण्ववंश का शासन आरम्भ होकर १२०७ ई० पू० में समाप्त होता है। सड २१,बंक ३ २७३ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक-आक्रमण और शकाधिकार __ मगध के राजवंशों में काण्ववंश ही ऐसा है कि जिसका शासनकाल शान्ति से बीता और जिसके बारे में किसी तरह के विवाद की गुंजाइश नहीं थी। किन्तु दीवान बहादुर के० एच० ध्रुव की कृपा से विवाद उत्पन्न हो गया है। उन्होंने युगपुराण सम्बन्धी अपने एक लेख में इस प्रकार का मत प्रगट किया है कि काण्व राजा नारायण के शासन का अन्तिम वर्ष ३५ ई० पू० है । उसी वर्ष शक अम्लाट का पाटलिपुत्र पर आक्रमण हुआ जिसमें नारायण निहत हुआ और दश वर्ष के लिए मगध पर शकों का कब्जा हो गया । अन्तिम शक राजा कलिंगाभियान में, २५ ई० पू० में सातवाहन राजा, के हाथ मारा गया। इसे सुनकर सुशर्मा लोटा, चार वर्ष पाटलिपुत्र पर शासन कर २१ ई० पू० में वह सातवाहन राजा द्वारा पराजित और निहित हुआ। उसे हराने वाला राजा ध्रुव की समझ में सम्भवतः अन्ध्रवंश का पन्द्रहवां राजा पुलुमायी प्रथम था और अम्लाट शक राजा अजेस (५५-११ ई०१०) का कोई प्रादेशिक अधिकारी रहा होगा।' ध्रुव उसी लेख के सातवें परिशिष्ट में काण्ववंश के बारे में निम्न सारणी पेश करते हैं :राजा मत्स्य ब्रह्माण्ड वायु प्रकृतसंख्या १. वसुदेव ९ वर्ष ५ वर्ष ९ वर्ष ५ वर्ष २. भूमिमित्र १४ वर्ष २४ वर्ष २४ वर्ष ३. नारायण १२ वर्ष १२ वर्ष १२ वर्ष __(शक-शासन १० वर्ष) ४. सुशर्मा १० वर्ष ४ वर्ष १० वर्ष इस पर ध्रुव का कहना है कि शकों के पहले तीन राजाओं ने कुल ४ वर्ष और बाकी ने ६ वर्ष शासन किया और ये संख्याएं वायुपुराण में पहले और अन्तिम राजा की शासनावधि में जुड़ गयी है जिससे योगफल ५५ हो गया है। मत्स्य ने भी वही भूल की है पर भूमिमित्र की शासनावधि से १० वर्ष घटाकर योगफल ठीक रखा है।' ध्रुव के इन विचारों से अनेक फूल-फल गत छः दशकों में निकले हैं और इतिहास के क्षेत्र में भ्रम की उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है अतः ध्रुव के विचारों की परीक्षा आवश्यक २४" पुराण-पद्धति से ध्रुव को अज्ञता ध्रुव प्रवाह के अनुकूल चलने वाले विद्वानों में से एक हैं। जायसवाल उनके पूर्वसूरि और दीनेशचन्द्र सरकार उनके उत्तरसूरि हैं। इन विद्वानों को पुराणों की जानकारी अधूरी है और उसे पूरी करने की जरा भी आवश्यकता इन्होंने नहीं समझी । इसीलिए ये विद्वान् बड़ी भद्दी भूलें करते हैं। दशरथ , सम्प्रति और शालिशूक को भाई-भाई कहना और यह मानना कि कुणाल के बाद मौर्य-साम्राज्य दो टुकड़े हो गया था जिनमें से पश्चिमी टुकड़े का राजा सम्प्रति, पूर्वी का दशरथ था ऐसी ही भूलें हैं । पाजिटर सम्पादित सामग्री के आधार पर हमने सिद्ध कर दिया है तुमसी प्रमा २७४ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि सम्प्रति, दशरथ का पुत्र और उत्तराधिकारी था। सम्प्रति का ज्येष्ठ पुत्र विजय और उससे छोटा शालिशूक था।' ऐसे स्थूल विषयों में भूल करने वाले पुराणों की सूक्ष्म बातें कैसे समझेंगे ? पुराण व्यक्तिशः शासनावधि अभिषेक से शुरू करते हैं और शासनान्त तक के वर्ष गिनते हैं। ऐसी हालत में किसी राजा ने पिता की मृत्यु के बाद यदि सत्ता कार्यतः पा भी ली हो किन्तु गृहकलह आदि कारणों से अभिषेक में देरी हो तो अभिषेक-पूर्व के वर्ष उसकी शासनावधि से छूट जाते हैं। अशोक के अभिषेक में ४ वर्ष देरी हुई थी अतः उसकी शासनावधि में वे चार वर्ष नहीं गिने गये। इसी से सभी पुराण मौर्यों की शासनावधि १३७ वर्ष बताते हैं पर योगफल १३३ ही आता है। किन्तु अभिषेक के बाद कोई राजा थोड़े समय किसी सत्तापहारी द्वारा पदच्युत होकर पुनः राज्य पाता है तो पुराण पूरा काल उसकी शासनावधि में ही गिनेंगे। जहां तक राजवंश की शासनावधि का प्रश्न है पुराण , उसके आरम्भ होने से उसके अन्त का काल गिनते हैं। बीच में यदि किसी कारण उसका शासन खंडित होता है तो उसकी उपेक्षा की जाती है। शिशुनाग राजाओं की व्यक्तिशः शासनावधि ३४६ वर्ष के लगभग आती है जबकि पूरे वंश की अवधि पुराण एक स्वर से ३६२ वर्ष बताते हैं। इसका कारण यह है कि मगध बीच में दुर्बल और पराधीन हो गया था। । पुराणों की इस पद्धति के अनुसार यदि सचमुच काण्ववंश के समय मगध पर १० वर्ष शकों का कब्जा रहा होता तो पुराण वे वर्ष किसी राजा के राजकाल में न जोड़कर व्यक्तिश: शासनावधि के योगफल से राजवंश की शासनावधि १० वर्ष अधिक दिखाते हैं। किन्तु सभी पुराण ४५ वर्ष ही कहते हैं। यहां तक कि वायु, जिसमें योगफल ५५ आता है वह भी कहता ४५ ही है। यह भी चिन्त्य है कि शक-शासन का आरम्भ तो नारायण के समय हुआ पर ४ वर्ष जुड़ गये पहले राजा के काल में और छः अन्तिम राजा के काल में ! ऐसी अनहोनी भी कहीं किसी ने सुनी है ? परस्पर-विरोध ध्रुव जैसे विद्वानों की स्मरणशक्ति बड़ी दुर्बल है जिससे अपने दीर्घकाय लेखों में वे पहले जो बात लिखते हैं बाद में उसे भूल जाते हैं और उससे अनमिल, विरुद्ध बातें लिखना शुरू कर देते हैं। युगपुराण का शक-प्रसंग इसका अपवाद नहीं है। इस सम्बन्ध में युगपुराण का जो पाठ उन्होंने अपने संशोधन के साथ पेश किया है वह उनकी इस मान्यता के अनुकूल नहीं है, उससे तो सारी घटना शुंग-युग की प्रतीत होती है : वसुमित्रात् ततो राज्ञः प्राप्ता राज्यमथौद्रकः ॥ भीमैः स शकसंघातविग्रहं समुपेष्यति । ततः शकै रणे घोरे प्रवृत्ते स महाबलैः ॥ नृपः पृषत्कपातेन मृत्युं समुपयास्यति । खंड २१, अंक ३ २७५ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततः प्रणष्टचारित्रा अकर्मोपहताः प्रजाः ॥ हरिष्यन्ति शका घोरा बहुलास्ता इति श्रुतिः ॥ चतुर्भागं तु शस्त्रेण नाशयिष्यन्ति प्राणिनाम् । शकाः शेषं हरिष्यन्ति चतुर्भागं स्वकं पुरम् ॥ ध्रुव के सम्पादित पाठ की ५० से ५७ तक की इन पंक्तियों का सारांश यह है कि वसुमित्र के बाद औद्रक राजा हुआ जिसका शकों से घोर युद्ध हुआ और युद्ध में उस राजा के वीरगति पाने के बाद शकों ने चौथाई प्रजा को मार डाला और चौथाई को वे पकड़कर अपने नगर ले गये । औद्रक शुग-वंश का पांचवां राजा है। उसके अभिषेक से शुंगवंश के अन्त तक का काल ५७ वर्ष है। शकों से यदि उसकी लड़ाई हुई थी तो मगध पर १० वर्षों के लिए शकाधिकार भी शुंगकाल में रखना होगा, फिर उसे काण्वयुग में क्यों रखें ? हां यदि यह कहा जाय कि अम्लाट और उसके परवर्ती शक बाद में काण्वयुग में आये तो फिर मगध पर शकों के दो हमलों की कल्पना करनी पड़ेगी जबकि वास्तव में कहीं भी किसी शुंग या काण्व राजा का नाम इस प्रसंग में नहीं है और कम से कम ऊपर उद्धृत अंश में तो मगध या पाटलिपुत्र का नाम भी नहीं है। पाठविकृति हमारी इस आपत्ति के उत्तर में शायद यह कहा जायगा कि औद्रक चूंकि शुंगवंश का राजा है और उक्त राजवंश मगध का था अतः शुंगयुग में मगध पर शकआक्रमण स्वतः सिद्ध है। इसके उत्तर में कुछ कहने के पूर्व हम वसुमित्र और औद्रक के पूर्व की पंक्तियां उद्धत करना चाहते हैं : तदा मद्राख्यके देशे पुष्यमित्रे प्रशासति ॥ तस्मिन्नुत्पत्स्यते कन्या सुमहारूपशालिनी॥ तस्या अर्थे नपो घोरेऽब्राह्मण्यैः सह विग्रहे । तदा विधिवशाद् देहं विमोक्ष्यति न संशयः ।। तस्मिन् युद्धे महाघोरे व्यतिक्रान्ते सुदारुणे॥ अग्निमित्रस्ततो राजा भविष्यति महाप्रभः ।। त्रिंशद् वर्षाणि वै तस्य स्फीतं राज्यं भविष्यति ।। -पंक्ति ४३१४९. यहां 'मद्राख्यके' पाठ कल्पित है, मूल में 'भद्राख्यके' था। 'मद्र' या 'भद्र' वह देश मगध तो हो नहीं सकता। उससे भी बढ़कर धांधली की बात यह है कि 'अग्निमित्रे' की जगह 'पुष्यमित्रे' कर दिया गया है और पंक्ति ४५ में 'घोरे ब्राह्मणः सह विग्रहे' की जगह 'घोरेऽब्राह्मण्यः' तथा पंक्ति ४८ में 'अग्निवेश्य' को 'अग्निमित्र' बना दिया गया है । इसी प्रकार पूर्वोद्धृत पंक्ति ५० में बलात् वसुमित्र और औद्रक के नाम लाये गये हैं। मूल पाठ था ..."अग्निवेश्यस्तथा राजा राज्यं प्राप्तं महेन्द्रवत् ।" हस्तलेखों से असमर्थित ये सभी परिवर्तन त्याज्य हैं और इनके आधार पर निकाले गये निष्कर्षों का कोई मूल्य नहीं है। फिर भी यह कहानी इस पाठविकृति से जोरशोर २७६ तुमसी प्रजा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से फैल गयी है कि पुष्यमित्र ने अपनी बुढ़ौती में किसी ग्रीक राजकुमारी की मांग की थी और उस मांग को प्राप्त करने के लिए वह लड़ता हुआ निहत हुआ। सत्य यह है भद्र नामक देश में कोई सुन्दरी ब्राह्मण-कन्या जनमी थी जिसे वहां के राजा अग्निमित्र ने अपने अन्तःपुर में लाना चाहा तो ब्राह्मणों से उसका विरोध हुआ। किसी अग्निवेशगोत्रीय क्षत्रिय ने उसके विरुद्ध ब्राह्मणों का पक्ष लेकर युद्ध किया। युद्ध में अग्निमित्र निहत हुआ। पुराणों से अपरिचित होने के कारण ध्रुव ने मान लिया कि 'भद्र' नामक कोई देश नहीं हो सकता। इसी तरह अग्निमित्र नाम शुंगवंश को छोड़ कहीं नहीं हो सकता । और अग्निवेश गोत्र क्षत्रियों में हो ही नहीं सकता। यह समझ भी वैसे ही दयनीय है। अग्निवेश्य क्षत्रिय ही बाद में बैस कहलाये और उन्हीं के नाम पर अवध का एक भाग आज भी बैसवाड़ा कहलाता है । अस्तु, जिस राजा से शकों की मुठभेड़ हुई वह कोई बैस राजा था और घटनास्थल भद्र था, मगध नहीं । अतः शुंग या काण्वयुग से इसका कोई सम्बन्ध नहीं। ध्रुव सम्पादित पाठ की ५८ से ६५ तक की पंक्तियां अम्लाट से सम्बन्धित हैं जिनमें से पंक्ति ५९ में उसके "पुष्पनाम" अर्थात् पाटलिपुत्र जाने का उल्लेख है ।' उसके सबान्धव विपत्ति में पड़ने की बात पंक्ति ६५ में कही गयी है (अम्लाटो लोहिताक्षः स विपत्स्यति सबान्धवः) । किन्तु इसका कोई कारण नहीं बताया गया है। इसके तुरन्त बाद ७६,७७ और ७८ पंक्तियों को रखने से वह स्पष्ट हो जाता है : शकानां स ततो राजा ह्यर्थलुब्धो महाबलः ।। दुष्टभावश्च पापश्च कलिङ्गान् समुपस्थितः ॥ कलिङ्गशातराज्यार्थी विनाशं वै गमिष्यति ।। अम्लाट ने मगध जीतने के बाद कलिंग को लेना चाहा जो सातवाहन राजा के अधीन था तो दोनों में टकराव हुआ और अम्लाट विनष्ट हुआ। हमारी समझ में पूर्व में शक अभियान की कहानी अम्लाट के साथ ही खत्म हो जाती है। इसके बाद आता है पंक्ति ८२ में उल्लिखित सातवाहन राजा का १० वर्ष का शासन। अम्लाट के बाद मगध में चार राजाओं का उल्लेख है जिन्हें ध्रुव शक सिद्ध करना चाहते हैं । यह धारणा उन्हीं के पाठ से खंडित हो जाती है क्योंकि पंक्ति ६५ में अम्लाट के 'सबान्धव' नष्ट होने की बात कही गयी है। उसके बान्धव शकों के सिवा कौन थे ? पंक्ति ६६ में है 'तस्य राज्यपरिक्षये' (उसका राज्य नष्ट हो जाने पर)। फिर उसके बाद हुए राजाओं को शक मानने का आग्रह समझ में नहीं आता । पंक्ति ७२ में कल्पित पाठ है-ततस्तु शर्विलो राजा हरणः सुमहाबलः । यदि शक मानने का हठ न होता यो 'ततः रविकुलो राजा बनरण्यो महाबलः' या 'ततः विप्रकुलः राजा ह्ययनरण्यो महाबलः' भी माना जा सकता था जो हस्तलेखों के निकटतर होना । सबसे अधिक विकृति लाई गई है पंक्ति ७४ में। ध्रुव का पाठ है'ततो वै कुयशाः कोऽप्यब्रह्मण्यो महाबलः' जिसमें राजा के विशेषण ही विशेषण हैं, नाम खण्ड २१, अंक ३ २७७ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लापता है । मूल में था : ततो विश्वक्यशा कश्चिद् ब्राह्मणो लोकविश्रुतः । तस्यापि त्रीणि वर्षाणि राज्यं हृष्टं भविष्यति ।।" उसे मिटाकर शकों की वंश-वृद्धि करने की चेष्टा की क्या सार्थकता है, कहना कठिन है । सारांश यह कि मगध में शक-शासन का अस्तित्व अम्लाट के बाद भी बना रहना युगपुराण से प्रमाणित नहीं होता । अम्लाट का काल प्रश्न है : मगध पर हमला करने वाले अम्लाट का काल क्या है ? चूंकि अम्लाट कलिङ्ग जीतने जाकर किसी सातवाहन राजा के हाथों मारा गया अतः अन्ध्रकाल (१२०७ --- ८०१ ई० पू०) में उस घटना की रखने की प्रवृत्ति स्वाभाविक है । परन्तु हमें यहां आग्रहमुक्त होकर चलना चाहिए। पुलोमा के बहुत बाद सोमदेव भट्ट ने जब काश्मीर में बैठकर 'कथासरित्सागर' रचा उस समय भी वहां अपने को सातवाहन कहनेवाला एक राजवंश वर्तमान था। फिर सिमुक के पूर्व भी सातवाहन राजा का अस्तित्व असम्भव नहीं । अतः यह प्रश्न अभी अनिर्णीत है। वैसे अन्ध्रकाल में अम्लाट का आक्रमण अधिक सम्भव लगता है। ईसवी सन् के इतना पहले शकों का भारत में होना ध्रुव को असम्भव लगता है। वे अम्लाट को अजेस् के साथ इसलिए नत्थी कर देते हैं क्योंकि उनको पूर्ण विश्वास है कि शक विदेशी आगन्तुक थे। वे मध्य एशिया से १२० ई० पू० के बाद आए और अजेस् ही वह व्यक्ति था जिसने पंजाब में शकों का सिक्का जमाया। पूर्व की ओर बढ़ने का प्रश्न तो इसके बाद ही उठ सकता है। दुर्भाग्यवश इस मत की जड़ें अब खोखली हो गई हैं क्योंकि आधुनिक इतिहासकारों का एक भाग ईसा पूर्व आठवीं-नवीं सदी में एक शक आक्रमण की बात मानने लगा है।" ऐसी हालत में अन्ध्र-काल के अन्तिम भाग में अम्लाट का आक्रमण हुआ, ऐसा मानने में आधुनिक इतिहासकार बाधा नहीं दे सकते। फिर भी 'शक' शब्द और शक जाति को विदेशी मानना भ्रममात्र है। 'शक' धातु से बना 'शक' शब्द 'बली' अर्थ का बोधक है । उसका और उससे बने शाक, शाकिन् जैसे शब्दों का प्रयोग वेदों में भी मिलता है । एक मजबूत लकड़ी आज सागौन कहलाती है जो 'शाकवन' का ही परिवर्तित रूप है। फिर भारत की एक बली जाति 'शक' कहलाती थी इसमें आश्चर्य ही क्या है ? शकों का मूल स्थान किसी समय रावी और चनाब का कांठा (उशीनर जनपद) था। पुराणों के अनुसार राजा बाहु के समय वे अयोध्या तक पहुंच गये थे। सगर के समय वे पतित घोषित किये गये और निर्वासित हुए ।२ मनु शकों की गणना उन क्षत्रिय जातियों में करते हैं जो वृषल बन गयीं ।"धर्म-भ्रष्ट होने के बाद उनमें से अधिकांश तोची-गोमल नदियों के रास्ते गजनी गन्धार की अधित्यका की ओर चले गये शकस्थान या सीस्तान में बस गये । डा० वासुदेवशरण अग्रवाल ने भारतीय परम्परा का अनादर करके शकों का गतिपथ उल्टा बताया है ।" पाणिनि को नवीं शती ई० पू० के बाद रखना भी उनका भ्रम है क्योंकि नन्द राजा का समकालीन पाणिनि सत्रहवीं शताब्दी ई० २७८ तुमसी प्रज्ञा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पू० का परवर्ती नहीं हो सकता। शकों के विरुद्ध सगर के पुराणोक्त अभियान के बाद भी कुछ शक भारत में रह गये थे। अन्ध्रकाल में या उसके बाद उनका सिर उठाना पूर्णतः सम्भव था। इसके लिए न तो १२० ई० पू० के बाद जाना आवश्यक है न नवीं शती ई० पू० के बाद । संदर्भ-सूची १. पाजिटर, दि पुराण टेक्स्ट ऑफ दि डाइनेस्टीज ऑफ दि कलि एज, लन्दन, १९१३, पृ० ३३-३४ २. बाणभट्ट, हर्षचरितम्, षष्ठ उच्छ्वास (जीवानन्द विद्यासागर सम्पादित, __ कलकत्ता) ३. के० एच० ध्रुव, दि हिस्टोरिकल कन्टेन्ट्स ऑफ युगपुराण, जे० बी० ओ० आर० एस०, खण्ड १६, भाग १, पृ० ४० ४. उपेन्द्रनाथ राय, मगध का मौर्य शासक शालिशूक, तुलसी-प्रज्ञा, खण्ड १९, अंक २, पृ० १३६-१३९ ५. उपेन्द्रनाथ राय, मगध का शिशुनाग वंश, समाज धर्म एवं दर्शन, वर्ष ११, अंक १, पृ० १३-२२ ६. के० एच० ध्रुव, पूर्वोक्त, पृ० २१ ७ के० एच० ध्रुव, पूर्वोक्त, पृ० २१ ८. के० एच० ध्रुव, पूर्वोक्त, पृ० २१ ९. के० एच० ध्रुव, पूर्वोक्त, पृ० २२ १०. डॉ० श्रीकृष्णमणि त्रिपाठी (सं०), युगपुराणम्, वाराणसी, १९७५, पृ० १३ ११. डॉ० बुद्धप्रकाश, महाभारत-एक ऐतिहासिक अध्ययन-२, नागरी प्रचारिणी पत्रिका, वर्ष ६२, अंक ४, पृ० २८१-२८२ १२. विष्णुपुराण, ४॥३; वायु० अध्याय ८८, ब्रह्माण्ड अध्याय ६३ १३. मनुस्मृति, २०१४३-४४ १४. वासुदेवशरण अग्रवाल, पाणिनिकालीन भारतवर्ष, द्वितीय संस्करण, वाराणसी, पृ० ८२ ----गांव : मटेली जलपाईगुड़ी (बंगाल) बंर २१, बंक ३ २७९ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काम्यकगच्छ ० डॉ० शिवप्रसाद - निर्ग्रन्थ दर्शन के श्वेताम्बर आम्नाय में विभिन्न स्थानों के नाम से उद्भूत गच्छों में काम्यक गच्छ भी एक है। काम्यक नामक स्थान से सम्बद्ध होने के कारण इस गच्छ का उक्त नामकरण हुआ। श्री विमलाचरण लाहा ने काम्यक की पहचान राजस्थान प्रान्त के भरतपुर जिले में अवस्थित कामा स्थान से की है। भरतपुर जिले के ही बयाना (प्राचीन श्रीपथ) नामक स्थान से वि० सं० ११०० (ई. सन् १०४) का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है जो आज मस्जिद के रूप में परिवर्तित एक जैन मंदिर की दीवार पर उत्कीर्ण है । फ्लीट ने रोमन लिपि में इसकी वाचना दी है, जिसका कुछ सुधार के साथ नागरी लिपि में रूपान्तरण निम्नानुसार है : ॐ ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।। आसीनितकान्वयकतिलक: श्रीविष्णुसूर्यासने श्रीमत्काम्यकगच्छतारकपथश्वेताशुंमान् विश्रुत । श्रीमान्सूर्यमहेश्वरः प्रशमभूः प्रशम्भूः श्वेताम्ब (ब) रग्रामणीः राज्येश्रीविजयाधिराजनपतेः श्रीश्रीपथायांपुरी ॥ ततश्च नाशं यातुशतं सहस्रसहितं संवत्सराणां द्रुतम्, म्यामा [नाम्ना] भाद्रभद सभद्रपदवीं मासः समारोहतु । सास्यैव क्षयमेतु सोम स (हि) ता कृष्णा द्वितीया तिथिः, पंचश्रीपर [मेष्ठी] निष्ठ हृदयः प्राप्तोदिवं यत्र सः ।। [अ] [पि] च ॥-कोतिर्दिक्करिकान्तदन्तमुशल प्रोद्भूतलास्यक्रमम, क्वापि क्वापि हिमाद्रि मु-मही [मुद्रितमही] सोत्प्रास [सोऽत्रास] हास स्थितिम् क्वाप्यरावण नागराजनजित स्पर्धानुबद्धोदस्म नुव (बं) धोधुरं भ्र[7] मयन्ति भुवनत्रयम् त्रिपथगेवाद्यापि न श्राम्यति ।। सं० ११०० भाद्रवदि २ चन्द्रे कल्याणक दि [ने] प्रशस्तिरियं साधु सर्वदेवेनोकीण्णेति ॥ यही इस गच्छ से सम्बद्ध एकमात्र उपलब्ध साक्ष्य है। जैसा कि ऊपर हम देख चुके हैं यह लेख ओम् नमः सिद्धेभ्यः से प्रारम्भ होता है। इसके द्वितीय और तृतीय पंक्ति में निवृत्ति अन्वय (कुल) से उद्भूत काम्यकगच्छ में हुए विष्णुसूरि के पट्ट पर आसीन महेश्वरसूरि का उल्लेख है जो वि० सं० ११०० में स्वर्गवासी हुए। लेख की पंचम पंक्ति से ज्ञात होता है कि इसे श्रीपथ के राजा या अधिपति विजय के खण्ड २१, अंक ३ २८१ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्यकाल में उत्कीर्ण कराया गया । लेख की अंतिम पंक्ति में इसे उत्कीर्ण कराने वाले साधु सर्वदेव का नाम मिलता है । जो महेश्वरसूरी के शिष्य रहे होंगे। निर्वृतिकुल विष्णुसूरि महेश्वरसुरि [वि० सं० ११०० में स्वर्गस्थ] साधु सर्वदेव [वि०सं० ११०० में प्रशस्ति अभिलेख उत्कीर्ण कराने वाले] उक्त प्रशस्ति के अनुसार वि० सं० ११०० में महेश्वरसूरि का निधन हुआ था अत: अपनी मृत्यु के लगभग २५ वर्ष पूर्व अर्थात् वि० सं० १०७५ के आस-पास वे अपने गुरु विष्णुसूरि के पट्टधर हुए होंगे । इस आधार पर विष्णुसूरि का काल वि० सं० १०५० ---- १०७५ के आसपास माना जा सकता है । निर्वृतिकुल की यह शाखा कब और किस कारण अस्तित्व में आयी, इसके आदिम आचार्य कौन थे? इस सम्बन्ध में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। मात्र स्थानांगसूत्र' में 'कामढ्ढिक' (काधिक) गण का और कल्पसूत्र' (पयूषणाकल्प) की 'स्थविरावली' में 'कामड्ढि यकुल' का उल्लेख मिलता है। इनका काम्यकगच्छ से सम्बन्ध रहा है ? अथवा नहीं रहा---यह प्रश्न प्रमाणों के अभाव में अभी अनुत्तरित ही रह जाता है। संदर्भ: १. विमलाचरण लाहा---प्राचीन भारत का ऐतिहासिक भूगोल, लखनऊ १९७२ ई० सन् पृष्ठ ५२९ २. जे. एफ. फ्लीट -- बयाना स्टोन इन्सक्रिप्सन ऑफ अधिराजविजय, सं. ११०० इण्डियन एन्टीक्वेरी, वोल्यूम १४, पृ० ८-१० ३. वही ४. श्वेताम्बर आम्नाय के चार प्रमुख कुलों में निवृतिकुल भी एक है। अन्य कुलों की भांति यह कुल भी पूर्व मध्यकाल में एक गच्छ के रूप में प्रसिद्ध हुआ और इससे भी कुछ अवान्तर शाखाओं का जन्म हुआ। काम्यकगच्छ भी उन्हीं में से एक है। २८२ तुलसी प्रज्ञा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. समणस्स णं भगवतो महावीरस्स णव गणा हुत्था, तं जहा-गोदासगणे, उत्तर बलिस्सहगणे, उद्देहगणे, चारणगणे, उद्दवाइयगणे, विस्सवाइयगणे, कामड्ढियगणे, मानवगणे, कोडियगणे। स्थानांगसूत्र, संपा० मधुकर मुनि, जिनागम ग्रन्थमाला, ग्रंथांक ७, आगम प्रकाशन समिति, न्यावर १९८१ ई०, ९।२९, पृष्ठ ६७० । ६. गणियं मेहिय कामड्ढियं च, तह होई इंदपुरगं च । एसाइं वेसणाडियगणस्स चत्तारि उ कुलाइ ॥२१४॥ "स्थविरावली" कल्पसूत्र, संपा० देवेन्द्रमुनि शास्त्री, श्री अमर जैन आगम शोध संस्थान, गढ सिवाना, बाड़मेर १९६८ ई. सन्, पृष्ठ २९९ प्रवक्ता पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी-२२१००५ बंड २१, अंक ३ २८३ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच महाव्रत-क संक्षिप्त विवेचन साध्वी संचितयशा भारतीय संस्कृति में व्रत का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन काल में व्रत सामाजिक, धार्मिक अनुष्ठानादि क्रियाओं में किए जाते थे । व्रत शब्द 'वृञ् वरणे' धातु से बना है। जिसका अर्थ है -स्वेच्छा से मर्यादा को स्वीकार करना । व्रत की स्वीकृति थोपी नहीं जाती। व्यक्ति इच्छा से व्रत को अपने जीवन का अंग बनाता है। ___ व्रत का आध्यात्मिक क्षेत्र में भी उतना ही महत्व है, जितना भौतिक क्षेत्र में । वहां जो भी कार्य प्रारम्भ किया जाता है, उससे पहले व्रत किया जाता है। उपनिषदों एवं आगमों में व्रत-स्वीकरण के अनेक प्रसंग हैं। मत्स्य पुराण (अ० १०१) और पद्मपुराण (५.२०.४३) में ६० व्रतों का उल्लेख है। व्रत शब्द विरतिमात्र के लिए प्रयुक्त होता है। वियत इति व्रतम् --जो अविरति रूप छिद्र को ढांकता है वह व्रत है।' तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है-हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्योविरतिव्रतम् । व्रत के दो भेद पूर्णता और अपूर्णता के आधार पर किए गये। पूर्ण विरति महाव्रत और अपूर्णविरति अणुवत।' इस प्रकार महव्वयं नाम महंतं व्रतं---महान् व्रतों का नाम महाव्रत है। हारिभद्रीय टीका में भी कहा है --- महच्च तव्रतं च महाब्रत। महर्षि पतंजलि ने व्रतों को यम बताकर उन्हें सार्वभौम कहा है। उनके मतानुसार व्रत, जाति, देश, काल, परिस्थिति आदि के प्रतिबंध से रहित हैं, सर्वव्यापक हैं, सभी स्थितियों में पालनीय हैं इसलिए महान् व्रत हैं। प्राचीन काल में जीवन को चार विभागों में विभाजित किया - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास । व्यक्ति सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करता, उसके पश्चात् गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास । इन आश्रमों में प्रवेश करने के लिए अनेक प्रकार के व्रत, नियम व्यक्ति को ग्रहण करने पड़ते । जैसा कि स्मृतिकार मनु ने कहा है-व्रतचर्योपचारं च स्नानस्य परं विधिम् अर्थात् ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का आचरण । मनु के अनुसार - जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति को षोडश संस्कारों से भी गुजरना पड़ता है। इस प्रकार वैदिक युग में व्यक्ति को परमात्मा-पवित्रात्मा बनने के लिए व्रत, संस्कार, महायज्ञ, श्राद्ध आदि विधि-विधान करना आवश्यक था। बौद्ध परम्परा में महात्मा बुद्ध ने बुद्धत्व की प्राप्ति के लिए अष्टांगिक मार्ग और दशशील का विवेचन किया है। भगवान् बुद्ध के समय कर्मकाण्ड, पशुवध और बाह्य आडम्बर अधिक फैल चुके थे। जांति-पांति का भेद-भाव था जिससे मानव समाज खण्ड २१, बंक ३ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीड़ित था, दुःखी था । उस दुःख के चक्र से मुक्त होने के लिए बुद्ध ने चार आर्य सत्यों का विवेचन किया और उस सत्य प्राप्ति के लिए मध्यम मार्ग का प्रतिपादन किया । जैन परंपरा में 'व्रत' सर्वोपरि हैं। यहां आचार, आहार और सम्पूर्ण जीवन शैली ही व्रतों पर आधारित है । व्रतों से ही संयम और अहिंसा का पोषण होता है । लिये जैन वाङ्मय का 'व्रत' ही मेरूदण्ड है । इस व्रत या महाव्रत का प्रारम्भ कब हुआ ? इस प्रश्न का उत्तर इतिहास के पृष्ठों पर देखें तो 'पंच महाव्रतों' का बीज हमें आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभ के युग में प्राप्त हो जाता है । वेद, उपनिषद, पुराण, आरण्यक, ब्राह्मणग्रंथों में भी अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह का स्वरूप किसी न किसी रूप में उल्लिखत है । मत्स्य पुराण में कहा है 'मुनिव्रतमहिंसादि परिगृह्य त्वया कृतम्' अर्थात् मुनि को साधना के लिए अहिंसादि व्रत का स्वीकरण करना चाहिए ।" बुद्ध ने भी बुद्धत्व प्राप्ति के लिए अष्टांगिक मार्ग व दस शीलों का निर्देश दिया । भगवान् ऋषभ ने साधनामय जीवन का प्रारम्भ पांच महाव्रतों से किया । ऋषभ के पश्चात् भगवान् पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म का प्रवर्तन किया और भगवान महावीर ने पञ्च महाव्रतात्मक धर्म का प्रवर्तन किया। यहां 'पंच महाव्रतों' पर एक संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत किया जा रहा है१. अहिंसा महाव्रत महाव्रतों में सर्वप्रथम अहिंसा को स्थान दिया गया है । 'न हिंसा अहिंसा'जीवों का अतिपात न करना अहिंसा है । अहिंसा परम धर्म है । मूल गुण है । उसे अन्य महाव्रतों की अपेक्षा विशिष्ट स्थान प्राप्त है । ऋग्वेद में 'अहिंसन्ती" श द अहिंसा का वाचक है । यजुर्वेद में मनुष्य और जंगम पशुओं की हिंसा करने का निषेध है । हिंसा निषेध का मतलब है - व्यक्ति को अहिंसक होना चाहिए । उपनिषदों के दशयमों में अहिंसा शब्द है ।" रामायण और महाभारत काव्यों में अहिंसा को परम धर्म माना है । महाभारत के आदि पर्व में कहा अहिंसा परमो धर्मः सर्व प्राणभृतांवरः । - मनु ने लिखा है – अहिंसक व्यक्ति मुक्ति के योग्य होता हैइन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेष क्षयेण च । अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते ॥ इसी प्रकार मनु ने एक स्थान पर और लिखा है— अहिंसयेन्द्रियासङ्ग वैदिकैश्चैव कर्मभिः " वायु पुराण, अग्नि पुराण, मत्स्य पुराणादि में भी अहिंसा शब्द का उल्लेख मिलता है ।" वहां मुनि के व्रत के रूप में ग्रहण है । कहीं-कहीं यम के रूप में भी विवेचित है | पतंजलि ने कहा जब जीवन में अहिंसा प्रतिष्ठित हो जाती हैं तब व्यक्ति की सब जीवों के प्रति मंत्री की भावना स्थापित होती है । बौद्धों में आर्य वही कहलाता है जो अहिंसक होता है २८६ तुलसी प्रज्ञा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न तेन आरियो होति येन पाणानि हिंसति । अहिंसा सव्वपाणानं आरियोति पवुच्चति ॥" जैन दर्शन का मूलाधार अहिंसा है । वहां अहिंसा को सर्वोत्कृष्ट माना है और धर्म का वास्तविक स्वरूप कहा है । 'धम्मो मंगल मुक्किठें, अहिंसा सजमो तवो ।.... १३ सव्वे पाणा सव्वेभूता सव्वेजीवा सम्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परि- . घेतव्वा, ण उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुट्टे णिइए सासए समिच्च खेयण्णेहिं पवेइए। प्रश्न व्याकरण में अहिंसा के ६० नाम निषेधात्मक और विधेयात्मक दोनों रूप में मिलते हैं । निषेधात्मक दृष्टि से प्राणियों का घात न करना अहिंसा है। विधेयात्मक दृष्टि से जीव रक्षा, दया, करुणा, सेवा आदि भाव अहिंसा है। इस प्रकार अहिंसा अध्यात्म जगत् का मूलभूत आधार है। जिसमें प्रवेश करके ही साधक आत्म प्रतिष्ठित होता है। २. सत्य महावत: महावतों में दूसरा स्थान सत्य का है। सत्य शब्द की व्युत्पति सत् धातु में अत प्रत्यय करने पर होती है । जिसका अर्थ होता है - वास्तविक, यथार्थ इत्यादि। सत्य शब्द का विवेचन वेदों से लेकर आज तक के ग्रन्थों में उपलब्ध है। सर्वत्र सत्य की महिमा के गीत गाये गये हैं। संत्य आत्म-साक्षात्कार का परम साधन है इसलिए ही इसे व्रत की कोटि में गिना गया है। ऋग्वेद में कहा है-सुगा ऋतस्य पन्थाः-सत्य का मार्ग सुगम है ।१४ 'सत्यमेव ब्रह्म --सत्य ही ब्रह्म है-ऐसा ब्राह्मण ग्रन्थों में उल्लेख है।" तैतिरीयोपनिषद में ब्रह्म का स्वरूप सत्य के रूप में बतलाया गया है ।" रामायण के अयोध्या काण्ड में सत्य में धर्म को आश्रित माना है, जो सत्य बोलता है वहीं आत्मस्थ होता है, वही परम लोक को प्राप्त करता है सत्यमेवेश्वरो लोके, सत्ये धर्मः सदाश्रितः । सत्यमूलानि सर्वाणि, सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥७ महाभारत के उद्योग पर्व में भी यही लिखा है । स्मृतिकार मनु ने कहा सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥१८ पुराणों में भी सत्य की महिमा का उल्लेख है अश्वमेघसहस्रं च सत्यं च तुलयाधृतम् । अश्वमेघसहस्राद्धि, सत्यमेकं विशिष्यते ॥१९ इस श्लोक से यह प्रतिपादित होता है कि हजारों अश्वमेघ यज्ञ के पुण्य की अपेक्षा सत्य का पुण्य अधिक है। अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में भी सत्य को स्वर्ग का सोपान बतलाया है। बैशेषिक दर्शन में कहा है सत्यं यथार्थ वांगमनसे यथादृष्टं यथानुमिति यथाश्रुत तथा वांगमनश्चेति ।" अर्थात् वाणी और मन का यथार्थ होना, जैसा देखा, सुना, अनुभव किया वैसा ही बंर २१, बंक ३ २८७ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बतलाना सत्य है । पतंजलि ने योगी को सदैव सत्य बोलने के लिए कहा । जैन दर्शन में सत्य को महान् तप माना है इसलिए इसे महाव्रत की कोटि में गिना है। आचारांग में कहा है-सत्य बोलने वाला मेधावी मुनि इस संसार-समुद्र से तिर जाता है। सच्चस्स आणाए उवट्ठिए से मेहावी मारं तरति ।" __ सत्य लोक में सारभूत है इसलिए उसका अनुशीलन कर आत्म तत्व का साक्षात्कार करना चाहिए । बुद्ध ने भी सुत्तपिटक में कहा है-वे मनुष्य धन्य हैं, जो सत्य में रत रहते हैं। ३. अस्तेय महाव्रत-- ___ अस्तेय का मतलब है--किसी दूसरे की वस्तु का अपहरण न करना। पर वस्तु के अपहरण का निषेध किसी न किसी रूप में सभी परम्पराओं में मिलता है। वैदिक परम्परा में चोरी करने का निषेध किया है । मनु ने स्तेय शब्द का उल्लेख किया है और उसका लक्षण बताते हुए कहा है-- 'निरन्वयं भवेत्स्तेयं हृत्वाऽपव्ययते च यत् ॥१ अर्थात् वस्तु स्वामी के परोक्ष में किसी वस्तु का अपहरण कर भाग जाना 'स्तेय' कहलाता है । अस्तेय में 'अ' निषेध वाचक है इसलिए अस्तेय का अर्थ हुआ पर वस्तु का अपहरण नहीं करना। कहीं-कहीं 'अस्तेय' के स्थान पर 'अदत्तादान' शब्द का प्रयोग हुआ है । अगस्त्य सिंह ने अदत्तादान की परिभाषा करते हुए कहा है ---- 'परेहिं परिग्गहितस्स वा अपरिग्गहितस्स वा, अणणुण्णातस्स गहणमदिण्णादाणं ।" __ अर्थात् बिना दिया हुआ लेने की बुद्धि से दूसरे के द्वारा परिगृहीत अथवा अपरिगृहीत तृण, काष्ठ आदि द्रव्य-मात्र का ग्रहण करना अदत्तादान है। साधक के लिए अदत्त वस्तु ग्रहण करने का निषेध है। स्मृतिकार मनु ने यहां तक कहा है कि साधक को चोर के हाथ से वस्तु भी नहीं लेनी चाहिए यदि वह लेता है तो वह भी उसके दण्ड का भागी बनता है इसलिए व्रतधारी, संन्यासी को वस्तु आज्ञा लेकर ग्रहण करनी चाहिए। नहीं तो उसकी संसार में अकीर्ति होती है, पाप कर्मों का बंध होता है । पतंजलि ने लिखा है --'अस्तेय प्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्' -चोरी नहीं करने वाला सर्व रत्नों को प्राप्त करता है अर्थात् आत्मा में प्रतिष्ठित होता है । दशवकालिक में पंच महाव्रतों का उल्लेख है वहां अद्तादान" को तीसरे महाव्रत की कोटि में गिना है। ४. ब्रह्मचर्य महावत: ब्रह्मचर्य शब्द दो शब्दों से निष्पन्न हुआ है। ब्रह्म और चर्य । ब्रह्म शब्द के तीन अर्थ हैं-वीर्य, आत्मा, विद्या और चर्य शब्द के भी तीन अर्थ हैं---रक्षण. रमण, अध्ययन । इस तरह ब्रह्मचर्य के भी तीन अर्थ हुए हैं-वीर्य-रक्षण, आत्म-रमण और विद्याध्ययन। ब्रह्मचर्य शब्द अति प्राचीन है। वैदिक ग्रन्थों में इसका सर्वप्रथम प्रयोग ऋग्वेद २८८ तुलसी प्रज्ञा Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के अन्तिम मण्डल में मिलता है। उस समय आश्रम व्यवस्था थी। आश्रम व्यवस्था का पहला विभाग है-ब्रह्मचर्य आश्रम । ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्यार्थी का जीवन होता था। विद्यार्थी गुरुकुल में निवास कर अध्ययन करते थे। गुरु के पास रहते । गुरु की सेवा करते । उनके परिवार के साथ आत्मीय संबंध रखते और विनम्रता के साथ गुरु से शिक्षा प्राप्त करते । ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करने के लिए उन्हें कई विधि-विधानों से गुजरना पड़ता । और अनेक प्रकार के व्रत, नियम, उपनियमों का पालन करना पड़ता । अथर्ववेद में कहा है ब्रह्मचारी राजा ही राष्ट्र की रक्षा कर सकता है और ब्रह्मचारी आचार्य ही शिष्य को अध्यापन करा सकता है। __ बाद के साहित्य उपनिषद्, ब्राह्मण, पुराणादि में भी ब्रह्मचर्य का उल्लेख है । प्रश्नोपनिषद में कहा है-- ब्रह्मलोक उसी को प्राप्त होता है जो तप, ब्रह्मचर्य, सत्यादि व्रत में निष्ठा रखता है। छान्दोग्योपनिषद में भी ब्रह्मचर्य शब्द मिलता है। गोपथ ब्राह्मण में ब्रह्मचर्य को पवित्र माना है। उससे पुण्य का संग्रह होता है। वैदिक साहित्य में ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए शृंखलाबद्ध नियमों का उल्लेख नहीं मिलता । स्मृतिकार मनु ने लिखा है --ब्रह्मचारी गुरु के समीप रहकर इन्द्रिय को वश में करता हुआ तपस्यादि में तल्लीन रहे ।२६ इसके अतिरिक्त अनेक नियमउपनियमो का उल्लेख है कि ब्रह्मचर्य व्रत महान तप है। व्यक्ति अपने वीर्य का सदुपयोग आत्म-रमण में करे न कि भौतिक क्रीड़ाओं में । बौद्ध साहित्य में भी व्यवस्थित क्रम नहीं मिलता। जैनों ने ब्रह्मचर्य को उत्तम तप माना है। इस व्रत का पालन कर व्यक्ति ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि करता है ।“ आचारांग का अपर नाम 'ब्रह्मचर्य' है। क्योंकि ब्रह्मचर्य का एक अर्थ हैसर्वेन्द्रिय संयम । संयम के बिना साधक लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता । साधक किस प्रकार सर्वेन्द्रिय संयम करे ? और किस प्रकार आत्म-तत्व का साक्षात्कार करे यह सब यहां विवेचित है। इसलिए इसका अपर नाम ब्रह्मचर्य रखा गया। इसीलिये यह परम्परा रही कि प्रारम्भ में साधक अर्थात् शैक्ष मुनि आचारांग का अध्ययन करे । आजकल प्रारम्भ में दसवैकालिक का पाठ कराया जाता है। दशवकालिक के चतुर्थ अध्याय में ब्रह्मचर्य का महाव्रत के रूप में वर्णन किया है।" इस प्रकार ब्रह्मचर्य आत्मा में रमण करने का साधन है। ५. अपरिग्रह महावत : पंच महाव्रतों में अन्तिम महावत है-अपरिग्रह । अपरिग्रह से तात्पर्य है --वस्तुओं का संग्रह नहीं करना और अनासक्त भाव धारण करना । अपरिग्रह परिग्रह का निषेधात्मक रूप है । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो-मूर्छा भाव परिग्रह है।" साधक को वस्तु के प्रति मूर्छा नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि ममत्व संसार भ्रमण का हेतु है। इसलिए ही साधक को अहिंसावादी की तरह अपरिग्रही होना चाहिए। अपरिग्रह महावत के बीज वैदिक और श्रमण-दोनों परम्पराओं में प्रस्फुटित हैं । महाभारत में कहा है-व्यक्ति को उतना ही संग्रह करना चाहिए जितना पेट के बड २१, ३ २८९ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए आवश्यक है । क्योंकि अपरिग्रह से मन की चपलता दूर होती है, भावनाओं का शोधन होता है जिससे सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। स्मृतिकार मनु ने भी संग्रह करने का निषेध किया है एक कालं चरेद् भैक्षं च प्रसज्जेत विस्तरे''।” भगवद् गीता में भी यह उल्लेख मिलता है निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् गीताकार ने एक अन्य स्थान पर लिखा हैत्यक्त्वा कर्मफला सङ्ग' |" शब्द पतंजलि ने भी अपरिग्रह को यम माना है । बुद्ध ने अकिंचनं अनादानं का उल्लेख किया है जो अपरिग्रह का सूचक है ।" जैन दर्शन में भिक्षु वही है, जो अपरिग्रही है । इसलिए वहां भिक्षु को परिग्रह से दूर रहने के लिए कहा हैपरिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा । ५ दसर्वकालिक में पांचवा महाव्रत - परिग्रह विरति के रूप में है । चेतन-अचेतन सभी पदार्थों के प्रति ममत्व भाव दूर होना ही अपरिग्रह है । जैन परम्परा में परिग्रह चार प्रकार से सीमित है । अर्थात् भूख मिटाने को आहार लेना, संकट आने पर सुरक्षा, रोग होने पर औषध और अध्यापक से ज्ञान लेने तक परिग्रह की सीमा है । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट लक्षित होता है कि महाव्रतों का उल्लेख वैदिक और श्रमण दोनों परम्पराओं में है । वैदिक परंपरा में 'व्रत' शब्द है । व्रत और महाव्रत . दोनों के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं प्रतीत होता । इसलिए पंच महाव्रत श्रमणपरम्परा का प्राण तत्व है और वैदिक परम्परा में भी जीवन के महान् आदर्शों के रूप में प्रतिष्ठित है । सन्दर्भ : १. उत्तरज्भयणाणि चूर्णि पृ० १३८ २. तत्त्वार्थ सूत्र ७।१ ३. एभ्यो हिंसादिभ्य एकदेशविरतिरणुव्रतं, सर्वतोविरतिर्महाव्रतमिति । ४. जाति- देश - काल - समयाऽनवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् - पा० योगदर्शन २।३१ २९० ५. मत्स्यपुराण अ० ६,१५ ६. ऋग्वेद १०, १२, १३ ७. तत्राहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्य दयार्जवक्षमाधृतिमिताहारशौचानि चेति यमा दश शाण्डिल्योपनिषद १ ८. महाभारत, आदि पर्व ९. मनुस्मृति ६।६० १०. वही ६।७५ तुलसी शशा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. अहिंसासत्यमस्तेयं, ब्रह्मचर्यापरिग्रही। ___यमा पंचस्मृता विप्र नियमा मुक्तिक्लिदा-अग्निपुराण १२. धम्मपद १९।१५ १३. दशवकालिक ११ १४. ऋग्वेद ८।३१।१३ १५. शतपथ ब्राह्मण २१११४।१० १६. तैतिरीयोपनिषद २।२ १७. रामायण अयोध्याकाण्ड ११०।१३ १८. मनुस्मृति ४११३८ १९. शिवपुराण उ. सं. १२,१५ २०. वैशेषिक दर्शन २१. आचारांग ३।६६ २२. मनुस्मृति ८।३३२ २३ दस. अ. चूणि २४. दशवकालिक ४।१३ २५. ऋग्वेद १०।१०९।५ २६. मनुस्मृति २।१७५ २७. प्रश्न व्याकरण २।४ २८. वही २१४ २९. दशवकालिक ४।१४ ३०. वही ६२ ३१. मनुस्मृति ६१५५ ३२. भगवद्गीता ४१२१ ३३. वही ४।२० ३४. धम्मपद १८।१७ ३५. आचारांग २।११७ --शिक्षा केन्द्र, गोतम ज्ञानशाला, लाडनूं खण्ड २१, अंक ३ २९१ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकीर्णकम् १. 'वर्णमाला' में जैनदर्शन २. परम विदुषी मदालसा ३. श्रीमद्भागवदनुस्यूत भक्ति में भारतीय दर्शनों का समन्वय ४. श्रीमद्भागवतीय आख्यानों का विवेचन-(२) ५. संगीत संबंधी एक पद Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्ड २१, अंक ३ ||ॐ नमः सिद्धं । श्रईईनमा एऐनअ अं अः क खगघङाच्न जफत्राटम्मदशतिथ दा धनापफबसमा यलवाना सहालका क का कि। की कु कू के कै को कौ कं कां कः ||२३४५६ ए। श्रीप्रश्न माम्नाय ज्ञ बुलसी प्रज्ञा तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य श्रीकालूगणी की हस्तलिपि ( तेरापंथ धर्मसंघ के साहित्य भंडार के सौजन्य से मुनिश्री मधुकरजी द्वारा प्राप्त ) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णमाला में जैनदर्शन मुनि श्रीचंद्र 'कमल' प्राचीनकाल में गुरु परंपरा चलती थी । गुरु अपने स्थान पर बालकों को पढ़ाते थे। उस समय महाजनी विद्या पढ़ायी जाती थी। प्रमुख रूप से पढ़ना व लिखना सिखाया जाता था। एक से सौ तक गिनती व पहाड़े मौखिक याद कराए जाते थे। वस्तुओं के क्रय और विक्रय में ये पहाड़े उपयोगी होते थे। कई बालक तेज होते थे वे उपाडी (गुर या फार्मूला) के माध्यम से प्रश्नों को बहुत जल्दी हल कर देते थे। जैसे कोई वस्तु पांच रुपयों की एक सेर आती है तो १ छंटाक का क्या लगेगा ? इसका गुर था - जितने रुपयों का १ सेर तो एक छंटाक के उतने ही आने लगेंगे। इस प्रकार अनेक फार्मूले निश्चित थे। विवाह के लिए संबंध निश्चित करने से पूर्व लड़के की परीक्षा ली जाती थी। उसे महाजनी के हिसाब पूछे जाते थे, अक्षर लिखाये जाते थे और पत्र पढ़ाया जाता था। इन बातों में जो पास हो जाता उसे लड़की देने में संकोच नहीं होता था। वे जानते थे कि जो इतना जानता है वह कमाकर अपने घर को चला लेगा। योग्यता का माप दंड उस समय इतना सा ही था। इसलिए मोडिया लिपि में पत्र पढ़ना और लिखना तथा अक्षरों को जमाना (सुडौल करना) आवश्यक था। लड़के जमीन पर रेत बिछाकर और लकड़ी की तख्ती पर कलम से अक्षरों को सुंदर लिखने का अभ्यास किया करते थे। मैंने भी ५५ वर्ष पूर्व इस पद्धति का प्रयोग किया था। तेरापंथ धर्मसंघ में साधु भी अक्षरों को जमाते थे। एक गते पर सुंदर अक्षर एक साधु द्वारा लिखा जाता था। उस पर वारनिश कर देते थे जिससे अक्षर मिटते नहीं थे । उस पर कागज रख कर साधु अक्षर जमाते थे। तीन चार दशकों से यह परंपरा छूट सी रही है फिर भी उसकी प्रतिलिपियां आज भी तेरापंथ साहित्य भंडार में सुरक्षित है । मुनि श्री मधुकरजी स्वामी ने एक प्रति मुझे दी है । - आजकल विद्यार्थियों को वर्णमाला चित्र दिखाकर याद कराते हैं। क का कबूतर, ख का खरगोश, ग का गदहा, घ का घट चित्र होता है। गुरु परंपरा में वर्णमाला सीखाने के लिए वस्तुओं के नाम थे। जैसे क के लिए कको कोटको, ख के लिए खखो खाजुलो, ग के लिए गगा गौरी गाय, घ के लिए घघा घाट पिलाण्यो जाय ये निश्चित थे । समय-समय की अपनी पहचान होती है। प्रस्तुत कृति वर्णमाला को याद कराने की प्राचीन पद्धति पर आधारित है। खण्ड २१, बंक ३ २९५ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति और उसकी विशेषता प्रस्तुत कृति के रचयिता अज्ञात हैं। संभवतः जैन मुनि या जनयति या जैन विद्वान होना चाहिए । विषय के प्रतिपाद्य से स्पस्ट ज्ञात होता है। इसमें दो खड़ी पाई (1) से लेकर ज्ञ वर्ण तक के सारे वर्णों का आलम्बन लेकर जैन दर्शन का प्रतिपादन किया गया है । अ और आ, इ और ई उ और ऊ, ऋ और ऋ, ए और ऐ, ओ और औ, अं और अ: का एक साथ विवेचन है। यह कृति हस्तलिखित पत्र के दोनों ओर लिखी हुई है। प्रतिलिपिकार तेरापंथ संघ के मुनि श्री फूलचंदजी स्वामी है। उन्होंने विक्रम संवत् १९९० वैशाख कृष्णा ११ को जयपुर में प्रतिलिपि पूर्ण की थी। इसकी मूल भाषा राजस्थानी मिश्रित गुजराती है। जो कई शताब्दि पूर्व प्रचलित वर्णमाला का प्रारूप है। विवेचन में जैन दर्शन का संक्षिप्त प्रतिपादन है । जिसे एक रूपक द्वारा प्रस्तुत किया गया है । संसारी जीवों को एक गहरे रूप में स्वीकार कर उनको सिद्धक्षेत्र तक की यात्रा कराई है। कुएं में रहने वालों की दशा, कुएं से निकलने वालों की स्थिति, जैसे--कुएं से निकलने का प्रयास करता करता ऊपर चढ़ कर फिसलन से वह वापस कुएं में गिर जाता है । जो साहस कर कुएं से निकलता है उसे मार्ग में विषम घाटी को पार करना होता है। सिद्धनगर से पहले प्रधान (दीवान) के घर में ठहरता है, और वहां उसकी सेवा करता है। जिससे वह प्रसन्न होकर अपनी लड़की की शादी उससे कर देता है, सिद्धनगर जाने के लिए दो गाड़ी का सहयोग देता है, जोतने के लिए दो बैल देता है, मार्ग में यात्रा के लिए शिक्षा देता है, अंत में सिद्धनगर पहुंचा देता है। इस प्रकार कुएं से सिद्धनगर तक की यात्रा का रूपक के रूप में वर्णन है। कृतिकार ने रूपक में जैन दर्शन का सम्यक् प्रतिपादन किया है। विद्वान् लेखक ने वर्णमाला में जिस प्रकार जैन दर्शन को उंडेला है वह उसके वैदूष्य का परिचायक है। कृति रोचक है, पाठकों को जैन दर्शन का बोध दे सकती है। वर्णमाला और प्रतिपादन मूल । ॐ नमः - भगवंत श्री महावीर लेसाले बेठा देखी ने इंद्र वामण नो रुप करी आवी ने श्री वीर प्रभु ने नमस्कार करी सर्वलोक ने चिमतकार उपजावा ने निमित भले ना अर्थ पूछ्या। श्री वीर प्रभु कहे छे-.. हिंदी-भगवान् श्री महावीर को पाठशाला में बैठे हुए देख कर इंद्र ब्राह्मण का रूप बनाकर पाठशाला में आया। महावीर प्रभु को नमस्कार किया। सब । जनता को चमत्कार पैदा करने के लिए प्रश्न पूछे । भगवान् ने उत्तर दिया मूल –बे लीटी ते स्यूं । जीव नी बे राशि सिद्ध ते अकर्मी संसारी कर्मी ॥१॥ हिंदी-दो खडी लकीर का अर्थ क्या है ? भगवान् ने उत्तर दिया-जीव की दो राशि है --- (१) सिद्ध (२) संसारी। सिद्ध कर्मों से मुक्त होते हैं और संसारी कर्मों तुलसी प्रज्ञा २९६ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से सहित होते हैं। प्रतिपाद्य-कर्म की अपेक्षा से जीवों के दो विभाग किए गए हैं। संसारी जीव कर्म सहित होते हैं । जैन धर्म का अंतिम लक्ष्य है कर्मो से मुक्त होकर सिद्ध गति को प्राप्त करना । जब कर्म मल दूर हो जाता है तब जीव संसार के भ्रमण से कर्म मुक्त होकर सिद्ध हो जाता है। ८ मूल-भले ते स्यूं । सिद्ध नी रासि माहे भलवा नी इच्छा राख ॥२॥ हिंदी-८ की संख्या का क्या अर्थ है ? सिद्ध की राशि में मिलने की इच्छा रखो । प्रतिपाद्य-संसारी जीव ८ कर्मों सहित होते हैं। ज्ञान दर्शन, चारित्र और तप की आराधना से ८ कर्मों का क्षय कर आत्मा अपने स्वरूप में अवस्थित होता है । सिद्ध अवस्था को प्राप्त होता है। __ • मूल-मीड़ संसार रुप गोल उंडो कूवो छे ते माही निकलसी तो सिद्धा माही भलसी ॥३॥ हिन्दी-बिन्दु का अर्थ क्या है ? संसार गोल गहरा एक कुंआ है। उसमें से निकलेगा तो सिद्धों में मिल जाएगा। प्रतिपाद्य -- गुणस्थान १४ होते हैं। पहला गुणस्थान मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है और १४वां गुणस्थान अयोगी केवली गुणस्थान होता है । १४वें गुणस्थान के बाद जीव सिद्ध गति को प्राप्त होता है। मिथ्यात्वी दो प्रकार का होता है-अभवी और भवी । अभवी कभी मुक्त नहीं होता। भवी मुक्त होता है। भवी मिथ्यात्वी से सम्यक्त्वी बनता है, फिर क्रमशः अविरत सम्यक् दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त संयत, अप्रमत्त संयत, वीतराग केवली, अयोगी केवली, सिद्ध बनता है। ॥-बीलाडी मूल -- जीम कूप माही वस्तु पडी होवे तो लोहे नी बीलाडी थी काढे तिम इहा संसारी जीवन ने संसार रुप कूप माही थी काढवा नी बीलाडी । एकदेसव्रत बीजा सर्वव्रत ॥४॥ हिन्दी--जिस प्रकार कुंए में कोई वस्तु गिर गई हो तो उसे लोहे की बिल्ली से निकाला जाता है वैसे ही इस संसार में से जीव को निकालने के लिए देशव्रत और महाव्रत बिल्ली है। प्रतिपाद्य-सम्यक् चारित्र के दो भेद हैं --- देशविरत और सर्वविरत । सम्यक् दष्टि से असंख्य गुण अधिक निर्जरा देश विरत के होती है। देशविरत से असंख्य गुण अधिक निर्जरा सर्वविरत के होती है। ॐ-उगण चोटीयो माथे पोतीयो मूल-सिद्धा ना जीव कीहा रहे ते कहे छ। चवदे राज लोक ना तीन भाग करता एक तो नीचे लोक मध्य लोक उर्धलोक ने चोट ली थानके इसीप्रभाप्रवथी खण्ड २१, अंक ३ २९७ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरे एक जोजन ने २४ मे भागे अलोक सू अड रह्या छे ॥५॥ हिन्दी - सिद्धों जीव कहां रहते हैं वह कह रहे हैं। चौदह रज्जू वाले लोक के तीन भाग हैं- (१) नीचा लोक (२) मध्य लोक (३) ऊर्ध्व लोक । ऊर्ध्व लोक के चोटी के स्थान पर ईषत्प्रागभारा पृथ्वी है । २४ योजन ऊपर वे अलोक से स्पर्श कर रहे हैं । प्रतिपाद्य - संसार का आकार मनुष्य के दोनों हाथ फैलाये हुए शरीर के आकार के समान है । इसलिए लोक (संसार) का एक अर्थ शरीर भी है । लोक १४ रज्जू का है उसके तीन भाग हैं - अधोलोक, मध्यलोक और ऊर्ध्वलोक । अधोलोक ७ रज्जू से कुछ अधिक है, मध्यलोक १८०० योजन का है । ऊर्ध्वलोक ७ रज्जू से कुछ कम है । ऊर्ध्वलोक के ऊपरी भाग में सर्वार्थसिद्ध देवों के विमान है । उन विमानों से १२ योजन ऊपर ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी है, जिसे सिद्ध शिला कहते हैं, वह ४५ लाख योजन लंबी चौडी है, मध्य में आठ योजन ऊंची है। ऊंचाई पर अंतिम छोर मक्षिका की पांख से भी पतली है १३ अंगुल से अधिक है । सिद्धशिला के अंतिम ऊपरी भाग के रे४ योजन में सिद्ध रहते हैं । रहे हैं । वे सिद्ध अलोक से स्पर्श कर न-ननोयो वींटलो मगन हो रह्यो छे नीचगति पामसी ॥६॥ हिन्दी-रे जीव ! तू संसार के कामभोग में मग्न हो रहा है इसलिए नीच (अधो) गति प्राप्त करेगा । प्रतिपाद्य - काम भोग सेवन से जीव अधोगति - नरकगति या तियंचगति में जाता है । ममो माउलो मामा हाथे वे लाडूडा मः मूल-रेजीव तू संसार ना कामभोग मूल-संसार छे ते जीव नो अनादि घर छे तिहा मो नामा माउलो मोसालिय काम भोग रूपीया बे हाथ में लाडू देइ भोलाइ राखीयो । संसार मां थी नीकलवा दे नही ॥७॥ हिन्दी - संसार जीव का अनादि काल से घर है। वहां मामा और नानेरा काम और भोग रूपी दो लड्डू हाथ में देकर भुलाकर रखा है । संसार में से निकलने नहीं देता । प्रतिपाद्य- - काम का अर्थ कामना (पांच इन्द्रियों के विषय, भोग का अर्थ है उनका भोग करना । काम और भोग के वश फंसा हुआ है । वहां से निकलना बहुत दुष्कर है । सि - सिसी राणी चोकडी पाछी वाल कुंडावली मूल - सिध रुप राणी ने मंदर चढ़ता कषाय नी चोकडी रुप चोक राखी छे । तुलसी प्रज्ञा २९८ धन, वासना आदि ) होकर जीव संसार में Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते चोकी ने ढेली ने कदापी कोइ जीव उचो चढे तो पिण तेहने ११ मा पावडिया थी पाछो संसार रुप कुंप मा नाखे छे ।।८।। हिन्दी --सिद्ध रूप रानी को मंदर पर्वत पर चढते समय कषाय चतुष्क रोक रखा है। यदि कोई जीव चोकडी (कषाय चतुष्क) को ढकेल कर आगे चढ़ता है तो मोह ११वीं सीढी से वापस संसार कूप में गिरा देता है। प्रतिपाद्य ---क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय हैं । कषाय १०वें गुणस्थान तक रहता है । आठवें गुणस्थान से जीव दो श्रेणियों में से एक श्रेणी लेता हआ आगे बढ़ता है । क्षपकश्रेणी लेने वाला जीव १०वें गुणस्थान को पार कर ११वें को उल्लंघन कर १२वें गुणस्थान में चला जाता है। उपशमश्रेणी लेने वाला जीव १०३ गुणस्थान को पार कर ११वें गुणस्थान में जाता है । वहां से वह गिरता है। ११वें गुणस्थान से १०वें, ९वें, वें, ७वें गुणस्थान तक आने में उसे अन्तर्मुहूर्त लगता है। वहां से वह छठे गुणस्थान में आता है। कोई जीव छठे में, पांचवें में, चौथे में और कोई जीव पहले गुणस्थान में भी आ जाता है। मिथ्यात्व से आगे विकास करता हुआ ११वें गुणस्थान तक पहुंचकर वापस पहले गुणस्थान में आ जाता है। वापस संसार रूपी कुंए में गिर जाता है। धं---धाउ२ क्षोकलो माथे चढियो छोकरो, हाथ मे डांगडी मूल-रे जीव तू संसार मां ध्याइ ध्याइ ने गर्भावास मां पडीस तिहां तुं ढोकली नी परे सीजसी । ते वली छोकरा छोकरी वीटव नामा पडिस तो हिवे जो तूं धर्मनामा चक्रवती ना सिद्ध नगर मां जावो बांचे छ तो प्रथम तो समत्क नामे महामंत्री प्रधान छ तेह थी पहेली मीलजे तो तुज ने धर्म म्हाराज मीलस्ये। तो समकत ने घर जाता विच मे गाटी विषम छे ते माहे चोर लुटा लुट करहया छे तो हाथ में डांगडी रुप कथा वारता प्रवरतीकरण, अपुर्वकरण सुभ परीणाम रुप महामुदगर हाथ में लेइ जे ।।९।। हिन्दी - रे जीव तू संसार में दौड़-दौड़ कर गर्भावास में जाएगा। वहां त ढोकली की तरह संतप्त होगा। बच्चे बच्चियों के वींटव (लपेट) में पड़ जाएगा। यदि तू धर्म चक्रवर्ती के सिद्धनगर में जाने की कामना करता है तो पहले सम्यक्त्व महामंत्री से मिलना । वह वहां प्रमुख प्रधान है। उनसे संपर्क करने से वह तुमको धर्म महाराज से मिला देगा । सम्यक्त्व के घर की ओर जाते समय बीच में विषम घाटी है। उसमें चोर और लुटेरे रहते हैं। इसलिए हाथ में लाठी और मुदगर रखना। लाठी है-कथा वार्ता रूप प्रवृत्तिकरण, और मुद्गर है - शुभ परिणाम रूप अपूर्वकरण । प्रतिपाद्य-संसार में जीव बार-बार जन्ममरण करता रहता है। वहां वह परिवार के मोह में फंसकर दुखी हो जाता है। यदि कोई जीव दुख से मुक्ति चाहता है तो पहले वह मिथ्यादृष्टि से सम्यक्दृष्टि बनता है। अनादि अनंत संसार में परिभ्रमण करने वाले प्राणी के 'गिरिसरित् ग्राव घोलणा' न्याय के अनुसार आयुष्य वजित खण् २१, अंक ३ २९९ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात कर्मों की स्थिति कुछ कम एक कोडाकोड सागर परिमित होती है तब वह जिस परिणाम से दुर्भेद्य राग द्वेषात्मक ग्रंथि के पास पहुंचता है उसे यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं । यह करण भव्य एवं अभव्य दोनों के अनेक बार होता है । आत्मा जिस पूर्व अप्राप्त परिणाम से उस रागद्वेषात्मक ग्रंथि को तोड़ने की चेष्टा करती है उसे अपूर्वकरण कहते हैं । अ, आ - आइडा दो भाइडा बड़ा भाई रे कानो मूल ते राग धेख बे भाइ ने पछाडी ने वेगला करजे । बीजा पण सत प्रकारे प्रकृत रुप चोरटा ने नास कर मिथ्यात घाटी भांगी ग्रंथी भेद करी आइ जाजे । तिहा समकत्रूप महामंत्री पंच रूप करी इहा रहया छे तेहना तूं दर्शन पामीस । पछे त् तेहनी सेवा मे रेता तुज ने योग्यता जाणी ॥१०॥ हिन्दी- -- राग और द्वेष दो भाई हैं । इन दोनों को धराशायी कर अलग कर देना । दूसरी बात सात प्रकार की प्रकृति रूप चोर को नाश कर मिथ्यात्व की घाटी नष्ट कर ग्रंथिभेद करना। वहां सम्यक्त्व महामंत्री पांच रूप में है । तू उसका दर्शन प्राप्त करेगा । उसके बाद उसकी सेवा में रहने से वह तुम्हारी योग्यता को जान लेगा । प्रतिपाद्य - राग और द्वेष के उत्ताप को कषाय कहते हैं । कषाय के चार प्रकार हैं -- क्रोध, मान, माया और लोभ । प्रत्येक के चार-चार भेद हैं-- अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन । अनन्तानुबंधी चतुष्क (अनन्तानुबंधी क्रोध, अनन्तानुबंधीमान, अनन्तानुबंधी माया अनन्तानुबंधी लोभ ) तथा मोहनीयत्रिक ( सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और मिथ्यात्व मोहनीय) इन सात प्रकृतियों के विलय से मिथ्यात्व - विलीन होकर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । सम्यक्त्व के पांच प्रकार हैं- औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक सास्वादन और वेदक ऊपर की सात प्रकृतियों के उपशांत होने से प्राप्त होने वाले सम्यक्त्व को औपशमिक, इनके क्षय से प्राप्त होने वाले सम्यक्त्व को क्षायिक और इनके क्षयोपशम होने से प्राप्त होने वाले सम्यक्त्व को क्षायोपशमिक कहते हैं । औपशमिक सम्यक्त्व से गिरने वाला जीव जब मिथ्यात्व को प्राप्त होता है तब अन्तरालकाल में जो सम्यक्त्व होता है उसे सास्वादन क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है समय में) उसकी प्रकृति ( सम्यक्त्व रहता है, अतः उसे वेदक सम्यक्त्व । सम्यक्त्व कहते हैं । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से उस समय ( क्षायोपशमिक सम्यक्त्व के अंतिम मोहनीय) का प्रदेशोदय के रूप अनुभव होता कहते हैं । इ ई - इक इडी एकली बीजी इडी इकारो छं तुज मूल-धर्म चक्रवरती नी बे पुत्री छे एक लघु देसवृत बीजा सर्वव्रती ए ने परणावस्ये पिण समकत मीत्री नी सेवा एक चित से सनमुख रही करस्यो तो मे प्रश्न थाये ॥ ११ ॥ हिन्दी - धर्म चक्रवर्ती के दो पुत्रियां हैं एक छोटी देशव्रती और दूसरी सर्वव्रती । हे जीव । यदि सम्यक्त्व मंत्री की सेवा एक चित्त से सन्मुख होकर करेगा तो वह तुलसी प्रशा ३०० Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसन्न होगा । अपनी दोनों लड़कियों की शादी तुम्हारे साथ कर देगा। प्रतिपाद्य-सम्यक्त्व की सम्यक् आराधना से सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन ओर सम्यक् चारित्र की प्राप्ति होती है। सम्यक्त्व के बिना चारित्र की प्राप्ति नहीं होतीनत्थि परितं सम्मत्त विहूणं, सणे उ भइयग्वं । __ --उत्त. २८१२९ सम्यक् चारित्र के दो भेद हैं—देश विरत और सर्व विरत। आंशिक रूप से व्रत की आराधना करने वाला देशविरत और सम्पूर्ण रूप में व्रत की आराधना करने वाला सर्वविरत कहलाता है। देशविरत श्रावक होता है उसमें पंचम गुणस्थान प्राप्त होता है । सर्व विरत साधु होता है उसमें छट्ठा गुणस्थान पाता है। उ, ऊ- आउ आउ अंकोडा बडे अंकोडे फंकोडा मूल --तिहा संका कंषा रुप अंकोडा, फंकोडा मोटा छे । तेहनी संगत करीस तो समकित मंत्री ना चित मे भ्रम पडसी तो दोहरो थास्ये ॥१२॥ हिंदी सम्यक्त्व के घर में शंका कांक्षा रुप अंकोडा (छोटा लंगर) फकोडा (बड़ा लंगर) हैं। यदि उनकी संगति करेगा तो सम्यक्त्व मंत्री के चित्त में भ्रम पैदा होगा और वह अप्रसन्न होगा। प्रतिपाच-सम्यक्त्व के. पांच अतिचार हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, पर पाषण्ड प्रशंसा और परपाषण्ड परिचय । ये दर्शन मोहनीय के दोष हैं शंका-लक्ष्य के प्रति संदेह . कांक्षा- लक्ष्य के विपरीत दृष्टिकोण के प्रति अनुरक्ति विचिकित्सा-लक्ष्यपूर्ति के साधनों के प्रति संशयशीलता परपाषण्ड प्रशंसा-- लक्ष्य के प्रतिकूल चलने वालों की प्रशंसा परपाषण्ड संस्तव -- लक्ष्य के प्रतिकूल चलने वालों का परिचय । ये पांच सम्यक्त्व को दूषित करते हैं। इनके कारण सम्यक्त्व से वापस मिथ्यात्व में आ जाता है । चारित्र मोहनीय के दोषों से बचने के उपाय बता रहे हैं। ऋ-नी ली तोड़ कांटाला वडे कांटो भेले बहे मूल-तिहा वले विषय कषाय रुप अथवा ममता माया रुप मोटा विषय ना वेलडा छ । ते माहे कामभोग रुप सर्प सुता छ तेहनै जगडीस मा। इम करता स्वामी सुप्रष्न थया थका तुज ने सिध नगरी नो साथ आपस्ये ॥१३॥ हिन्दी-विषयकषायरूप अथवा ममतामाया रूप बड़ी विषय की बेले हैं। उसमें काम भोग रूप सर्प सोया हुआ है । उसको जगाना मत । ऐसा करने से स्वामी सुप्रसन्न होगा और वह तुमको सिद्ध नगरी जाने के लिए साथी देगा। प्रतिपाच-कषाय, नोकषाय और वेद-इनके उदय से वीतरागता नहीं आती। मोह विलय नहीं होता। इसके उपशम और क्षय से वीतरागता प्राप्त होती है। खण्ड २१, बंक ३ ३०१ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ए ऐ-एवन बेवन बे गाडी बडी वेगाडी मातरो मूल-सुमत गुप्त बे गाडी वेसाडी ॥१४॥ हिंदी-समिति गुप्ति दो गाड़ियां पर बैठाकर । प्रतिपाद्य-- ईर्या समिति, भाषा समिति, एषणा समिति, आदान भंडपात्र निक्षेपना समिति, उच्चार प्रस्रवण परिष्ठापन समिति, मनगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति इन की सम्यक् साधना करने से चारित्र की विशुद्धि होती है। ओ, औ--- ओलखवा लावली दीया वडे वेगण जोतरीया मूल-ग्यान चारीत्र रुप बे बलद जोतरी आपस्ये ॥१५॥ हिंदी-ज्ञान चारित्र रूप दो बैल उस गाड़ी को जोतने के लिए देगा। प्रतिपाद्य-सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये मोक्ष के साधन हैं । सम्यक् दर्शन के बिना सम्यक् ज्ञान नहीं होता और सम्यक् ज्ञान के बिना सम्यक् चारित्र नहीं होता । ना बंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरण गुणा। -उत्त. २८१३० सम्यक् दर्शन प्राप्त होने के बाद सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की आराधना करनी चाहिए। अं अः-अमीयां बे रासडी एकण उपर एक दे, दुजी आगल दो दे मूल-संवर निर्जरा रूप बे रासडी बांधी ने गाडोली उपर बेटा शिवपूर भणी चालवजो ॥१६॥ हिंदी-संवर, निर्जरा रूप दो रस्सी बांधकर गाड़ी के ऊपर बैठकर शिवपुर के लिए उस गाड़ी को चलाना । प्रतिपाय-संवर और निर्जरा ये दो साधन हैं इनसे मार्ग प्रशस्त होता है, सिद्धगति को प्राप्त किया जा सकता है। पांचवें गुणस्थान से १२वें गुणस्थान तक संवर, चौदहवां गुणस्थान संवर और प्रथम चार गुणस्थान व १३वां गुणस्थान निर्जरा रूप है। क--ककोकेवलियो मूल-केवलि परुप्यो धर्म विना तो सिद्ध गती पहुचो न थी॥१७।। हिंदी-केवलि प्ररूपित धर्म के बिना सिद्ध गति नहीं जाते। प्रतिपाद्य-इणमेव निग्गंणं पावयणं सच्चं अणुत्तरं केवलं परिपुण्णं नेआउयं संसुदं सल्लगत्तणं मुत्तिमग्गं निज्जाणमग्गं निव्वाणमग्गं अवितहमविसंधिसम्वदुक्खप्पहीणमग्गं । यही निर्ग्रन्थ प्रवचन सत्य अनुत्तर अद्वितीय, प्रतिपूर्ण, मोक्ष तक पहुंचाने वाला, संशुद्ध, शल्य को काटने वाला, सिद्धि का मार्ग,मुक्ति का मार्ग, शांति का मार्ग, सत्य, ३०२ तुलसी प्रज्ञा Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविच्छिन्न, समस्त दुखों के क्षय का मार्ग है । ख - खखो खाजुलो मूल -अने तो केवली सिध तो अनहार मारग थी उपजे छे ते माटे । तूं च्यार प्रकार ना आहारमा रस इंद्री नो लोलुपी थाइस मा ॥ १८ ॥ हिंदी और अनाहारक केवली ही सिद्ध होते हैं । तू चार प्रकार के आहार में रस इंद्रिय का लोलुपी मत बनना । प्रतिपाद्य – अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य – ये चार प्रकार के आहार हैं । चौदहवें गुणस्थान का कालमान पांच हस्व अक्षर (अ, इ, उ, ऋ, लृ ) के उच्चारण जितना है । इस गुणस्थान के काल में केवली अनाहारक रहते हैं । केवली चौदहवें गुणस्थान से सिद्ध गति को जाते हैं । अशन रोटी, दाल, खिचड़ी, भात, घी, दूध आदि । पान - पानी, दाख आदि का धोवन आदि पेय पदार्थ । ग स्वाद्य खाद्य -- आम, अंगूर, केला आदि फल | बादाम, काजू, पिस्ता आदि मेवा ! - पान सुपारी, लौंग चूर्णवटी आदि द्रव्य जो भोजन के बाद मुख सुगंधित या स्वच्छता के लिए ग्रहण किये जाते हैं । बाह्य तप के भेद - अनशन - आहार का पूर्ण त्याग । अवमोदरिका-द्रव्य तथा मात्रा का अल्पीकरण | वृत्ति संक्षेप - भिक्षा ग्रहण के लिए अभिग्रहण का ग्रहण । रस परित्याग --- बिगय तथा स्निग्ध भोजन का त्याग । गगा गोरी गाय मूल- -अण आहारीक तपादिक मार्ग तो गुरु बतावे छे ते माटे गुरु नी भक्ती कर । गुरु तो मोटा अणगारी छे । संसार समुद्र तिरवाने बोधबीज धर्म नो आलंबनदिक गुरु आपै छे, ते मार्ट गुरु नो गोरवपणुं करजे । हिंदी -- अनाहार तप आदि का मार्ग गुरु बताते हैं । इसलिए गुरु की भक्ति कर । गुरु तो अनगारी (गृह रहित) होते हैं। संसार समुद्र को तीरने के लिए धर्म का आलंबन देते हैं । इसलिए गुरु का गौरव करना । प्रतिपाद्य - निर्ग्रन्थों को गुरु कहा जाता है । जो अर्हत् के प्रवचन ( शासन ) का अनुगमन करने वाले तथा बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थियों से मुक्त होते हैं, वे निग्रंथ कहलाते हैं । घ- घघा घाट पिलाण्यो जाय मूल -- तूं घर का धंधा आरंभ संभारंभ भारं अहोनिस पिलाण्यो बहे छे ते भार थो गुरु मूकावस्ये ॥ २०॥ हिन्दी - तूं रात दिन घर के धंधे ( काम काज ) में आरंभ और समारंभ कर खण्ड २१, अंक ३ .३०३ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहा है । गुरु तुमको आरंभ और समारंभ के भार से मुक्त कराएंगे । प्रतिपाद्य - आरंभ - वध | - डडीया आमण दुमणो मूल - हिवे गुरु घर नो भार छोडावी ने पंच अणुव्रत पंच महाव्रत रुप अभिग्रहादिक कराव्या ते पालता आमण दुमण भ्रंगचित थाइ पश्चाताप करीस मा ॥२१॥ संरभ -- वध का संकल्प । समारंभ - परिताप । हिंदी - गुरु घर के भार को उतराते हैं। पांच अणुव्रत पांच महाव्रत और अभिग्रह आदि कराते हैं । उनका पालन अच्छी तरह से करना । प्रतिपाद्य - पांच महाव्रत- प्राणातिपात से विरमण, मृषावाद से विरमण, अदत्तादान से विरमण, मैथुन से विरमण, परिग्रह से विरमण । पांच अणुव्रत - स्थूल प्राणातिपात से विरमण, स्थूल मृषावाद से विरमण, स्थूल अदत्तादान से विरमण, स्वदारसंतोष इच्छापरिमाण । अभिग्रह - वृत्ति संख्यान और भिक्षाचर्या इसके पर्यायवाची नाम हैं । भिक्षाचर्या साधु के जीवन का व्रत है परन्तु वह तप वहीं होता है जहां अभिग्रह के द्वारा साधक अपना और अधिक खाद्य संयम करता है । च-चचा चीनी चूंप ए मूल - गुरुदत्त श्रीधर्म पालवानी चित में चूंप राखजे ॥२२॥ हिंदी - गुरु द्वारा प्रदत्त श्री जिनधर्म को पालन करने के लिए चित्त में सजगता, उत्साह रखना । प्रतिपाद्य -जाए सद्धाए निक्खतो, परियाय द्वाण मुत्तमं । तमेव अणुपालेज्जा | -दसर्वकालिक ८।६० जिस श्रद्धा से उत्तम प्रव्रज्या स्थान के लिए घर से निकला है उस श्रद्धा को बनाए रखना । छ - छ छाव दोया पोटलो मूल - छद्मस्त पणे गुरु समीपे श्रुतज्ञान पूर्व विद्या नो पोटलो बांधजे ||२३|| हिंदी - छद्मस्थ अवस्था में गुरु के पास से श्रुत ज्ञान की गांठडी बांधना । प्रतिपाद्य - श्रुतज्ञान के १४ प्रकार ये हैं ३०४ (१) अक्षरश्रुत (२) अनक्षरश्रुत (३) संज्ञिश्रुत (४) असंज्ञिश्रुत (५) सम्यक्श्रुत (८) अनादिश्रुत ( ९ ) सपर्यवसितश्रुत (१०) अपर्यवसितश्रुत (११) गमिकश्रुत (१२) अगमिकश्रुत तुलसी प्रज्ञा Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६) मिथ्याश्रुत (१३) अंग प्रविष्टश्रुत (७) आदिश्रुत (१४) अनंग प्रविष्टश्रुत इन चौदह प्रकार के श्रुत ज्ञान का अध्ययन करना । ज-जजो जसलवाणियो मूल- अंतग तण सल छे । ते टालवा ना वीणज व्यापार करजे ॥२४॥ हिंदी- अन्तरंग तीन शल्य हैं । उनसे दूर रहने का प्रयत्न करना ॥ प्रतिपाद्य- शल्य तीन हैं(१) माया शल्य-माया करना। (२) निदान शल्य-भौतिक सुख-सुविधा के लिए संकल्प करना। (३) मिथ्यादर्शन शल्य-तत्त्व के प्रति विपरीत श्रद्धान करना । झ-झझा जारी सारिखो मूल-जारी सरीखो स्वभाव राखीजे । जीम ज्जारी नो मूंडो संकडो हुवे पेटे पोहली हुवे तिम पेट मोटो राखजे । कोइ ना मर्म दोष प्रकाशजे मा ॥२५॥ हिंदी-तू मारी के समान स्वभाव रखना। जिस प्रकार झारी का मुंह संकीर्ण होता है और पेट चौड़ा होता है, उसी प्रकार पेट विशाल रखना । किसी का मर्म दोष प्रकाशित मत करना। प्रतिपाद्य-सत्य महाव्रत के ५ अतिचार है(१) किसी पर झूठा आरोप लगाना । (२) रहस्य की बात प्रकट करना। (३) स्त्री पुरुष का मर्म प्रकाशित करना। (४) मृषा उपदेश देना। (५) झूठा लेख लिखना। आ-आजीयां खांडो चांवलो मूल-अर्द्ध चंद्रमा आकारे सिद्ध सला थानक छे ते जावा नो साधन करजे ॥२६॥ हिंदी-अर्द्धचंद्र के आकार वाला सिद्धशिला का स्थान है। वहां जाने का साधन करना। प्रतिपाद्य-सिद्धशिला लंबाई और चौड़ाई में ४५ लाख योजन बीच में आठ योजन है, अंतिम छोर पर मक्खी की पांख से पतली है। उसकी परिधि १४२३०२४९ योजन १ गउ १७ धनुष्य ६ हाथ १३ अंगुल से अधिक है। उज्ज्वल शंख, अंक रत्न, मचकुंद, दूध के झाग, चांदी के पट, चंद्रमा की किरण, दही के मढें से अधिक उज्ज्वल है । अर्धचंद्राकार है ।। ट-टटा पोली खांडेव मूल ---वली तू पोता नू व्रत नियम अडिग आखड़ी गुरु समीपे लीधी ते खाहीस मा । पचखाण नी पोल ना वारणा दृढ़ राखजे ॥२७।। संर २१, अंक ३ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी ... गुरु के पास में जो स्वयं के लिए आखड़ी (प्रतिज्ञा) ली है उस व्रत नियम को दृढ़ता से पालना। उनको खंडित मत करना । प्रत्याख्यान रूपी पोल (दरवाजे) को दृढ़ रखना । प्रतपाद्य -- अतिक्रम-दोष सेवन के लिए मानसिक संकल्प किया हो। व्यक्तिक्रम --- दोष सेवन के लिए प्रस्थान किया हो। अतिचार-दोष सेवन के लिए तत्परता की हो, सामग्री जुटा ली हो। अनाचार-दोष का सेवन किया हो। प्रत्याख्यान भंग न हो इसलिए ऊपर वर्णित चारों से दूर रहे। ठ-ठठा ठेवर गाडूओ मूल-वली तू भागा घडा नी परे थाइस मा। गुरुदत्त सुती सिख्या हिरदे रूप घट ने वीषे संग्र कर राखजे ।।२७।। हिंदी-तू फूटे घड़े की तरह मत होना। गुरु द्वारा दी गई शिक्षा को सुनकर हृदय रूपी घट में संग्रह कर राखना । प्रतिपाद्य-- कुंभ चार प्रकार के होते हैं(१) भिन्न----फूटा हुआ। (२) जर्जरित-पुराना। (३) परिश्रावी- झरने वाले । (४) अपरिश्रावी-नहीं झरने वाले । प्रथम प्रकार का कुंभ न होकर चतुर्थ प्रकार का कुंभ होना । ड-उडा डांमर गांटे ए मूल-तूं वार्य आडवर कर कर्मी नी गांठ वाधीस मा ।।२८॥ हिंदी--तू वार्य (परिहार्य प्रवृत्ति) कर कर्मों की गांठ मत बांधना । प्रतिपाद्य--अनर्थ दंड हिंसा का त्याग करना। वह चार प्रकार का है(१) अपध्यान चरित- आर्त, रौद्र ध्यान की वृद्धि करने वाला आचरण । (२) प्रमादाचरित ---प्रमाद की वृद्धि करने वाला आचरण । (३) हिंस्र प्रदान - हिंसाकारी अस्त्र-शस्त्र देना । (४) पापकर्मोपदेश -... हत्या, चोरी, डाका, द्यूत आदि का प्रशिक्षण देना । ढ --- ढढा सुणो पूछ लो मूल-तू स्वान ना पूछ नी परे वक्र स्वभाव राखिस मा। सरल स्वभाव राखजे ॥२९॥ ___ हिंदी--तू कुत्ते की पूंछ की तरह वक्र स्वभाव मत रखना। सरल स्वभाव रखना। प्रतिपाद्य --पुरुष चार प्रकार के होते हैं(१) ऋजु ऋजु-कुछ पुरुष शरीर की चेष्टा से भी ऋजु होते हैं और प्रकृति __ से भी ऋजु होते हैं। ३०६ • तुलसी प्रज्ञा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) ऋजु-वक्र -कुछ पुरुष शरीर की चेष्टा से ऋजु होते हैं किन्तु प्रकृति से वक्र होते हैं। (३) वक्र-ऋजु कुछ पुरुष शरीर की चेष्टा से वक्र होते हैं किन्तु प्रकृति से ऋजु होते हैं। (४) वक्र चक्र-कुछ पुरुष शरीर की चेष्टा से भी वक्र होते हैं और प्रकृति से भी वक्र होते हैं। यहां प्रथम प्रकार के पुरुष होना कहा गया है । ण-राणा ताण सेलए मूल-जो तूं मोह रूप राणा थी झूझ करता दर्शन ने चारीत्र तथा त्रिण गुप्ति रुप सेल हाथ मे राखजे ॥३०॥ हिंदी-यदि तू मोह रूप राजा से युद्ध करे तो दर्शन और चारित्र तथा तीन गुप्ति रूप भाला हाथ में रखना। प्रतिपाद्य- सम्यक्त्व, चारित्र और तीन गुप्ति की सम्यक् आराधना करना । जो जीव मोह पर विजय प्राप्त करना चाहता है उसे सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र और तीन गुप्ति की आराधना करनी होती है। इनकी आराधना से ही मोह को नष्ट किया जाता है। त-ततो तावे तेलए मूल-तूं तप जप करतो कोइ ना आक्रोस वचन साभली तपत तेल नी परे तातो थाइस मा ॥३१॥ हिंदी-तू तप और जाप करता हुआ आक्रोश वचन सुनकर तपे हुए तेल की तरह गरम (उत्तेजित) मत होना ॥३१॥ प्रतिपाद्य-तप और जाप से ऊर्जा शक्ति का विकास होता है। यदि उसका ऊर्वीकरण न हो तो स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है और आवेश के प्रसंग आते रहते थ-थया बेरख बहली मूल - कदापी ताहरो मन वसी न थाय तो पिण वचन काया दोय तो थिर थाप करने राखजे ॥३२॥ हिंदी-कभी तुम्हारा मन वश में न रहे तो वचन और काया ये दो योग तो स्थिर रखना। . प्रतिपाय-तीन करण-मनः करण, वचन करण, काय करण तीन योग-मनो योग, वचन योग, काय योग सामायिक में मनःकरण को छोड़कर वचन करण, काय करण और तीन योग का त्याग होता है। म २१, अंक ३ ३०७ . Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द--ददा या दीवटो मूल - दर्शन समकित रूप दीवो हिरदे रुप घर मे करी राखजे । बली दया दान री अभिलाख धरजे ||३३|| हिंदी - दर्शन सम्यक्त्व रूप दीपक हृदयरूपी घर में जला कर रखना और दया दान की अभिलाषा रखना । प्रतिपाद्य सम्यक्त्व के ५ प्रकार हैं । पीछे अ, आ वर्ण में वर्णित है । दान - 'संयमोपवर्धकं निरवद्यम् ।' जिस दान से अपना या पर का संयम पुष्ट होता है उसे निरवद्य दान कहते हैं । ( जैन सिद्धांत दीपिका ९ । १७ ) वया -'पापाचरणादात्मरक्षा दया ।' पापमय आचरणों से अपनी या दूसरे की आत्मा को बचाना दया है । ( जैन सिद्धांतदीपिका ९1१ ) सम्यक्त्व की अराधना, पाप के आचरण से आत्मा की रक्षा और दूसरों के आत्म विकास में सहयोग की इच्छा मोक्ष की आराधना में बहुत सहायक होती है । ध-धधोयो धानरो मूल - तू धन कमावा नो परीग्रह मेलवा नो ध्यान राखीस मा । केवल एक धर्म नां ध्यान हिया मां राखजे ||३४|| हिंदी - तू धन अर्जन करना और परिग्रह संग्रह करना इनका ध्यान मत रखना । केवल एक धर्म का ध्यान ही हृदय में रखना । प्रतिपाद्य - परिग्रह के पांच प्रकार हैं ३०८ (१) क्षेत्र वास्तु (घर) (२) सोना, चांदी रत्न आदि (३) धन, धान्य (४) पशु, पक्षी आदि (५) कुप्य - तांबा, पीतल आदि धातु तथा अन्य गृह सामग्री यान, वाहन आदि । इनके संग्रह में ही ध्यान मत रखना । धर्म ध्यान करना । न-ननीयो पोलाइडो मूल - नास्तिकमत अंगीकार करी ने हिया माहि थी समकितमा पोल राचीस - मा । हिंदी - नास्तिक की मान्यता स्वीकार कर हृदय में थोथापन मत रखना । प्रतिपाद्य नास्तिक की मान्यता णत्थि ण णिच्चो ण कुणइ कयं ण वेएइ णत्थि णिव्वाणं णत्थि य मोक्खोवाओ छम्मितस्स ठाणाई || ५४ ॥ आत्मा नहीं है, वह नित्य नहीं है, वह कुछ करता नहीं है । वह किये कर्म का तुलसी प्रज्ञा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुभव नहीं करता, उसका निर्वाण नहीं है और मोक्ष का उपाय नहीं है, ये छः मत मिथ्याज्ञान के स्थान हैं। (सन्मति तक ५४) प–पपा पोलीपाटेके मूल-पाप आवा नी पोल ते पच इंद्री ना आश्वदुवार ते संवर रुप कपाटे दृढ़करी राखीजे । पोल राखीस मा । जिम अठारे पाप स्थानक ना भाव प्रवेश करी सके नहीं ॥३६॥ हिंदी-पाप आने के द्वार पांच इंद्रियों के आश्रवद्वार हैं। संवर रूप किंवाड को दृढ़ता से बंद करना उसमें खाली स्थान मत रखना जिससे १८ पाप के विचार प्रवेश न कर सके। प्रतिपाद्य-पांच इंद्रिय आश्रव हैं(१) श्रोत्रेन्द्रिय प्रवृत्ति आश्रव (२) चक्षुरिन्द्रिय प्रवृत्ति आश्रव (३) घ्राणेन्द्रिय प्रवृत्ति आश्रव (४) रसनेन्द्रिय प्रवृत्ति आश्रव (५) स्पर्शनेन्द्रिय प्रवृत्ति आश्रव । पांच इन्द्रिय संवर हैं(१) श्रोत्रेन्द्रिय निग्रह संवर (२) चक्षुरिन्द्रिय निग्रह संवर (३) घ्राणेन्द्रिय निग्रह संवर (४) रसनेन्द्रिय निग्रह संवर (५) स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह संवर। अठारहपाप-प्राणातिपातपाप, मृषावादपाप, अदत्तादानपाप, मैथुनपाप, परिग्रहपाप, क्रोधपाप, मानपाप, मायापाप, लोभपाप, रागपाप, द्वेषपाप, कलहपाप, अभ्याख्यानपाप, पैशुन्यपाप, पर-परिवादपाप, रतिअरतिपाप, मायामृषापाप, मिथ्यादर्शन शल्यपाप । फ-फफा फोगट फगडे जो मूल- फोगट फसीया असुध अवनीत अणाचारी ना संग करीस मा ॥३७॥ + हिंदी --- मुफ्तखोर, फसिया (शिथिलाचारी) अशुद्ध , अविनीत, अनाचारी की : संगति मत करना। प्रतिपाद्य सम्यक्त्व की सुरक्षा के लिए सत्संग का बहुत बड़ा महत्त्व है। इसलिए साधक को सावधान किया गया है कि ऐसे व्यक्ति का संग न किया जाए जो सम्यक्त्व में बाधक हो । ब- बबारी मांही चांदणो मूल-बोध बीज ना वधारो कर ने जिम बोध बीज वधतो जास्ये तिम तिम ड २१, अंक ३ ३.९ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरदे ने विषे ग्यान रुप चांदणो थास्ये ॥३८॥! हिंदी-ज्ञानबीज की वृद्धि करना । जैसे-जैसे ज्ञान का बीज बढ़ता जाएगा वैसेवैसे हृदय में ज्ञान का प्रकाश होगा । प्रतिपाद्य-ध्यान के द्वारा आत्मबोध जितना बढ़ेगा उतना ही आत्मज्ञान का प्रकाश बढ़ेगा। भ-भमो भारी भेसको मूल - जिम भैस सुको नीलो चारो भक्षण करी पेट भारी थाय तिम तू पिण अभक्ष पामी ने खायस मा । देवादीक नो चलायो चालीस मा। अरण श्रावक नी परे दृढ़ राखजे। तथा वली प्रतादीक नीरमल पालता मन मा मोटो मान धरीस मा ।।३९॥ हिंदी -- जिस प्रकार भैस सूखो नीलो (हरो) चारो (घास) खाकर पेट भरती है वैसे तू अभक्ष्य मिलने पर खाना मत । देव आदि के द्वारा चलित करने पर चलित मत होना । अरण्य श्रावक की तरह दृढ़ रहना । व्रतों का निर्मलता से पालन करना । मन में अहंकार मत लाना। प्रतिपाद्य - मांस, मदिरा आदि अभक्ष्य पदार्थ का सेवन मत करना । अर्हन्नक श्रावक धर्मनिष्ठ था। वह व्यापार के लिए जलपोत द्वारा समुद्र यात्रा कर रहा था। जब उसका पोत समुद्र के बीच में पहुंचा तब एक देव सामने उपस्थित हुआ। अर्हन्नक से कहा- तुम धर्म छोड़ दो अन्यथा मैं तुम्हारा पोत समुद्र में डूबा दूंगा। अहलक ने कहा- मैं धर्म नहीं छोड़ सकता । देव की क्रूर चेतावनी से दूसरे सारे यात्री घबरा गए और कहा- हम सब धर्म छोड़ते हैं। हमें बचाओ। फिर भी देव ने स्वीकार नहीं किया। सबने मिलकर अर्हन्नक पर दबाव डाला कि तुम छोड़ दो सबके प्राण बच जाएंगे । अर्हन्नक ने कहा- मैं एक क्षण भी धर्म नहीं छोड़ सकता। देव कुपित हो पोत को आकाश में उठा लिया और बोला-अर्हन्नक अब भी छोड़ दो अन्यथा सब मारे जाओगे। अन्नक विचलित नहीं हुआ। देव की परीक्षा में अर्हन्नक उत्तीर्ण हआ । पोत को समुद्र के तट पर लगा दिया। मुक्त भाव से अर्हन्नक की धर्म निष्ठा की प्रशंसा की । म-ममीया भाट चुले तरो मूल -- जिम चूला नी भार धिगती रहे तिम तूं कोइ आक्रोस अणसहा मर्म वेधाला वचन सांभली अंतरंगम हियामां क्रोधाय मां भटीस मा ॥४०॥ हिंदी ----जिस प्रकार चूल्हे की अग्नि जलती रहती है वैसे तू आक्रोश, असह्य, मर्म भेदी वचन सनकर अन्तरहृदय में क्रोध से मत जलना। प्रतिपाद्य-क्रोध नवमें गुणस्थान तक रहता है । इसलिए साधक को बहुत सावधानी रखनी चाहिए कि क्रोध जीव पर हावी न हो जाए और कर्मबंधन की शृंखला आगे न बढ़ती जाए। य-याया जाडो पेट को मूल-संसार यम क्रतातमुखो ना पेट मोटा छे। सव जगत्र नो ग्रा करे छ तुलसी प्रज्ञा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो पिण पेट भरायतो नही ते माटे एहनो भय हिया मे राख । धर्म ने विषे आलस करी मा ॥४१॥ हिंदी- संसार प्रवीण यमराज का बड़ा पेट (उदर) है। जगत् के सब प्राणियों का वह ग्रास करता है फिर भी उसका पेट भरता नहीं है। इसलिए उसका भय हृदय में रखना । धर्म में आलस्य मत करना । प्रतिपाद्य-णस्थि कालस्स आगमो। (आयारो २०६२) काल के लिए कोई भी समय अनवसर नहीं है, वह किसी भी क्षण आ सकता है। व्यक्ति को धर्म के आचरण में जागरूक रहना चाहिए, आलस्य नहीं करना चाहिए। र-राय रोकटार मल मूल- राग धेरव दोय मोटा मल छे। ते वेहु मल ने जीपीस तो कर्म थी हलको थाइ केवल उपारजी ने अखय पद नो भोगी थाइस ॥४२॥ हिंदी- राग और द्वेष दो बड़े मैल है। इन दोनों मैलों को जीतेगा तो कर्मों से हल्का होकर केवल ज्ञान उत्पन्न कर अक्षय पद (सिद्ध पद) का भोगी होगा। प्रतिपाद्य - जब तक राग और द्वेष रहता है तब तक केवल ज्ञान प्राप्त नहीं होता। राग द्वेष को नष्ट कर जब जीव १२वें गुणस्थान को पार करता है तब केवल ज्ञान प्राप्त होता है। केवली सिद्धगति को प्राप्त करते हैं। ल-लला घोडी लात वाय मूल -- लोभ रुपी घोडा थी वेगलो रहीजे ॥४३॥ हिंदी-लोभ रूपी घोड़े से दूर रहना ।। प्रतिपाद्य --- लोभ का उदय दसवें गुणस्थान तक रह जाता है। यह बहुत ही जटिल कषाय है । इसके लिए साधक को सावधन किया गया है कि लोभ के प्रति सजग रहें उसे बढ़ावा न दें। भगवान् महावीर ने कहा हैजहा लाहो तहा लोहो उत्तराध्ययन ८।१७ यह एक दुष्चक्र है जिससे निकलना बहुत कठिन होता है। वर-ववा वेगण वास दे मूल-ते कामादिक ना वेग छ। तेहने मन रुप घर में वास देइ समाजे माहे पेठो तो आत्मा उतम गुण रुप धन सव चोरी जाइसे ।।४४।। हिंदी--काम आदि वेग हैं । उनको मन रूप घर में स्थान देकर समाज में रहेंगे तो आत्मा का उत्तम गुण रूप धन सब चोरी हो जाएगा। प्रतिपाद्य -- विभूषा इत्थी संसंग्गी, पणीय रसभोयणं । नरस्सत्त गवेसिस्स, विसं तालउडं जहा। (दशवकालिक ८।५६) खंड २१, अंक ३ ३११ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभूषा, स्त्री संसर्ग और प्रणीतरस भोजन आत्मगवेषी मुनि के लिए तालपुट विष के समान है। ये काम विकारों को बढ़ाने वाले हैं और आत्म बोध को नष्ट करने वाले हैं। श-शशी कोटा मरडीया मूल - वली तू सुसलनी परे कोट कान थी ढंकाइ ने वैसी रहीस मा। धर्म ने विषे उद्यमी थाजे । गलियार थइ ने वेसीस मा। तो परलोक नी गती थास्ये । इमन न करसी एक दीन काल रुपीयो पारधी दुरगती मे ले जासी। जिम सुंसल्या ने आहडी गाटी मरोडी नाखै तिम तुज ने पिण काल रुप आहडी मरोडी नाखस्ये ॥४५॥ __ हिंदी---खरगोश की तरह कान को ढंक कर मत बैठना । धर्म के विषय में उद्यम करना। गली में घूमने वाले गदहे की तरह निकम्मा मत बैठना । परलोक की गति होगी। इस प्रकार न करेगा तो एक दिन कालरूपी शिकारी दुर्गति में ले जाएगा । जिस प्रकार खरगोश को शिकारी गला मरोड़ कर मार देता है वैसे ही तुमको भी काल रूप शिकारी मरोड़ कर छोड़ देगा। प्रतिपाद्य-एवं भव संसारे, संसारइ सुहासुहेहिं कम्मेहिं । जीवो पमाय बहुलो, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ (उत्तराध्ययन १०।१५) जो जीव अधिक प्रमाद करता है वह अपने शुभ और अशुभ कर्मों से द्वारा भवरूपी संसार में भ्रमण करता है। इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। - प्रमाद से दुर्गति होती है । काल किसी क्षण आ सकता है । वह समय की प्रतीक्षा नहीं करता इसलिए प्रमाद मत कर । ष-षषाषणा फाडीया ___मूल-खरो साचो बोल खोटो वोलीस मा। एक मुख वचन बोलता सर्व गुण सर्व व्रत जाता रहस्ये । जिम कोइ ना वस्त्र नां कोथला ना खूणो फाटो तिहा थी वस्तु हलुइ हलुइ नीकलतां सर्व खाली थाय तथा वली एकांत खुणे वेस पाप करीस तो पिण अखीर उदय काले प्रगट थास्ये ।।४६।।। हिंदी -सत्य बोल, असत्य मत बोल । एक असत्य वचन बोलने से सर्व गुण और सर्व व्रत चले जाएंगे (खण्डित हो जाएंगे) जैसे वस्त्र की कोथली का एक कोना फट जाने से उसमें से वस्तु धीरे-धीरे बाहर निकलती-निकलती कोथली खाली हो जाती है। वैसे एकांत में बैठ पाप करेगा तो अंत में पाप उदयकाल में प्रकट हो जाएंगे। प्रतिपाद्य - साधु के पांच महाव्रत होते हैं। एक महाव्रत के भंग होने पर आंशिक रूप में पांचों महाव्रत भंग हो जाते हैं । जैसे एक साधु असत्य बोलता है । असत्य बोलने से सत्य महाव्रत भंग हो जाता है। अहिंसा की परिभाषा है--सर्व भूतेषु संयमः अहिंसा । सर्व प्राणियों के प्रति संयम रखना अहिंसा है। असत्य बोलने में असंयम होता ३१२ तुलसी प्रज्ञा Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है इसलिए अहिंसा महाव्रत भंग होता है है । भगवान् की आज्ञा की चोरी है । होता है इसलिए ब्रह्मचर्य महाव्रत भंग परिग्रह होता है । असत्य बोलने में महाव्रत भी भंग हो जाता है । । असत्य बोलने से अचौर्य महाव्रत भंग होता असत्य बोलने से आचार की शीलता का भंग होता है । विचारों की आसक्ति या मूर्छा विचारों का परिग्रह होता है इसलिए अपरिग्रह स - साहरसदंती लोके मूल - जो तू मोह राजा संघाते भूक करता साहसीक थाजे देती हाथी नी परे । जिम हाथी साहसीक आगे थइ ने देत थी कीलातो कपाट गढ कोट भांजे तिम तूं पिण मोह राजा के मिध्यातरुप गढ कोट ने भांजस्ये । हिंदी - मोह राजा के साथ युद्ध करते समय दंत वाले हाथी की तरह साहसिक होना । जैसे दंती हाथी आगे होकर चिंघाड़ता हुआ दांत से किंवाड़, गढ़ और कोट को तोड़ देता है वैसे ही तू भी मोह राजा के गढ़ और कोट को तोड़ देगा । प्रतिपाद्य - मोह आठ कर्मों में प्रधान कर्म है । उसके एक के नष्ट होने से सारे कर्म नष्ट हो जाते हैं । इसलिए शिक्षा दी गई है कि तूं मोह कर्म पर प्रहार कर | मोह के नष्ट होने पर सिद्ध गति का मार्ग सरल हो जाता है । - ह -हा हो लो हरिणे लोके मूल - वली तूं मोह रुप पारधी ने भरी नास जाय । जीम हिरण पारधीने पास मां पड्यो तो संसार बंधन थी छूटीस नही । पासामां पडीस मा हिरण नी परे फाल देखी नासी जाय न सकेज तूं पिण मोहरूप हिंदी - तू मोहरूप शिकारी के पाश में मत पड़ जाना, हिरण की तरह छलांग भर कर भाग जाना । जैसे हिरण शिकारी को देखकर दूर भाग नहीं सकता वैसे त भी मोहरूप पाश में पड़ेगा तो संसार बंधन से छूटेगा नहीं । प्रतिपाद्य - अगर मोह नष्ट नहीं करेगा, उसमें मूर्छित हो जाएगा तो संसाररूपी चक्र से निकलना बहुत कठिन हो जाएगा । इसलिए प्रतिपल जागरूकता की अपेक्षा है | ल्ल - ल्लावे लो बी दो पणिहार मूल - जो तूं मोक्ष नो अभिलाषी थइ ने संसार ताहरे पाणी भरस्ये । एक तो द्रव्य लक्ष्मी ने दूजी भाव देवता पणे उपजसी तथा मनुष भवे नरदेव चक्रवरती पणे द्रव्य लक्ष्मी पुन्य भोगवी पिछे सिधाने विषे भाव लक्ष्मी पामी । नां बंधने छोडीस तो बे लक्ष्मी लक्ष्मी ते माही अनुतर विमान उपजसी । भरतादीक नी परे नो भोगवे छे, तिम तू पिण हिंदी - यदि तू मोक्ष का अभिलाषी होकर संसार के बंधन को लक्ष्मी तुम्हारे पानी भरेगी । एक तो द्रव्य लक्ष्मी, दूसरी भाव लक्ष्मी । अनुत्तर विमान के देवता के रूप उत्पन्न होगा और मनुष्य भव में जाएगा तो नरदेव चक्रवर्ती के रूप में पैदा होगा । भरत आदि की तरह द्रव्यलक्ष्मी, पुण्य का भोग कर उसके बाद सिद्ध होकर भाव लक्ष्मी भोगेगा। वैसे तू भी सिद्ध को प्राप्त होगा । खण्ड २१, अंक ३ छोड़ेगा तो दो देव होगा तो ३१३ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिपाद्य - सम्यक्त्व प्राप्त करने से पूर्व मिथ्यात्वी अवस्था में की गई उत्कृष्ट निर्जरा से नरेन्द्र (चक्रवर्ती) पद प्राप्त होता है । सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद उत्कृष्ट संवर और निर्जरा की आराधना से सिद्ध गति को प्राप्त होता है या अनुत्तर विमान में अहमिन्द्र पद को प्राप्त होता है । जाइमरणो मुच्चई । इत्मत्थं च चयइ सव्वसो | सिद्धे वा भवइ सासए । देवे वा अप्परए महिड्दिए ॥ ७॥ क्ष - भुडीया षाटक मोर छोड पाले बंधीया बे चोर मूल सिध ना सुख किम पामे ते कहै छे । इण संसार माहि षटकाय ना जीव आरंभ पहिली छोड नही तो आत्मा ना ग्यानादिक गुण लुटवा ने राग धेष रुप दोय चोर खडा छे । तेहने पकडी बाधी ने बीज मात्र काटी ने जिम कर्म रुप वृक्ष नी उत्पति फेरी न थाय । रागाय दोसाय कम बीया तेहने टालीजे । च्यार घनघातीया कर्म जिमकेवल श्री पामे । ते केवल श्री भोगवी ने अंते चवदमे गुणठाणे योग ने रुंधी सलेसी करणे करी शुकल ध्यान नो चोथो पायो तेजस कारन बेदी क्रिया रहीत थाइ सिध रासी मे भलजे ॥ दसर्वकालिक ९।४।७ हिंदी - सिद्धों के सुख कैसे मिलता है वह कहते हैं । इस संसार में षट्काय ( पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय) के जीवों की हिंसा पहले छोड़ । आदि गुणों को लूटने के लिए राग और द्वेष ये दो चोर खड़े हैं । बांधकर, निःसत्त्वकर, जिससे कर्म रूपी वृक्ष की उत्पत्ति वापस न हो । ये कर्म के बीज हैं इनको दूर कर । चार घनघातिक कर्मों को नष्ट कर जिससे केवल ज्ञान की प्राप्ति हो । केवली पद भोगकर अंत में चौदहवें गुणस्थान में योग निरोध कर, शैलेशी अवस्था प्राप्त कर शुक्ल ध्यान के चौथे चरण में आरोहण कर, तैजस कार्मण शरीर छोड़ क्रिया रहित हो सिद्ध राशि में मिलेगा । राग और द्वेष प्रतिपाद्य - रागो य दोसो वि य कम्मबीयं कम्मं च मोहप्पभवं वयंति कम्मं च जाई मरणंस्स मूलं दुक्खं च जाई मरणं वयंति । (उत्तराध्यय ३२|७) राग और द्व ेष कर्म के बीज हैं । कर्म मोह से उत्पन्न होता है और वह जन्ममरण का मूल है । जन्ममरण को दुख कहा गया है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय ये चार घनघातिक कर्म हैं । मोह कर्म के क्षय होने से शेष तीन घनघातिक कर्म भी क्षय हो जाते हैं । बारहवें गुणस्थान में मोह क्षय होता है फिर उसके बाद केवलज्ञान प्राप्त तेरहवें गुणस्थान के प्रथम समय में तीन कर्म टूटते हैं । ३१४ तुलसी प्रज्ञा तेजसकाय वायुकाय, आत्मा के ज्ञान उनको पकड़कर, Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है। तेरहवें गुणस्थान में केवली सयोगी होते हैं। अंतकाल में योग का निराध कर निष्कंप शैलेशी अवस्था को प्राप्त होता है। मनोयोग, वचनयोग और काययोग को क्रमश: निरोध करता है । शुक्ल ध्यान के चौथे भेद समुच्छिन्न क्रिया अनिवृत्ति से सूक्ष्म किया को विच्छिन्न करता है, औदारिक शरीर, तेजस शरीर और कार्मण शरीर को क्रमशः छोड़ क्रिया रहित हो सिद्धों में मिल जाता है। अंत में पूर्ति के पद्य हैंदे विद्या परमेस्वरी। परमेस्वर ने पाय लागू, हाथ जोडी विद्या मांगु । विद्या घर वावरी, दोदो विद्या आवरी ॥१॥ एक विद्या खोटी, गुरु पकडी चोटी । चोटी करे चम चम, विद्या आवे धम धम ॥२॥ संव १९९० वेसाख वीद ११ जयपुर मध्ये फूलचंद । खंड २१, अंक ३ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम विदुषी मदालसा डॉ० मुन्नी जोशी भारतीय संस्कृति एवं दार्शनिक चिन्तन के अस्तित्व संरक्षण में जितना सहय‍ पुरुष वर्ग का रहा है, उतना ही महिलाओं का भी योगदान है । वैदिक काल में अपाला, गार्गी एवं मैत्रेयी आदि महिलायें मन्त्र दृष्टा ऋषियों के समकक्ष आदर का भाजन बनीं हैं । वस्तुतः प्राचीन काल से ही महिलायें पुरुषों की भांति अपना भी स्थान अपनी सतत साधना से बनाये हुए थीं । इनका क्षेत्र गृहिणी पद पर ही अधिष्ठित होना नहीं था, वरन् लोगों में अपने त्याग, तपस्या एवं लोकोत्तर आचरणों से समाज की सुसंस्कृत रचना में इन्होंने अपना महत्वपूर्ण योगदान भी किया था। इस श्रृंखला में पौराणिक वाङ्मय में, मदालसा का चरित्र ऐहिक एवं पारलौकिक उभयविध मार्गों को प्रशस्त करने वाली चरित्र नायिका के रूप में पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हुआ है । माता के उत्सर्ग में पोषित बालक माता के मुख से सुनकर, भोग एवं वैराग्य के मार्गों का चयन कर सकता है । इसका अतीव सुरुचिपूर्ण निदर्शन मदालसा के चरित्र में दृष्टिगत होता है । इस विदुषी महिला ने धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चतुर्विध पुरुषार्थों के भाजन भूत अपने बालकों को लौकिक एवं पारलौकिक लक्ष्यों को पूर्ण करने वाली विधाओं की शिक्षा-दीक्षा लोरी में ही दे दी है। इस प्रकार का उज्ज्वल एवं व्यावहारिक स्वरूप समूचे वाङ्मय में अत्यल्प मात्रा में उपलब्ध होता है । प्रस्तुत शोधपत्र में मदालसा के वैदुष्य का दार्शनिक एवं लौकिक समस्त विद्याओं की जननी के रूप में अंकन करना युक्तिसंगत प्रतीत होता है । मदालसा का इतिहास मार्कण्डेय पुराण में मदालसा एक विदुषी महिला रूप में परिलक्षित होती है । मदालसा गंधर्वराज विश्वावसु की कन्या है,' एक दिन उद्यान में अठखेलियां करती मदालसा को देख, दुष्टबुद्धि, उग्रमूर्ति, पातालकेतु नामक विख्यात दुरात्मा अपनी तमोमयी माया का जाल फैलाकर मदालसा का हरण कर लेता है । पातालकेतु द्वारा हरण की गयी मदालसा आत्मघात करने के लिए उद्यत हुई, तभी एक कन्या ने आकर कहा –‘“यह उद्यत दानव तुमको प्राप्त नहीं कर सकेगा " । कुण्डला के कथनानुसार ऋतुध्वज आकर इस दुरात्मा की इहलीला समाप्त कर देता है । ऋतुध्वज द्वारा अनुरक्त मदालसा का विवाह सखी कुण्डला के सहयोग से सम्प खण्ड २१, अंक ३ ३१७ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है । पुनः एक दिन पातालकेतु का अनुज तालके तु मुनिरूप में आकर मदालसा से कहता है --- महाराज ऋतुध्वज असुरों का संहार करते स्वयं परलोक सिधार चके हैं, साक्ष्य स्वरूप एक कंठाभूषण दिखाता है। पति विरह में मदालसा अपने प्राणों का त्याग कर देती है। मदालसा के वियोग में राजा ऋतध्वज घोर तपस्या करता है। तप के प्रभाव से मदालसा पुनर्जीवित हो जाती है । राजा ऋतुध्वज अपनी प्रणयिनी को पाकर अत्यन्त आनन्दित होते है तथा सांसारिक कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। गन्धर्बराज की कन्या होने के कारण मदालसा का रूप सौन्दर्य अत्यन्त आकर्षक है। परिणामस्वरूप शत्रुजित के पुत्र ऋतुध्वज उसके प्रति अनुरक्त होते हैं और दोनों का प्रेम-विवाह होता है । वर्णन अनुसार मदालसा में सम्पूर्ण षोडश कलायें विद्यमान ___ मार्कण्डेय पुराण में मदालसा विदुषी महिला के रूप में उल्लिखित हुई हैं। उसे वेदान्त एवं उपनिषद दर्शन का सम्पूर्ण ज्ञान है । पुत्रों के जन्म लेते ही वह उन्हें आत्मबोध का पाठ सिखाना आरम्भ कर देती है। शिशुकाल में ही प्रथम पुत्र विक्रान्त को मदालसा ने दर्शन की शिक्षा देना प्रारम्भ कर दिया । यह पन्चभूतात्मक शरीर निश्चित ही नश्वर है। पृथ्वी, जल, तेज, वाय. आकाश, पन्चभूत कहे गये हैं । अत: यह नश्वर शरीर तुम्हारा नहीं है, तुम्हारी इन्द्रियां अनेक विषय भोगों में लिप्त है। यह नश्वर शरीर आच्छादन मात्र है। जो समय परिवर्तन के साथ-साथ जीर्ण-शीर्ण हो जाता है।" इस नश्वर जगत में मनुष्य अकेला ही जन्मलेता है और अन्तत: एकाकी ही रहता है अर्थात् माता-पिता, भाई-बन्धु सब मिथ्या है । माया का प्रसार मात्र है, मन्दबुद्धि ही भोगों को सुख का कारण मानते हैं । पुनः प्रारब्ध से एकत्रित कर्मों को लेकर इस माया रूपी भंवर में घूमते हैं । अविद्या से ग्रस्त मोहाच्छन्न चित्त पुरुष ही दुःख को सुख समझते हैं। ___इस प्रकार पुत्र को उत्सङ्ग से ही इसने आत्मज्ञान प्रदान किया फलस्वरूप पुत्र 'विक्रान्त' गार्हस्थ्य कर्मों से विमुख होकर वैरागी बन गया। दूसरे पुत्र के उत्पन्न होने पर राजा द्वारा उसका नामकरण संस्कार किया गया। वह 'सुबाहु' संज्ञा द्वारा संजित किया गया। इसे भी मदालसा द्वारा आत्मज्ञान दिया गया। __ अनन्तर तृतीय पुत्र के जन्मोत्सव पर उसका नाम 'शत्रुमर्दन' रखा गया। बाल्यकाल से ही प्रदत्त आत्मज्ञान के वशीभूत होकर यह पुत्र भी निप्काम व क्रियाहीन हुआ। पुन: चौथे पुत्र के जन्म ग्रहण करने पर पति के अनुरोध से मदालसा स्वयं ही उसका नाम 'अलर्क' रखती है। असंबद्ध नाम सुन, पति के प्रश्न करने पर पुनः मदालसा कहती है। नामकरण लोकाचार व कल्पना मात्र है। आत्मा तो सर्वव्यापी है । श्रीमद्भगवतगीता में उल्लेख मिलता है, आत्मा अमर है, अजर है। वह न मरती है तथा न मारी जाती है। तीसरे पुत्र शत्रुमर्दन के विषय में मदालसा पति से कहती है-आत्मा तो समस्त शरीरों में विराजमान है, उसका शत्रु व मित्र कोई नहीं है । ३१८ तुलसी प्रज्ञा Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा दोषरहित है, फिर वह किस प्रकार शत्रु का मर्दन कर सकती है। अतः लोकाचार के कारण ही अर्थहीन नाम की कल्पना की जाती है । पुत्र अलर्क को ज्ञान पति के द्वारा कुपित होने पर मदालसा पुत्र अलर्क को प्रवृत्ति मार्ग का ज्ञान प्रदान करती है। मदालसा कहती है मित्रों के उपकार हेतु और शत्रुओं के विनाश हेतु कर्मानुष्ठान में प्रवृत्त होओ"। मदालसा कहती है-तुम पृथ्वी का पालन कर, समस्त लोकों को आनन्दित करो। परस्त्रीगमन से चित्त हटाकर ब्राह्मणों व बन्धुवर्ग की सेवा करो। परनिन्दा का परित्याग कर यश के निमित्त कार्य सम्पादित करो। तुम बाल्यावस्था में मित्र वर्ग का, कौमार्य अवस्था में माता-पिता की आज्ञा का, यौवनावस्था में पत्नी का तथा वृद्धावस्था में वनवास ग्रहण कर प्रीति प्राप्त करो। राजधर्म की शिक्षा पुनः पुत्र अलर्क को प्रवृत्ति की ओर अग्रसर करती हुई मां मदालसा अलर्क को राजशासन की समस्त विद्या प्रदान करती है। राजशासन के योग्य जो सभी गुण एक राजा के लिए अपेक्षित है, उन सबका ज्ञान ब्रह्मवादिनी मदालसा को प्राप्त है। किस प्रकार राजशासन की उन्नति सम्भव है, किन-किन तत्त्वों से राजा को सर्वदा दूर रहना चाहिए, तथा राजा की कूटनीति क्या होना चाहिए, सभी का ज्ञान विदुषी मदालसा को है । इस ज्ञान का प्रसार वह पुत्र अलर्क के माध्यम से करती है। . जो राजा सम्यक् प्रकार से प्रजा का पालन कर, चारों वर्णों की रक्षा में सदैव तत्पर रहता है, वह इन्द्रत्व को प्राप्त करता है। वर्णाश्रम की शिक्षा पुत्र के आग्रह करने पर पुनः मदालसा अपने असिक्त ज्ञान का प्रसार करते हुए कहती है-विशुद्ध भाव से याजन, अध्यापन और पवित्र भाव से प्रतिग्रह ये तीन ब्राह्मण जाति के जीविकार्य व्यवसाय है। दान, अध्ययन और यज्ञ ये तीन क्षत्रिय धर्म कहे गये हैं, क्षत्रियों की जीविका का माध्यम शस्त्र चलाना व पृथ्वी की रक्षा करना बताया गया । दान, अध्ययन और यज्ञ वैश्य के तीन धर्म गिनाये गये है। पशुपालन, कृषि एवं वाणिज्य उनकी जीविका के साधन कहे गये। तीनों वर्गों की सेवा का कार्य शूद्र वर्ग के लिए अपेक्षित किया गया। आश्रम धर्म आश्रम धर्म का वर्णन भी मदालसा द्वारा किया गया है। जब तक द्विजातिगण का उपनयन संस्कार नहीं होता, तभी तक वह अपनी इच्छानुसार आलाप-आहारादि कर सकते हैं। उपनयन के साथ ही ब्रह्मचर्य आश्रम आरम्भ हो जाता है। इसकी समाप्ति पर युवाकाल में मनुष्य गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। इस आश्रम में गृहस्थी अपने सम्पूर्ण दायित्वों को पूर्ण कर पञ्चऋणों से उऋण होकर 'वानप्रस्थ आश्रम' की ओर खण्ड २१, अंक Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्थान करता है । अन्ततः समस्त विषय भोगों से चित्त को मुक्त कर, सन्यासी हो जाता है । गृहस्थी के कर्त्तव्य गृहस्थी पुरुष हेतु क्या आवश्यक है, क्या नहीं ? इस सबका वर्णन मदालसा द्वारा किया गया है। गृहस्थी के प्रमुख तीन कर्त्तव्य बताये हैं (१) नित्य, (२) नैमितिक, (३) नित्यनैमित्तिक । पञ्चयज्ञाश्रित कर्म ही नित्य कर्म है । पुत्र जन्म क्रिया नैमित्तिक तथा पर्वश्राद्धादि नित्यनैमित्तिक कर्म कहे गये हैं" । श्राद्धादि का ज्ञान भी मदालसा द्वारा पुत्र को कराया गया है । सपिण्डीकरण क्या है, इसके अभाव में क्या विधान करना चाहिए, इन सभी का मदालसा को पूर्ण ज्ञान है, यजमान किस प्रकार से पितरों का श्राद्ध कर, उनकी तृप्ति का साधन करते हैं, सभी का वर्णन मदालसा द्वारा किया गया है" । इस प्रकार मदालसा के चरित्र से स्पष्ट हो जाता है कि - तत्कालीन समाज स्त्रियों का ज्ञान-गरिमा से मण्डित होता था । मार्कण्डेयपुराण में मदालसा के असीम ज्ञान का विस्तार से वर्णन किया गया है । इसका पवित्र चरित्र इस बात को पुष्ट करता है- -- माता की पवित्र गोद में ही बालक के समस्त संस्कारों के बीज वपित हो जाते हैं, उसका परवर्ती जीवन इन्हीं संस्कारों से समन्वित होकर समाज एवं राष्ट्र की अभ्युन्नति के मार्ग को प्रशस्त करने में सक्षम हो पाता है। माता के सान्निध्य में बालक जिन संस्कारों को अर्जित करता है, उनकी छाप अमिट है । संदर्भ : १. विश्वावसुरिति ख्यातो दिवि गंधर्वराट्प्रभो । तस्येयमात्मजा सुभूर्नाग्नाख्याता मदालसा ।। (मार्कण्डेयपुराण १९१२ - २९ ) ३२० २. मार्कण्डेय पुराण १९ । ३०-३१ मार्कण्डेय पुराण २०१६-४७ ३. ४. मार्कण्डेय पुराण २२।१-४३ ५. मार्कण्डेय पुराण २३।१२-१४ ६. मार्कण्डेय पुराण २३।१५-१८ ७. मार्कण्डेय पुराण २३ । २५ ८. तर्थव सो पि तन्वग्या बालत्वादेव बोधितः । क्रियाश्चकार निष्कामा न किंचित्पलकारणम् ।। (मा. पु. २३/२७ ) ९. य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् । उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।। (श्री मद्भगवद्गीता २१९ ) १०. मार्कण्डेय पुराण २३।३८-४३ ११. पुत्र वर्द्धस्व भर्तुर्मनो नंदय कमाभिः । ऐहिकामुष्मिक फलं तत्सम्यक्परिपालय । मित्राणामुपकाराय दुव्ह दां नाशनाय च ।। (मा. पु. २३।५५ ) तुलसी प्रज्ञा Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. मार्कण्डेय पुराण २३ । ५६-६१ १३. एवमाचरते राजा चातुर्वर्ण्यस्य रक्षणम् । स सुखी विहत्यरेष शऋष्येति सलोकताम् ।। (मा. पु. २४।३४) १४. मार्कण्डेय पुराण २५।३-७ १५. यावत्तु नोपनयनं क्रियते यैद्विजन्मनः । कामचेष्टोक्तिभक्षस्तु तावद्भावात पुत्रक ।। ( मा. पु. २५|१० ) १६. मार्कण्डेय पुराण २७११-३ १७. तान्सर्वान्यजमानो वे श्रांद्ध कुर्वन्यथाविहि । समाप्याययते वत्स येन येन शृणुष्व तत् ॥ ( मा. पु. २७/७ ) — द्वारा श्री अखिल जोशी कुमाऊं विश्वविद्यालय स्लीपीहौलो, नैनीताल २१, अंक ३ ३२१ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्भागवदनुस्यूत भक्ति में भारतीय दर्शनों का समन्वय Dकुमारी विनीता पाठक श्रीमद्भागवत महापराण वैष्णव धर्म एवं दर्शन का अतीव प्रमाणिक ग्रन्थ है। इस महापुराण के प्रतिपाद्य परमतत्त्व श्रीकृष्ण हैं। भक्ति मार्ग के अवलम्बन से परमतत्त्व का प्रापक यह पुराण है। समस्त कलाओं के स्रोत स्वरूप श्रीकृष्ण के पावन चरित के अवलम्बन से ही वैष्णवों की सर्वस्वभूता भक्ति का विवेचन सम्भव था। विष्णु के समस्त अवतारों में पूर्णावतार का श्रेय श्रीकृष्ण को ही है। इनके जीवन में जिस माधुर्य भाव की प्रवणता है, वह भारतीय संस्कृति के अन्य किसी भी विग्रह में नहीं है। _वैष्णव दर्शन के सर्वस्वभूत इस महापुराण में जिस धर्म तत्त्व की स्थापना की गई है, वह संकीर्णताओं से रहित है। साम्प्रदायिक एवं जातीय विद्वेषों से उत्पन्न धार्मिक भेदभाव का इसमें स्थान नहीं है। ग्रन्थकार का यह डिण्डिम घोष है कि - धर्म: प्रोझितकेतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां । वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवा तापत्रयोन्मूलनम् ॥ आशय यह है कि इसमें लोकोत्तर मानवीय धर्म को प्रश्रय प्रदान किया गया है । श्रीमद्भागवत भक्ति का अगाध समुद्र है। परमेश्वर के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध का अभिलाषक भक्त भगवान के अतिरिक्त किसी अन्य तत्त्व की प्राप्ति को अपना लक्ष्य नहीं निर्धारित करता। यहां तक कि परम पुरुषार्थभूत मोक्ष भी भक्त को अपनी ओर आकृष्ट करने में सक्षम नहीं होता। यही कारण है कि श्रीमद्भागवत में प्रतिपादित द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत -सभी सम्प्रदाय अपनी व्याख्या में भक्ति के इस उत्कृष्ट स्वरूप को मनागपि तिरोहित करने में सक्षम नहीं हो पाते । इस महनीय ग्रन्थ में धर्म एवं दर्शन का मंजुल समन्वय स्थापित किया गया है। . ईश्वर सम्पूर्ण गुणों से युक्त होता हुआ भी निर्गुण एवं निराकार है। इसी प्रकार विशिष्ट गुणों से युक्त होता हुआ भी वह निविशेष है। इसके अनुसार सम्पूर्ण प्राणियों के आश्रयभूत एवं सर्वान्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। ये ही भक्तों के वश होकर विश्व मंगल की कामना से माया का आश्रय लेकर मानव रूप में अवतरित होते हैं । इन्हीं को ईश्वर, परमात्मा एवं ब्रह्म के पदों से व्यपदिष्ट किया जाता है । श्रीमद्भागवत का दर्शन मात्र बुद्धि का विकास ही नहीं है, अपितु इसमें सहृदय पाठक का हृदय भी स्पन्दित होता है। इसमें अवान्तर विषयों के समावेश के साथ ही मुख्य प्रतिपाद्य भक्ति की चर्चा आदि, मध्य एवं अन्त में अतीव तत्परता के साथ खंड २१, अंक ३ ३२३ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेचित की गई है । समस्त प्राणियों एवं देवताओं के आराध्य भगवान को अनेकशः स्मरण करते हुए उनसे एकमात्र भक्ति की कामना की गई है। हिन्दू धर्म का प्राण भक्ति है। ध्रुव एवं प्रह्लाद जैसे भक्तों की स्थितियों में भक्तियोग का ही वर्णन उपलब्ध हो सकता है। यहां तक कि परम ज्ञानी उद्धव भी रससिक्त होकर ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की श्रेष्ठता स्वीकार करते हैं। इस तथ्य को भगवान के मुखारविन्द से भी निसृत कराया गया है। वे अपने भक्तों को इस तथ्य का उद्घाटन करते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि मेरी प्राप्ति के लिए योग दर्शन आदि सभी उपाय गौण हैं । अनन्य भक्ति से ही मेरी प्राप्ति सुगम है। भागवतकार की यह अवधारणा गीता में भी सुस्पष्ट रूप से ही उपलब्ध होती है। उन्होंने स्वयं कहा है कि मैं , ही सांसारिक भोग विलासों में लीन मानवों को सभी पापों से मुक्ति दिलाने वाला हूं।' इतना ही नहीं अनन्य भाव से भगवान चिन्तन में लीन हुए का ही हृदय पवित्र मान लिया जाता है । इसका अभिप्राय यह है कि मोक्ष के लिए जिस ज्ञान की अपेक्षा है, उसका उदय शुद्ध अन्तःकरण में ही सम्भव है। ज्ञान का सात्विक रूप ही भक्ति है । और पराभक्ति ही ज्ञान पद से व्यपदिष्ट की जाती है। इसका आशय यह है कि पराभक्ति और ज्ञान दोनों एक ही हैं । भक्ति के द्वारा भक्त की सांसारिक समस्त आसक्तियों के विनष्ट हो जाने पर उसमें सत्त्वगुण का संचार होता है। और उसे सहज ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है । यह निर्विवाद सिद्ध है कि ईश्वर की कृपा का भाजन भक्त ही हो सकता है । शुद्ध भक्त श्रीकृष्ण के अभिराम स्मरण ध्यान में अविराम तन्मय लगा रहता है। महात्माजन भागवत्प्राप्त भक्तों के मुखारविन्दों से निस्पन्दित भगवत कथामृत को कर्णपुटों से पीकर क्रमश: कृष्णभावनाभावित भक्तियोग का विकास करते हैं। ___ श्रीमद्भगवदगीता में ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की उत्कृष्टता का वर्णन स्थानस्थान पर उपलब्ध होता है। वेदाध्ययन, ज्ञान और कर्म ये तीनों ईश्वर की प्राप्ति में उतने समर्थ नहीं हैं, जितना कि सामर्थ्य भक्ति का है। इसीलिए भागवतकार ने इस प्रसंग को अतीव सुस्पष्ट एवं हृदयंगम बनाने के लिए गोपियों के चरित की अवतारणा की है । श्रीमद्भागवत में ज्ञान एवं वैराग्य की चर्चा की गई है। क्योंकि इसके कथानक का प्रारम्भ ही वैराग्योदय से हुआ है। मुमुक्षु परीक्षित अल्प समय में वैराग्य संवलित होकर परमज्ञानी शुकदेव से मोक्षोपरिक श्रीमद्भागवती कथा के रसास्वादन में संलग्न होते हैं । श्रीमद्भागवत में वणित ज्ञान एवं वैराग्य भक्ति के पूरक हैं। भक्ति विहीन ज्ञान एवं वैराग्य निष्प्राण हैं । इनके संवर्धन के लिए भक्ति को ही उत्कृष्ट स्थान प्रदान किया गया है । भक्तों में भी कतिपय ऐसे भक्त दृष्टिगोचर होते हैं, जो भगवत चरित के श्रवण और मनन के अनन्तर रुद्र कण्ठ होकर अविरल अश्रु प्रवाह का मोचन करते रहते हैं। दूसरे प्रकार के भक्त वे हैं जो शास्त्रानुकूल निष्काम कर्मों का अनुष्ठान करते रहते हैं। . श्रीमद्भागवत में भक्ति का सर्वश्रेष्ठ स्थान निर्धारित किया गया है। भगवद्भक्ति भी सहज नहीं है । अनेक जन्मों में उपाजित सुकृत पुण्यों के प्रभाव एवं परमेश्वर के अनुग्रह से ही व्यक्ति के मानस में रागात्मिका भक्ति का आविर्भाव होता है। महा ३२४ तुलसी प्रज्ञा Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपस्वी एवं ज्ञानी ऋषि भी भक्तों का अपमान करने का साहस नहीं कर सकते। पुराणों में क्रोध की मूर्ति के रूप में वर्णित दुर्वासा महाभक्त अम्बरीष के समक्ष निष्प्रभ हो जाते हैं । इस प्रकार भक्ति को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने के साथ विष्णु के विविध अवतार एवं कृष्ण चरित की महत्ता पर भी प्रकाश डाला गया है। श्रीमद्भगवद्गीता एवं पुराणों के अनुसार धर्म की स्थापना एवं अधर्म के नाश के लिए परमात्मा इस संसार में अवतरित होते हैं। ईश्वर के अवतार का सर्वाधिक प्रयोजन अपने लीला विग्रह द्वारा भक्तों के हृदय का प्रसादन है। यह सभी अवतार विष्णु के ही होते हैं । विष्णु रूप शक्ति को ही जगत् की पालिका शक्ति के रूप में स्वीकृति प्रदान की गई है। विष्णु के समस्त अवतारों की महत्ता संदेह से परे है । भागवतकार ने भी विष्णु के प्रमुख अवतारों का अपनी कृति में समुचित सन्निवेश किया है । पौराणिक साहित्य में कृष्ण को विष्णु का अवतार माना गया है। इनका यह स्वरूप वैदिक काल से लेकर पौराणिक काल तक विभिन्न रूपों में विकसित हुआ है। उपनिषदों में भी कृष्ण के नाम का उल्लेख उपलब्ध होता है। यद्यपि कृष्ण का व्यक्तित्व ऐतिहासिक है तथापि इस सम्बन्ध में अनेक विचार उपलब्ध होते हैं । कृष्ण का सर्वप्रथम उल्लेख मैत्रायणि उपनिषद में उपलब्ध होता है । इस उपनिषद में ब्रह्म के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए इसे समस्त शक्तियों के मूलभूत तत्त्व के रूप में प्रतिष्ठापित किया गया है। विष्णु को परवर्ती काल में वैष्णव धर्म के प्रधान देवता के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। वसुदेव कृष्ण का उल्लेख छान्दोग्य उपनिषद में भी उपलब्ध होता है। इस उपनिषद में कृष्ण देवकी के पुत्र हैं और इन्हें आंगिरस ऋषि के रूप में स्वीकार किया गया है । इस उपनिषद में कृष्ण का जो उल्लेख है, वह ऐतिहासिक व्यक्ति के रूप में नहीं दिखता । कृष्ण की ईश्वर रूप में सर्वप्रथम चर्चा 'हरिवंश पुराण' में आई है। इस पुराण में कृष्ण के सम्पूर्ण अवतार पराक्रम इनसे सम्बन्धित स्तुतियों में इन्हें ईश्वर, ब्रह्म एवं परमात्मा के अभिधान से विभूषित किया गया है। श्रीमद्भागत में वासुदेव और गोपाल कृष्ण इन दोनों में एकत्व की स्थापना कर दी है। भारतीय साहित्य में भी महाभारत एवं अन्य पुराणों में वर्णित कृष्ण चरित में विविधता के दर्शन होते हैं। भारतीय साहित्य के आकर ग्रन्थ महाभारत में जिस कृष्ण का वर्णन उपलब्ध होता है। उसमें राजनीतिक पटुता का ही समावेश अत्यधिक मात्रा में वर्णित है । कृष्ण अपनी कूटनीति से ओत-प्रोत राजनीतिक बल पर पाण्डवों को विनयी बनाने में सक्षम हो जाते हैं। श्रीमद्भागवत में कृष्ण का ईश्वरीय रूप उपलब्ध होता है । इसमें जिस कृष्ण का उल्लेख हुआ है, वे पूर्णावतार से युक्त हैं। ये लीला अवतार व लीला पुरुष हैं। इसमें श्रीकृष्ण के व्यापक स्वरूप का उल्लेख हुआ है। वे पूर्णावतार से युक्त हैं । यही एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें कृष्ण के सम्पूर्ण रूपों का एकत्र समाहार हुआ है । ये परब्रह्म हैं। ईश्वर हैं, तथा अपनी लोकोत्तर लीलाओं से भक्तों के मन का हरण भी करने वाले हैं। यह कहना उचित ही है कि श्रीमद्भागवत विविधता से पूर्ण महापुराण है। इसके एक-एक अंश अगाध समुद्र की भांति है। यही कारण है कि भक्ति रस की स्रोतस्विनी इसी महापुराण से प्रवाहित हुई। इसमें बाल्य खंड २१, अंक ३ ३२५ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लीलाओं का, यौवन की मनोहारिणी छटा का, तथा असुरों के दर्प को चूर्ण करने वाले ईश्वरत्व रूप का जिस कमनीयता के साथ निरूपण हुआ है, वह अन्यत्र दुर्लभ है । भगवद्गीता में श्रीकृष्ण योगेश्वर हैं । संसार की समस्त विभूतियां इन्हीं में समाहित हैं । इस प्रकार गीता के कृष्ण दार्शनिक चिन्तन के विषय बन गए हैं । श्रीमद्भागवतकार ने कृष्ण के सम्पूर्ण स्वरूपों को एक ही सूत्र में अनुस्यूत करने का प्रयास किया है । सहृदय भक्तों के जीवित स्वरूप रसिकेश्वर कृष्ण की मनोहारिणी लीलाएं इसी ग्रन्थ में प्रस्फुटित हुई हैं । इसमें कृष्ण चरित के दिव्य एवं मांगलिक रूपों के साथ-साथ माधुर्य भाव भी अभिव्यक्त हुआ है । श्रीमद्भागवत की रचना कृष्ण के दार्शनिक पक्ष को समुद्भासित करने मात्र तक सीमित नहीं हैं, अपितु इसका मुख्य उद्देश्य भक्तिरस का पूर्ण परिपाक होना ही है । यही कारण है कि भागवतकार कृष्ण की लीलाओं में अत्यधिक तल्लीन हुए। ऐसा प्रतीत होता है कि व्यास का हृदय स्वयं द्रवीभूत होकर छन्दोमयी वाणी के रूप में प्रस्फुटित हुआ । विरह वेदना से युक्त गोपियों के गीतों में जिस अन्तरात्मा की वेदना है, वह भक्तिरस का चूर्णान्त निदर्शन है । श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण के जन्म और कर्म की दिव्यता का यथार्थ चित्रण किया गया है । व्यास ने श्रीकृष्ण को विश्व के पूर्णावतार के रूप में प्रतिष्ठित करने का स्तुत्य प्रयास किया है । विष्णु के समस्त अवतारों में जो आकर्षण कृष्णावतार में है, वह अन्यत्र दुर्लभ है | सम्पूर्ण भारतीय दर्शन एवं संस्कृति का यह सन्देश है कि समन्वय के लिए विषय गुणों का होना आवश्यक है । भागवतकार श्रीकृष्ण को परम योगेश्वर के रूप में मान्यता प्रदान करते हैं । सात दिनों के अल्पकालिक काल में मुक्ति प्रदान करने की क्षमता इन्हीं में है । ज्ञान, वैराग्य के ये निकेतन हैं । कृष्ण समस्त लोक के आदि कारण हैं । कृष्ण अपनी लीला से संसार का सृजन, पालन एवं संहार करते रहते हैं । किन्तु वे इसमें लिप्त नहीं होते । इसी कारण इस उदात्त चरित को जो श्लाघनीय, कल्याणकारी एवं आत्मज्ञान हेतु सर्वश्रेष्ठ उपायभूत है, उसका प्रणयन वेदव्यास ने किया है । इसमें कृष्ण के उन समस्त चरित्रों को प्रकाश में लाने का प्रयास किया गया है जिसमें भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य की त्रिवेणी प्रवाहमान होती है । भक्तजन कृष्ण के सौन्दर्य जनित माधुर्य से परिपूर्ण छवि के अवलोकन हेतु निरन्तर उत्सुक रहते हैं । इनका रूप वर्षाकालीन मेघ के समान स्निग्ध, श्याम एवं सम्पूर्ण सौन्दर्य का आगार है । भुजाएं मनोहारिणी हैं, नेत्र पंक्तियां कमलदल के समान निरन्तर भक्तजनों को स्नेह से स्निग्ध करने वाली हैं इस प्रकार की रूपमाधुरी का ध्यान त्रिविध तापहारी एवं सम्पूर्ण भयों का समुन्मूलन करने वाला है । इनकी देहप्रभा आभूषणों से सुशोभित है । कौस्तुभमणि इनका परमप्रिय आभूषण है । अलौकिक एवं लौकिक दोनों प्रकार के आभूषणों से सुसज्जित होता हुआ भक्तवत्सल श्रीकृष्णचन्द्र का निरतिशय मनमोहक रूप भक्तजनों के लिए निरन्तर स्मरणीय स्वरूप को प्राप्त करता रहता है । इनकी यह रूप माधुरी एक बार जिस हृदय में प्रविष्ट हो गई, वहां सम्पूर्ण कामनाओं को नष्ट करती हुई पारलौकिक आनन्द की असीम स्थिति उत्पन्न कर देती है । श्रीकृष्ण को भागवतकार परब्रह्म स्वरूप एवं आदि पुरुष परमेश्वर की उपाधियों 費 तुलसी प्रशा ३२६ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से विभूषित करते हुए भी इनके लोकोत्तर सौन्दर्य की चर्चा बार-बार करते हैं। इसका प्रमुख कारण यही प्रतीत होता है कि इनकी रूप माधुरी को लेकर लीला विग्रह स्वरूप को प्रमुख प्रतिपाद्य बनाकर इससे परवर्ती रासलीला इत्यादि मनोहारिणी चेष्टाओं को यथावत् पुष्ट करना इनका प्रमुख अभिप्रेत है। श्रीकृष्ण का वेणुवादन शिव के ताण्डव नृत्य की भांति सम्पूर्ण संस्कृत-साहित्य में सुप्रसिद्ध माना जाता है। इसी वेणु को लेकर अनेक उपालम्भों से युक्त राधा और गोपियों की रमणीय कल्पनाओं का भावबन्ध एकत्रित करके अनन्त कल्पनाओं के प्रसून विकसित किये हैं। संस्कृत वाङ्मय कृष्ण के वेणुवादन से ओत-प्रोत हैं । विष्णु के समस्त अवतारों की अपेक्षा कृष्ण में सौन्दर्य का निधान अतिशय रूप में किया गया है। इनके रूप में क्रूरता का सन्निवेश दृष्टिगत नहीं होता । जब हम नृसिंहावतार जैसे विष्णु के परम पराक्रमपूर्ण अवतारों की रूपरेखा अपने हृदय में स्थापित करते हैं तो उस काल में विष्णु का रौद्र रूप समक्ष उपस्थित हो जाता है । वह ऐसा रूप है जिसमें प्रज्ज्वलित क्रोधाग्नि का शमन देवगण भी नहीं कर पाते । इसी प्रकार अन्य अवतारों में पराक्रम मे ईश्वरत्व की सिद्धि की गई है। उसी को अवतार माना गया है। जिसमें लोकोत्तर पराक्रम की स्थिति उत्पन्न होती है जो अपने अपरिमित एवं अपराजेय शक्ति से दैत्य समूह का दमन कर सकें, उसी को ईश्वर के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। बलि दैत्यराज की कथा को भी भागवतकार ने सुन्दर ढंग से निरूपित किया है । बलि दैत्य था। किन्तु भगवान का परम भक्त भी था। यही कारण है कि उसने जानते हुए भी अपनी राज्यलक्ष्मी वामनावतार भत विष्ण को अर्पित कर दी। उसे केवल भगवान की भक्ति की अभिलाषा थी। भगवान के परम भक्त किसी भी वस्तु की मनागपि अभिलाषा नहीं रखते । उन्हें तो मात्र भगवद्भक्ति की ही कामना रहती है। भागवत भक्तों के चरित का एक भण्डार स्वरूप है। ब्राह्मण शाप से ग्रस्त परीक्षित को भक्ति दिलाने हेतु ही इस अमृत स्वरूप ग्रथ का प्रवचन शुकदेव के मुखारविन्द से सम्पन्न हुआ था। रामावतार में राम की बाल लीलाओं का संक्षिप्त वर्णन उपलब्ध होता है जो कृष्ण की अपेक्षा अत्यधिक न्यून है। चिरन्तन परम्परा से आती हुई गोपवृत्ति का भी अद्भुत वर्णन बाललीला से ही सम्भव है। माखन चोरी का वर्णन बाल्यकालीन लीलाओं में ही समाहित किया जा सकता है। कृष्ण की माखन चोरी, सामान्य चोरी का प्रसंग नहीं है । कृष्ण को इस विषय का दुःख था कि गोप माखन एवं दूध का स्वयं सेवन न करके उसका विक्रय करते थे। उन्हें इस परम्परा को हटाना था। कृष्ण की बाललीलाओं में सर्वाधिक महत्त्व गोचारण प्रसंग का है। गोचारण प्रसंग से कृष्ण को सिद्ध करना था कि भारतीय जीवन के लिए गायों का अतिशय महत्त्व है। ऐहिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार के अभ्युदय की कामना करने वाले व्यक्ति के लिए गौ सेवा अतीव उपयोगी है। बाल लीलाओं के वर्णन में अनेक प्रकार के कंस प्रेषित असुरों के वध का प्रसंग भी उपलल्ध होता है। यह प्रसंग मात्र कृष्ण के ईश्वरत्व रूप को प्रकट करने के उद्देश्य से वर्णित हुए हैं। अकासुर, वकासुर इत्यादि दैत्यों का वध कृष्ण के ईश्वरत्व रूप के स्थापना के साथ इन असुरों के उद्धार को भी सूचना प्रदान करता है। खण्ड २१, अंक ३ ३२७ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कंस द्वारा प्रेरित पूतना कमनीय रूप धारणा करके कृष्ण को सविष स्तनपान कराने के कार्य में प्रवृत्त होती है। किन्तु योगेश्वर कृष्ण दुग्धपान के साथ उसके प्राणों को भी अपने अन्दर समाहित कर लेते हैं। इसी प्रसंग में गोपों को उनके ईश्वरत्व रूप का आभास हो जाता है। विद्वानों ने इस पूतना वध प्रसंग की दार्शनिक व्याख्याएं भी प्रस्तुत की हैं । आचार्य वल्लभाचार्य ने पूतना को अविद्या का प्रतीक माना है । विद्वानों के अनुसार पूतना शब्द का विच्छेद करने पर नृशब्द से न यह शब्द सिद्ध होगा और पूत शब्द पवित्र का वाचक है। इस प्रकार पूतना शब्द से यह अभिप्राय अभिव्यंजित होता है कि महायोगेश्वर कृष्ण ने अपनी प्राणवायु से अविद्या का नाश करके समस्त. क्षेत्र को पवित्र कर दिया। श्रीकृष्ण की कतिपय लीलाएं मात्र गोपजनों के मन प्रसादन के लिए हैं तथा इसके अतिरिक्त अन्य लीलाएं इनके ईश्वरत्वरूप की प्रतिष्ठापिका हैं। मृतिकाभक्षण काल में मां यशोदा के कहने पर मुख्य खोलने पर उसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का दर्शन कराना इनके ईश्वरत्व रूप की ओर इंगित करता है। - श्रीमद्भागवत में विविध उपाख्यानों के द्वारा भक्ति की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है। भक्त होने के लिए किसी जाति एवं वर्ण का व्यक्ति सर्वत: अह है। दैत्य कुलोत्पन्न अनेक राजाओं में हमें भक्ति के चूड़ान्त वर्णन उपलब्ध होते हैं। यदि यह कहा जाए कि श्रीमद्भागवत की भक्ति के प्रधान पुरुष ये दैत्य वर्ग के लोग रहे हैं तो अत्युक्ति न होगी। इस सम्बन्ध में दैत्यराज बलि एवं चित्रकेतु की कथा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भागवतकार की भक्ति के पात्र वर्ग विशेष के लोग ही नहीं है। यह चन्द्रमा की शीतल किरणों की भांति सबके हृदय में आह्लाद उत्पन्न करने वाले ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल तक, देव से लेकर दैत्य तक सभी वर्ग के लोग इस भक्ति के भाजन बन सकते हैं । इस स्थिति में यह कहना समीचीन होगा कि वैदिक कालीन याज्ञिक क्रियाओं के द्वारा समाज में जो वर्ग भेद भित्ति खड़ी कर दी गई थी, उसे श्रीमद्भागवत में भक्ति के प्रहार से ढा दिया। इस प्रकार भारतीय संस्कृति एवं दर्शन की मूल भावना समन्वयवाद है । समन्वयवाद आधुनिक विचारकों की देन नहीं है। यह हमारी संस्कृति का मूत्र मंत्र है। -शोध छात्रा संस्कृत विभाग कुमायूं विश्वविद्यालय नैनीताल ३२८ तुलसी प्रज्ञा Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्दर्भ : १. वदन्ति तत्त्वत्व विदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् । ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्दयते ।।-श्रीमद्भागवत २. सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। ___अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ।।- श्रीमद्भागवतगीता ३. यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यम् ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥~-श्रीमद्भगवदगीता ४. मैत्रायणि उपनिषद्-४।१२।१३ खंड २१, अंक ३ ३२९ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् भागवतीय आख्यानों का विवेचन (२) [हरिशंकर पाण्डेय श्रीमद् भागवत पुराण में आख्यान और उपाख्यानों की भरमार है । हर विषय के आख्यान यहां समुपलब्ध हैं और इन आख्यानों में विविधानेक विषयों का विवेचन प्राप्त होता है । भक्ति, स्तुति, अनुग्रह दर्शन ईश्वर, जीव, जगत्, दान, यज्ञ, राजधर्म, शाप, वरदान आदि की विस्तृत व्याख्या उपलब्ध होती है । इन विषयों को दो उपवर्गों में विभाजित किया गया है : - आध्यात्मिक एवं लौकिक । (i) आध्यात्मिक इसमें अध्यात्म से सम्बन्धित विषय जैसे भक्ति, स्तुति, अनुग्रह, दर्शन आदि का विवेचन प्रधानरूप से रहता है । (क) भक्ति - श्रीमद्भागवत महापुराण की रचना का मूल प्रयोजन भक्ति का विवेचन ही है । भगवान् नारद द्वारा उपदिष्ट होकर ऋषि ब्यास ने सांसारिक अनर्थों की शान्ति के लिए भगवत्भक्ति परक परमहंसों की संहिता श्रीमद्भागवत की रचना की, जिसके श्रवण मात्र से ही प्रेममयी भक्ति हो जाती है, जो जीव के शोक, मोह, और भय को नष्ट करने वाली है -- अनर्थोपशमं साक्षाद्भक्तियोगमधोक्षजे । लोकस्याजानतो विद्वांश्च सात्वतसंहिताम् ॥ यस्यां वै श्रूयमाणायां कृष्णे परम पुरुषे । भक्तिरुत्पद्यते पुंसः शोकमोहभयापहा ॥' आख्यानों में दो प्रकार की भक्ति दष्टिगोचर होती है । (i) भजात्मिका किंवा भजन अथवा सेवा स्वरूपा । (ii) भञ्जात्मिका किंवा भव बन्धन विनाशिका | प्रथम की निष्पत्ति 'भजसेवायाम्' से क्तिन् प्रत्यय करने पर होती है जिसका अर्थ है— गुणकीर्तन वन्दन, सेवन, भजन आदि और द्वितीय 'भजो आमर्दने' धातु से करण अर्थ में क्तिन् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होती है, जिसका अर्थ भवबंधन विनाशिका भवबाधाप्रणाशिका आदि है । दोनों प्रकार की भक्ति एक दूसरे की सहायिका है। एक के बिना दूसरी अपूर्ण है । कहीं भक्ति भजन से प्रारंभ होती है तब भव बन्धन का विनाश होता और कहीं भव भय भंजन से प्रारंभ होकर भजन में पर्यवसित हो जाती है । सत्त्वमूर्ति श्री हरि के प्रति स्वभाविक प्रवृत्ति को भक्ति कहते हैं जो कर्म संसार रूप लिंग शरीर को शीघ्र ही भस्म कर देती है, जैसे जठरानल भुक्त भोजन को । खण्ड २१, अंक ३ ३३१ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु चरणों में अखण्डात्मिका रति को भक्ति कहते हैं, जिसके द्वारा भक्त सद्यः संसार सागर से पार उतर जाता है। संसार में जीव मात्र का एकमात्र कल्याण साधक भक्ति ही है। योगियों के लिए भी भक्ति के अतिरिक्त और कोई मङ्गलमय मार्ग नहीं है। श्रीमद्भागवत में नवधा भक्ति का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पादसेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य और आत्मनिवेदन आदि नवधा भक्ति है। अन्यत्र शुकदेवप्रोक्त श्रवण, कीर्तन स्मरण रूप त्रिधा भक्ति, सूतोपदिष्टा चतुर्धा भक्ति, श्रुतोदिता पंचधा भक्ति', नलकुबर मणिग्रीव निगदिता षोढा भक्ति, कपिलोपदिष्टा सप्तधा भक्ति" शौनकप्रोक्ता दशधा भक्ति,२ अम्बरीषोक्ता एकदशधा भक्ति" नारदोपदिष्टा द्वादशधा भक्ति," श्रीकृष्ण द्वारा कथित त्रयोदश प्रकार और पञ्चदश प्रकार की भक्ति," कपिल द्वारा उपदिष्टा अठारह प्रकार की भक्ति," सनकादि कुमारों द्वारा प्रवाचिता उन्नीस प्रकार की भक्ति, कपिलोक्ता २० प्रकार और २५ प्रकार की भक्ति," भगवान् कृष्ण द्वारा कथिता १२४ प्रकार की भक्ति, तथा ऋषभ के द्वारा प्रोक्ता २६ प्रकार की भक्ति का विवेचन उपलब्ध होता है। (ख) अनुग्रह -श्रीमद्भागवतीय आख्यानों में अनुग्रह तत्त्व का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। भक्त बार-बार भगवदनुग्रह की ही याचना करता है। भगवान् अनुग्रह के खनि हैं, वे भक्तों पर हमेशा कृपा दृष्टि बनाये रखते हैं।" जब जीव काल कर्मादि के द्वारा ग्रस्त हो जाता है वहां अनुग्रह करने के लिए स्वयं परमप्रभु प्रगट हो जाते हैं ।२ जब जीव का बल-पौरुष क्षीण हो जाता है और वह संकट में फंस जाता है तब भगवान् स्वयं उसको बलवीर्य प्रदान कर उसका उद्धार करते हैं। इस प्रकार आख्यानों में अनेक स्थलों पर कृपा, अनुग्रह, दया, करुणा आदि का वर्णन पाया जाता है। (ग) शरणागति --यह श्रीमद्भागवत के मुख्य प्रतिपाद्यों में से एक है। भक्ति का ही अंग है। भक्त जन अपने सभी पुण्य पापों को प्रभु के चरणों में समर्पित कर उसी के हो जाते हैं--- शणेन मयेन कृतं मनस्विनः सन्यस्य संयान्त्यभयं पदे हरेः।" आपदकाल में भक्त जन अपने सारे लोकिक सम्बन्धियों को छोड़कर प्रभु चरण शरण ही ग्रहण करते हैं, क्योंकि प्रत्यक्ष मृत्यु मुख से तो वे ही बचा सकते हैं ।२४ इसलिए भक्त केवल विपत्तियों की ही कामना करते हैं, जिससे प्रभु चरणों का बारबार दर्शन होता रहे ।" भगवच्छरणागति को छोड़कर भक्त स्वर्ग, ब्रह्मलोक, भूमण्डल का साम्राज्य, रसातल का एकक्षत्र राज्य, योग की सिद्धियां, यहां तक कि मोक्ष की भी कामना नहीं करता। वह वैसा कुछ भी नहीं चाहता जहां पर प्रभु चरण कमलमकरन्द नहीं हैं। संकट काल उपस्थित होने पर देवता लोग उस सव्यात्मक प्रभु की शरणागति ग्रहण करते हैं : ३३२ तुलसो प्रज्ञा Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपन्नाः अपने पति के प्राणरक्षणार्थ नागपत्लियां भगवान् श्री कृष्ण चरणों की शरणागति ग्रहण करती हैं । गोपियां सम्पूर्ण संसार - भाई - बाप पति-पुत्र, धन दौलत आदि सबका परित्याग कर प्रभु चरणों की अनन्य शरणागति स्वीकार करती है ।" पितामह भीष्म संसार से वितृष्ण होकर प्रभु चरणों में ही सदा सर्वदा के लिए स्थित हो गए ।" राजा अम्बरीष प्रभुशरणागति से ही मुक्त हो गए ।" शरणागति के द्वारा भक्त अपना सबकुछ समर्पित कर निश्चिन्त हो जाता है और स्वयं प्रभु श्रीकृष्ण ही उसके योग-क्षेम का वहन करते हैं । २८ (घ) स्तुति - श्रीमद्भागवतीय आख्यानों में विविध अवसरों पर भक्तों के द्वारा अपने उपास्य के चरणों में स्तुत्यांजलियां समर्पित की गई हैं। ये स्तुतियां मुख्यतः दो प्रकार की हैं - सकाम और निष्काम । निष्काम स्तुतियां दो प्रकार की हैं : -- १. साधन प्रधान और २. तत्त्वज्ञान प्रधान । साधन प्रधान स्तुतियों में प्रभु चरण रज की प्राप्ति की प्रधानता रहती है ।" तत्त्वज्ञान प्रधान स्तुतियों में स्तुति करते-करते भक्त अपना स्वरूप स्तुत्य में ही समर्पित कर स्तुत्य रूप हो जाता है ।' * सकाम स्तुतियां किसी कामना, इच्छा या सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए की गई हैं । ये अनेक प्रकार की हैं - (i) भवबन्धन से मुक्ति के लिए (ii) कष्ट से त्राण के लिए, (iii) रोग से मुक्ति के लिए (iv) संसारिक अभ्युदय पुत्र, पति, धन, साम्राज्य आदि की प्राप्ति के लिए । उपरोक्त विवेचित सभी प्रकार की स्तुतियां भागवतीय आख्यानों में प्राप्त होती हैं । (ङ) दर्शन - श्रीमद्भागवतीय आख्यानों में दर्शन के विभिन्न पक्षों का उद्घाटन हुआ है । भागवत के प्रथम मंगल श्लोक में ही उसमें विवेचित दर्शन का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है । भागवतकार वैसे सत्य स्वरूप प्रभु का ध्यान करता है --- 'सत्यं परं धीमहि जो सर्वतन्त्र स्वतन्त्र, सर्वव्यापक, स्वयंप्रकाश, चेतन, अनन्त तथा ज्ञानस्वरूप है । वही जगत् की सृष्टि, स्थिति एवं लय का आधार है । भागवत में विवेचित दार्शनिक तत्त्वों- जीव, ईश्वर, माया, संसार आदि का स्वरूप इस प्रकार है : (i) जीव जीव भगवान् द्वारा शासित होता है । वह अल्पसत्त्व, मरणधर्मा तथा कर्मफलों का भोक्ता होता है । वह देह गेह में फंसकर अपने प्रकृत स्वरूप को विस्मृत कर देता है । भगवान् सबसे रहित अमृत स्वरूप एवं आनन्दमय हैं । भगवान् नियामक और जीव नियम्य है । जीव मायापाश में निबद्ध एवं भगरहित है । माया पाश में बंधा हुआ वह संसृत्ति चक्र में बार-बार भटकता रहता है । वह भगच्छरणागति के द्वारा संसार से मुक्त होकर प्रभु के अभय पद को प्राप्त कर लेता है । (ii) माया -कपिलाख्यान में माया का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है । खण्ड २१, अंक ३ ३३३ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माया के कार्य के द्वारा ही उसका अनुमान किया जाता है। वह भगवान् की शक्ति है, जिसके द्वारा वे सृष्टि कर्म में प्रवृत होते हैं। वह अनिर्वचनीय, भावरूप तथा ज्ञानविरोधी है। वह जीव को संसृति चक्र में फंसा देती है । भगवद्भक्ति के द्वारा भक्त इस दुस्तरा माया को शीघ्र ही पार कर जाता है। आदि पुरुष जिसके द्वारा भूत समुदाय को उत्पन्न करते हैं, भोग, अपवर्ग एवं मनुष्यादि के शरीर का निर्माण करते हैं, वह माया है। यही माया सृष्टि, स्थिति और प्रलय की कारणभूता है।" (iii) जगत्-विभिन्न आख्यानों के अवलोकन से स्पष्ट है कि यह परिदृश्यमान' जगत् केवल मनोविजृम्भण मात्र है। जल बुद्बुद्वत है। असत् होते हुए भी यह संसार सत्य प्रतीत होता है। यह सम्पूर्ण जगत् उसी परम प्रभु से उत्पन्न होता है, बढ़ता है तथा विनाश को प्राप्त होता है । भागवतीय आख्यानों में विभिन्न प्रकार की सृष्टि का वर्णन मिलता है।" सर्व प्रथम विष्णु के नाभि-कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए। उन्होंने अपनी सात्विकी वृत्ति से देवों को, तामसी वृत्ति से यक्ष राक्षसों को, कान्तिमयमूर्ति से गन्धर्व एवं अप्सराओं को, तन्द्रा से भूतपिशाच को, तेजोमय स्वरूप से साध्यगण एवं पितृगण को, तिरोधान शक्ति से विद्याधरों को तथा अपने बालों से सादि की सृष्टि की। अन्यत्र भी अनेक स्थलों पर जगत् स्वरूप का विवेचन उपलब्ध होता है। (iv) विराट् ऋग्वेदीय पुरुषसूक्त में प्रतिपादित विराट् पुरुष का वर्णन भागवत में भी प्राप्त होता है। कार्यरूप सम्पूर्ण विश्व में जो पहले था होगा या विद्यमान है, वह सब विराट् स्वरूप ही है। जल, अग्नि, वायु, आकाश, अहंकार, महत्त्व और प्रकृति आदि सात आवरणों से परिव्याप्त ब्रह्माण्ड शरीर में विद्यमान परमेश्वर ही विराट् पुरुष है। विराट् से ही सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न होता है । विराट की उत्पत्ति स्वराट् से होती है। वह स्वराट् सर्वतन्त्र स्वतन्त्र, सर्वव्यापक, लोकातीत एवं सत्यस्वरूप होता है। श्रीमद्भागवत का प्रतिपाद्य सत्यस्वरूप परमब्रह्म परमेश्वर ही है, क्योंकि भागवत का प्रारंभ और अंत उसी के ध्यान से होता है धाम्ना स्वेन सदा निरस्त कुहकं सत्यं परं धीमहि ॥११ तच्छुद्ध विमलं विशोकममृतं सत्यं परं धीमहि ॥२ विभिन्न प्रकार के परवर्ती दार्शनिक सम्प्रदायों का उपजीव्य श्री मद्भागवत ही है। अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैत, द्वैत, अचिन्त्य भेदाभेद आदि का मूल उत्स भागवत ही है । सांख्य दर्शन का विस्तृत विवेचन तृतीय स्कन्ध के छब्बीसवें एवं अठाइसवें अध्याय में उपलब्ध होता है। (v) योगसिद्धान्त नैक स्थलों पर विविध प्रकार के योग सिद्धान्तों का ३३४ तुलसी प्रज्ञा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवेचन उपलब्ध होता है । आष्टांगिक योगमार्ग, पातञ्जल योगसूत्र की अपेक्षा किंचित् विस्तार से यहां विवेचित है। पांच-पांच यम-नियमों के स्थान पर श्रीमद्भागवत में १२-१२ यम-नियम प्रतिपादित किए गये हैं । आसन प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन भी मिलता है ।" (च) यज्ञ - भागवतीय आख्यानों में अनेक स्थलों पर विभिन्न प्रकार के यज्ञों का वर्णन मिलता है । प्रभुकृपा, प्रजा की समृद्धि, धनधान्य की प्राप्ति, ऐहिक एवं पारलौकिक अभ्युदय के लिए विभिन्न अवसरों पर यज्ञ सम्पादित किए थे । राजा पृथु प्रभु कृपा की प्राप्ति के लिए, प्रजापति दक्ष प्रजासृष्ट्यर्थ यज्ञ का विधान करते हैं । युधिष्ठिर द्वारा सम्पादित राजसूय यज्ञ का भी विवेचन उपलब्ध होता है । भागवतीय आख्यानों में यज्ञ दो प्रकार के मिलते हैं (i) प्रभु प्रेम की प्राप्ति के लिए सम्पादित यज्ञ, (ii) लौकिक अभ्युदय की प्राप्ति के लिए यज्ञ । राजा अम्बरीष, पृथु आदि द्वारा सम्पादित यज्ञ प्रभु प्रेम की प्राप्ति के लिए है तथा प्रजापति लौकिक अभ्युदय अथवा प्रजासृष्टि के लिए यज्ञ अनुष्ठित करते हैं । मान्धाता ने अनेक यज्ञों के द्वारा स्वयं प्रकाश, सर्वदेव, स्वरूप, सर्वात्मा और इन्द्रियातीत प्रभु की आराधना की थी ।" राजा ययाति ने समस्त वेदों के प्रतिपाद्य यज्ञस्वरूप भगवान् का प्रभूत दक्षिणावाले यज्ञों के द्वारा यजन किया था । *" राजा बलि ने प्रभु प्रेम की प्राप्ति के लिए अनेक यज्ञों का अनुष्ठान किया था । ४५ (छ) तप- श्रीमद्भागवतीय आख्यानों में अनेक स्थलों पर विविध प्रकार के तप का वर्णन मिलता है । कर्दम प्रजापति और देवहूति, कपिल, ध्रुव, प्रह्लाद, अम्बरीष, रन्तिदेव, दक्षप्रजापति आदि पात्र विभिन्न कारणों से या विभिन्न प्रयोजन से तप की ओर प्रवृत्त दिखाई पड़ते हैं । सृष्टि रचना में सामर्थ्य की प्राप्ति के लिए भगवान् विधाता ब्रह्मा को तप करने के लिए उद्यत करते हैं ।" विमाता द्वारा अनादृत होकर ऋषि नारद द्वारा बताए गये स्थान पर बालक ध्रुव कठोर तपश्चरण कर भगवान् का अनन्यप्रेम प्राप्त कर लेता है । बालक ध्रुव के कठोर तपश्चरण से प्रसन्न स्वयं भगवान् ही उसके पास पधारते हैं ।" राजा पृथु अन्त काल में कठोर तपश्चरण द्वारा भवबन्धन का उच्छेदन कर ब्रह्ममय हो गये । " तप के द्वारा अन्तःकरण की शुद्धि और ब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है ।" ऋषि मार्कण्डेय की तपस्या जगद् विख्यात है । २ इस प्रकार विभिन्नस्थलों पर तपश्चरण का उल्लेख मिलता है । (ii) लौकिक - - इस वर्ग में आख्यानों में विद्यमान लौकिक विषयों को रखा गया है । युद्ध, राजधर्म दण्डविधान, विवाह, लोकप्रथाएं, लोकविश्वास लोकमङ्गल आदि खण्ड २१, अंक ३ ३३५ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का विवेचन है :(क) युद्ध -श्रीमद्भागवतीय आख्यानों में अनेक प्रकार के युद्ध का उल्लेख मिलता है। दुष्टों के संहार के लिए, भक्तों के उद्धारार्थ, प्रतिशोध की भावना के वशीभूत होकर राज्य सीमा के विस्तारार्थ, ईर्ष्या या द्वेष के कारण से युद्ध का आविर्भाव हुआ है । भगवान् श्रीकृष्ण अनेक राक्षसों का संहार करते हैं। यक्षों से राजा ध्रव का युद्ध अत्यन्त रोमांचकारी है। अपने भ्राता उत्तम के वध का बदला लेने के लिए धनुर्धर ध्रुव ने विभिन्न प्रकार से युद्ध में प्रवृत होकर यक्षों का विनाश किया ।५३ भागवत में अनेक प्रकार के युद्ध जैसे-आयुद्ध युद्ध, मलयुद्ध, गदायुद्ध, । मुष्टियुद्ध आदि का वर्णन प्राप्त होता है। (ख) राजधर्म का निरूपण - आख्यानों में राजधर्म का विस्तृत निरूपण हुआ है। श्रीमद्भागवतीय राजा प्रजानुरजक थे। प्रजा के लिए ही वे जीवन धारण करते थे। उनका एक-एक कत्तव्य प्रजा के लिए ही समर्पित होता था। राजा शत्रु एवं पुत्र को समभाव से देखता था। दण्डनीय होने पर वह पुत्र को भी दण्डित करता था। प्रजानुरञ्जन के कारण ही राजा को राजा कहा जाता था। रञ्जयिष्यति मल्लोकमयमात्मविचेष्टितैः । अथामुमाहू राजानः मनोरञ्जकैः प्रजा ।।४।। वह दृढ़ संकल्प, सत्य प्रतिज्ञ, ब्राह्मण-भक्त, वृद्धजनसेवक, शरणागत वत्सल, सर्वप्राणियों को मान देने वाला और दीनों पर दया करने वाला होता था ।५५ वह परस्त्री को माता के समान, पत्नी को अर्धांग के समान, प्रजा पर पिता के समान प्रेम रखता था ।५६ दुष्टों के लिए यमराज के समान अतिभयंकर और क्लेशदायी होता था। राजा रन्तिदेव वैभव-विलास, ऋद्धिसिद्धि आदि का परित्याग कर सम्पूर्ण लोक किंवा प्रजा का दुःख अपने ऊपर ले लेना चाहते हैं, जिससे कि एक भी प्राणि कष्ट में न रह सके । न कामयेऽहं गतिमीश्वरात् परा मष्टद्धियुक्ताम पुनर्भवं बा । आति प्रपद्येऽखिल देहभाजा मन्तः स्थितो येन भवन्त्यदुःखाः ।।५७ दुष्ट राजाओं का भी वर्णन प्राप्त होता है, जिनसे प्रजा संत्रस्त रहती थी। राजा वेन के आतंक से सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई थी। कंश, जरासंध आदि राजा ऐसे ही थे। इससे तत्कालीन समाज की उच्छृखलता का बोध होता है। राजा देवांश है-भागवतकार ने यह प्रतिपादित किया है कि राजा देवांश होता है। स्वयं विष्णु ही लोकमङ्गल के लिए राजा के रूप में अवतरित होते हैं । राजा देवांश होता है-इसका प्रतिपादन भागवतकार ने अनेक तुलसी प्रज्ञा Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थलों पर किया है।५८ राजा के लिए भगवत्कलामृत (५-१५-९) कलयावतीर्ण (४-१६-१०) आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है । भगवान् श्रीकृष्ण ही भू रक्षणार्थ पृथ के रूप में अवतरित हुए। (ग) बिवाह--मनुस्मृति में प्रतिपादित ब्राह्म, देव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस, पैशाच आदि विवाह भेदों में से भागवत में अधिकांश ब्राह्मविवाह का ही प्रतिपादन किया गया है। 'उत्तम सन्तान से लोकमङ्गल सम्पादित होता है' इस धारणा से भावित होकर लोग श्रेष्ठ विवाह संस्कार सम्पादित करते थे । अन्य विवाहों का भी उल्लेख यत्र तत्र मिलता हैउषा-अनिरुद्ध एवं श्रीकृष्ण का विवाह प्रेम विवाह के उदाहरण हैं। उस समय अन्तर्जातीय एवं बहुविवाह प्रथा भी प्रचलित थी। भगवान् श्रीकृष्ण के अनेक विवाहों का उल्लेख मिलता है। प्रजापति कश्यप की दो पत्नियां ---- अदिति और दिति, उत्तानपाद की दो रानियां-सुरुचि और सुनीति तथा दक्ष प्रजापति के अनेक पत्नियों का उल्लेख मिलता है।" ___ यत्र तत्र स्वयंवर का भी उल्लेख मिलता है। राजा नग्नजित् की प्रतिज्ञा थी कि स्वयंवर में एकसाथ सात बैलों को जो नाथ देगा उसी के साथ उनकी कन्या. नग्नजिती का विवाह होगा। भगवान् ने बैलों को नाथ कर उनकी प्रतिज्ञा पूर्ण की। बलपूर्वक विवाह भी तत्कालीन समाज में प्रचलित था। भगवान् श्रीकृष्ण ने मित्रविन्दा का बलपूर्वक अपहरण कर उसके साथ विवाह रचाया था ।। इस प्रकार भागवत में अनेक प्रकार के विवाह का वर्णन मिलता है। (घ) शाप और वरदान --- श्रीमद्भागवतीय आख्यानों में विभिन्न स्थानों पर शाप और वरदान आए हैं। शाप और वरदान दोनों में भागवतकार की मंगलचेतना ही अनुस्यूत है । शाप भी मङ्गलदायक ही है। गजेन्द्र, वृत्रासुर आदि को शाप नहीं मिला होता तो संसार में उन्हें कौन जानता और न प्रभु चरणों में उनकी भक्ति ही पूर्ण होती। नलकुबर-मणिग्रीव अत्यन्त भोगासक्त हो गए थे। शाप के कारण ही प्रभु श्रीकृष्ण के द्वारा उनका उद्धार हुआ। आख्यानों में उपन्यस्त निम्नलिखित शाप-प्रसंग प्रमुख हैं१.१-१३-१५ में माण्डव्य ऋषि के द्वारा यमराज को शापित करना, जिससे यमराज विदुर के रूप में उत्पन्न होते हैं। २. ३-१५-३४---सनकादि कुमारों द्वारा जय-विजय को शाप दिया जाना वर्णित ३. ४-२-१८-दक्ष द्वारा शिव को शाप तथा ४-२-२०, २१ में नन्दीकेश्वर द्वारा दक्ष को शाप । बंर २१, अंक ३ ३३७. Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. ६-१३-१६ में ऋषियों द्वारा नहुष को शाप दिया जाना जिससे सर्प गति में .. उनका जन्म होता है।। ५. ६-१७-१५-पार्वती द्वारा चित्तकेतु को शाप । ६. ८-२०-१५ -शुक्राचार्य द्वारा बलि को शाप । ७. ९-७-५--पिता और गुरु के द्वारा त्रिशंकु को शाप । ८. ९-७-७ विश्वामित्र और वशिष्ठ का एक दूसरे को प्रतिशाप । ९. ९-१६-२२ देवयानी का कचद्वारा शापित होना । १०. ९-१८-३६-शुक्राचार्य द्वारा ययाति को शाप की प्राप्ति । ११. १०-१०-२१-नलकुबर मणिग्रीव को ऋषि नारद का शाप । १२. ११-७-३---ब्राह्मण शाप से यदुवंश का विनाश । १३. १-१८-३७ ----शमीक पुत्र के द्वारा राजा परीक्षित् को शाप । १४. ३-३-२४ --ब्राह्मणों द्वारा यदु और भोज को शाप । (ii) वरदान -श्रीमद्भागवतीय आख्यानों में नैक स्थलों पर वरदान प्रसंग आया है। भगवान् अपने भक्तों को वरदान देकर प्रसन्न करते हैं । निम्नलिखित वरदान प्रमुख हैं१.३-२४-१६-१९----ब्रह्मा द्वारा कर्दम को वरदान । २.४-९-२०-ध्रुव को ध्रुवलोक गमन का वरदान । ३. ४-१२-८-९-कुबेर द्वारा ध्रुव को वरदान । ४. ८-९-२४,३२-दुर्वासा से कुन्ती को देवावाहनी विद्या की प्राप्ति । ५. ९-५-१३ -दुर्वासा द्वारा अम्बरीष को आशीर्वाद । ६. १०-१०-४२-नबकुबर मणिग्रीव को भगवान् से भक्ति की प्राप्ति । ७. १०-५९-४९--ब्राह्मणों द्वारा श्रीकृष्ण को वरदान । सन्दर्भ : १. श्रीमद्भागवत महापुराण -१.७.६-७ २. तत्रैव-३.२५.३२-३३ १.८.४२ ३.२५.४० ३.२५.१९ ७.५.२३ im : * or so श्री मद्भागवत महापुराण ---१.२.१४ तत्रैव -१०.८६.४६ " १०.१०.३८ " ३.२७.२१-२३ " २.३.१९-२४ १३. " ९.४.१८-२० ३३८ तुलसी प्रज्ञा Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ oro ro Momrrrrrrrrr Mr Mr m mmmmm r mr mo ७.७.३०-३६ क्रमशः ११.२९९-१६ और ११.१९.२०-२३ ३.२७.६-११ ४.२२.२२-२५ क्रमश: ३.३९.१५-१९ एवं ३.२८.२-६ ११.११.३४-४१ ५.५.१०-१३ ४.२०.३४ ८.३.३० ५.१९.२३ १.८.९ १.८.२५ ६.११.२५ ४.२०.२४ १०.२.२६ १०.१६.५२ १०.२९.३१ १.९.४२ ९.५.२६ ४.२०.२४ १०.८७.४१ ११.३.१६ ११.३.१६ ३।२० सम्पूर्ण अध्याय ३९. " २.११.२४-३९ ४०. " २६ ४१. ऋग्वेद, पुरुष सूक्त १०।९०१५ ४२. श्रीमद्भागवत महापुराण १.१.१ ४३. तत्रैव १२.१३.१९ ४४. " ११.३.१६ ४५. " ११.१.६, ३.२८-८ I ३.२८.९, २.१.१७, ११.१४.३४ । १.१.१८, ११.१४.४२ I २.२.८-१२ । ३.२८.२१-३३ I ३.२५.१९ I ४६. " ९.६.३५ ४७. " ९.१८.४८ ४८. " ८.१८.२० खण्ड २१, बंक ३ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...65ss xxx " ३.९.३० " ४.९.२ ४.२३.१३ " ५.५.१ १२.८.७ " ४.१०.७-२९ " ४.१६.१५ " ४.१६.१६ " ४.१६.१७ " ९.२१.१२ ४.११.१८, ५.१५.६,९, ४.१६.१९, ४.१७.६-७ ४.१७.६ " १०.५८.३१ -जैन विश्वभारती संस्थान लाडनूं-३४१३०६ ३४० तुलसी प्रज्ञा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीत सम्बन्धी एक रहस्यमय पद 9 डॉ० जयचन्द्र शर्मा एक सज्जन ने जैनागम में सप्त-स्वरों विषयक गाथाओं के संदर्भ में संगीत सम्बन्धी एक पद जानकारी हेतु मुझे लिखा और पूछा --संगीत की दृष्टि से क्या यह ठीक है ! पद की शब्दावली निम्न प्रकार है : सामा गायइ मधुरं कालो गायइ खरंच रुक्खं च । गोरी गायइ चाउरं काणाय विलंवियं दुतं अन्धा विस्सरं पुण पिंगला। उपर्युक्त पद में जिस प्रकार गायक अथवा गायिका की शारीरिक स्थिति, आंगिक विकलता एवं सकलता के अनुसार गायन एवं लय का वर्णन किया है, वह सही नहीं है। मानव की शारीरिक स्थिति से गायन-कला का कोई सम्बन्ध नहीं होता । पद-रचयिता ने इसमें गूढ़-रहस्य की बात कही है, जो सामान्य व्यक्ति की समझ में नहीं आ सकती ! इस सम्बन्ध में मैंने जैन समाज की अनेक संस्थाओं, विद्वानों आदि से सम्पर्क स्थापित किया किन्तु मुझे सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिला किन्तु एक पत्र डॉ० परमेश्वर सोलंकी का जैन विश्व भारती, लाडनूं से प्राप्त हुआ। उक्त पत्र में उन्होंने लिखा "आपने सामा गायइ मधुरं-आदि जो गाथा लिखी है, वह अनुयोगद्वारजैन (श्वेताम्बर) आगम की गाथा है, जो सात स्वरों के कथन-प्रसंग में कही गई है । आचार्य महाप्रज्ञ ने इसका मूल पाठ इस प्रकार दिया है (क्रमांक-३०७ की गाथा-१२) केसी गायइ मधुरं । केसी गायइ खरंच रुक्खंच । केसी गायइ चउरं। केसी य विलंबियं। दुतं केसी। विस्तरं पुण के रिसी। बण्ड २१, अंक ३ ३४१ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह पाठ "नव सुताणि" में पृष्ठ ३४६ पर है । इसके अलावा अन्य प्रकाशनों में भी यही पाठ है किन्तु वह शुद्ध नहीं है । यह कौन स्त्री कैसा गाती है का उत्तर है, प्रश्नोत्तर है ।" उपर्युक्त प्रश्नोत्तर से हमारी शंका का समाधान एक प्रकार से हो जाता है किन्तु संगीत कला की गहराई में गोता लगाने पर अन्य जानकारी भी मिलती है, जो आध्यात्मिक भाव की ओर संकेत करती है । हमारे देश के संतों, महात्माओं एवं विद्वानों ने रहस्यमय शब्दावली का प्रयोग किया है, जिनका अर्थ कबीर के पदों की शब्दावली का अर्थ प्रत्येक व्यक्ति के "नाव में नदियां डूबी जाय" आदि उलटवांसी । अपनी रचनाओं में कुछ ऐसी सहज में समझना कठिन है । समझ में नहीं आ सकता जैसे 1 अमर कलाकार तानसेन ने एक ध्रपद में "सप्त प्रकट सप्त गुप्त स्वर" का उल्लेख किया है । सप्त प्रकट स्वरों की बात तो समझ में आती है परन्तु सप्त गुप्त स्वरों का रहस्य समझ में नहीं आ पाता । इस विषय को संगीत कला के महान् विद्वान् स्व. आचार्य श्री कैलाश चंद्र वृहस्पतिजी ने मूर्च्छना पद्धति के आधार पर प्रस्तुत किया था परन्तु इसे वे भी पूर्णतया स्पष्ट नहीं कर पाये । संगीत सम्बन्धी अनेक गीत व पद हैं जिनका सम्बन्ध आत्मा और परमात्मा के साथ जुड़ा हुआ है । इन्हीं भावों को ध्यान में रखकर जैनागम के उक्त पद पर विचार करें तो उन पंक्तियों का अर्थ निम्न प्रकार हो सकता है पद की प्रथम पंक्ति में "सामा गायइ" शब्द है । है । यह हमारी शुद्ध व सात्विक गुणों वाली आत्मा है, ध्येय से मधुर स्वरों में गुणगान करती है । द्वितीय पंक्ति में "काली" शब्द का प्रयोग कलुषित है, जो रुखे स्वभाव से सम्बन्धित है । अपने स्वभावानुसार ही वह गाती है । यहां "सामा" कोई स्त्री नहीं जो प्रभु को प्राप्त करने के आगे की पंक्ति में "गोरी गायइ चतुरं" का अर्थ है गोरी अर्थात् ज्ञानवान आत्मा चतुराई से सोच-समझ कर गाती है । आत्मा के लिए किया गया चंचलता नहीं है । चंचल गति चतुर्थ पंक्ति में विलंबित लय में गाने वाली को कांणी (एक आंख वाली) नाम से सम्बोधित किया गया है । अर्थात् जो संसार को एक नजर से देखे, ऐसी आत्मा धै पूर्वक धीरे-धीरे विलंबित लय में गाती है । उसमें ( द्रुत लय) में अज्ञानी (अन्धी) आत्मा गाती है । अन्त में " पिंगला को बेसुरा गाने वाली कहा है | पिंगला हमारे शरीर में एक नाड़ी है तथा पिंगला का अर्थ पीत वर्ग से भी है। गायन कला का इन दोनों अर्थों से सम्बन्ध नहीं है । पिंगला का अर्थ है सर्पिणी । सर्पिणी की चाल टेढ़ी होती है । जहरीली फुंकार वाली सर्पिणी का दृष्टान्त देकर अपने भावों को पद रचयिता ने व्यक्त किया है । ऐसी आत्मा के स्वर मधुर कैसे हो सकते हैं ? वह तो हर समय बेसुरी राग ही आलापेगी । ३४२ तुलसी प्रशा Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस प्रकार इस पद में मानव आत्मा के विविध प्रकार के भावों की स्थिति का आभास मिलता है। आत्मा को सामा, काली, गौरी आदि स्त्री रूप में वर्णित किया गया है। इस प्रकार उक्त पद का संगीत कला की दृष्टि से मूल्यांकन करने पर यह अध्यात्म-भाव सामने आता है। --निदेशक श्री संगीत भारती बीकानेर-३३४००१ खंड २१, अंक ३ ३४३ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक-समीक्षा और साहित्य-सत्कार १. जैन आगमः वनस्पतिकोश- वाचना प्रमुख गुरुदेव श्री तुलसी, प्रधान संपादक आचार्य श्री महाप्रज्ञ, संपादक मुनि श्रीचंद 'कमल' । प्रकाशक- जैन विश्व भारती, लाडनूं । प्रथम संस्करण-१९९५ । मूल्य-२०० रुपये। आगम शब्दकोश, देशीशब्दकोश, एकार्थककोश और निरुक्तकोश के पश्चात् यह पांचवां वनस्पतिकोश जैन विश्व भारती से प्रकाशित हुआ है। यह वाचना प्रमुख गुरुदेव श्री तुलसी के आशीर्वाद एवं आचार्य श्री महाप्रज्ञ की अनुग्रह मूलक उत्प्रेरणा से संभव हुआ है। इस कोश के प्रकाशन से आयुर्वेद एवं यूनानी-तिब्ब आदि देशी चिकित्सा पद्धतियों के लिये एक अतीव महत्त्वपूर्ण परन्तु सर्वथा अज्ञात वनस्पतिकोश का द्वार खुला है । आचार्य महाप्रज्ञ न इसे इन्द्रियगम्य वनस्पति जगत् के कतिपय पेड़-पौधों का संकलन कहा है और इसे आगम पाठ के संदिग्ध स्थलों को असदिग्ध बनाने में सहयोगी भी माना है। उनका कहना है कि यदि वर्तमान में उपलब्ध वनस्पतिकोशों, बिहार प्रान्तीय शब्द कोशों का प्रयोग किया जाए तो अनेक पाठ शुद्ध हो सकते हैं और उनके अर्थ का भी सम्यक् बोध हो सकता है।' इस संबंध में उन्होंने प्रज्ञापना आदर्शों में आये 'अट्टरुसग'-- शब्द का उदाहरण प्रस्तुत किया है जिसमें संयुक्त टकार के स्थान पर संयुक्त दकार लिखा मिलता है । टब्बा में इस शब्द का अर्थ 'अरडूसो' दिया है और शालिग्राम निघंटु में अडूसा के लिए 'आटरूषक' और वनस्पतिकोश में 'अट्टरुसग' शब्द मिलते हैं। उनके द्वारा दिया गया दूसरा उदाहरण भी प्रज्ञापना की ही एक गाथा में आया 'पीईयपाण' शब्द का है जिसे जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति वृत्ति में 'वीयगुम्मा' अथवा 'बीणगुम्मा' और जीवाजीवाभिगम वृत्ति (मलयगिरि) में 'बीअक गुल्माः' या 'बाण गुल्माः ' कहा गया है। भावप्रकाश (५१४३.४४) में सरेयक, कुरण्टक और बाण -ये तीनों गुल्म एक जाति के बताए गए हैं और प्रज्ञापना की उक्त गाथा में भी ये तीनों शब्द उपलब्ध हैं, अतः 'णीइम पाण' के बदले 'बीअकबाण' पाठ ही साधु होना चाहिए। दरअसल प्रज्ञापनासूत्र का शब्दानुक्रम बनाते समय उसमें आये वनस्पतिपरक शब्द देखकर मुनिश्री को यह लोकोपकारी कार्य हाथ में लेने का संकल्प हुआ और प्रोत्साहन पाकर उन्होंने यह कठिन पर सुखद कार्य कर डाला। पांच वर्षों के सतत अध्यवसाय से उन्होंने अकेले 'प्रज्ञापनासूत्र में ही ४२१ वनस्पति परक संज्ञानाम खोज निकाले। फिर दूसरे आगम ग्रन्थों का अवगाहन करके कुछ और शब्द खोजे गए और उनमें से ४५० शब्दों की पहचान भी कर ली। उन शब्दों के पर्यायवाची, संस्कृत खण्ड २१, बंक ३ ३४५ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप छाया, हिन्दी अर्थ, संदर्भ और अंग्रेजी - लेटिन नामों के साथ अनेकों चित्र भी जुटा लिए । स्थान-स्थान पर विमर्श, विवरण और पाठान्तर देकर मुनिश्री ने गुल्म, लता, पर्वक, वलय, हरित, धान्य, जलरूह, कुहण (भूमि स्फोट) आदि की परिभाषाओं के अनुरूप इन सभी वनस्पति की अकारादि अनुक्रम में प्राकृत एवं हिन्दी नाम सूची और चित्र सूची दी है। उन्होंने अपने कोश को प्रामाणिक बनाने के लिए विभिन्न आयुर्वेदीय शब्दकोश, कैयदेव निघंटु, धन्वन्तरि निघंटु, निघंटु आदर्श, निघंट, शेष, भाव प्रकाश निघंटु, मदनपाल निघंटु, राज निघंटु, शालिग्राम निघंटु, सोढल निघंटु आदि के साथ-साथ शालिग्रामोषधशब्दसागर, वैद्यक शब्दसिंधु और वनौषधि रत्नाकर, भारतीय वनौषधि ( बंगला ) धन्वन्तरि वनौषधि विशेषांक इत्यादि का भरपूर उपयोग किया है । आयुर्वेद की एक उक्ति है— गोपालास्तापसाव्याधाचान्ये वनचारिणः । मूलजातिश्च ये तेभ्यो भेषजव्यक्तिरिष्यते ।। कि वनस्पतियों को प्रत्यक्ष रूप में जानने वाले गोपाल, तापस, व्याध और वनेचर आदि मूल जातियों के लोगों से वनस्पतियों का परिचय प्राप्त करना चाहिए । इस उक्ति के अनुसार कार्य करके एवं स्वविवेक से वनस्पति वेत्ताओं ने अनेकों निघंटु कोशादि बनाए हैं जिनमें संप्रति धन्वन्तरि निघण्टु ( गुडुच्यादि) और भावप्रकाश निघण्टु ( हरीतक्यादि ) विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। अनेकों और भी वनस्पति परिचय के विविधानेक प्रयास हुए हैं किन्तु भारतीय वाङ्मय का अतीव महत्त्वपूर्ण अंग होते हुए भी जैनागम साहित्य प्रायः अज्ञात और शोधार्थियों के लिए दुष्प्राप्य रहा है । इस अछूते साहित्य से वनस्पतियों का निर्व्यूहन निस्संदेह निगूढ़ निकष कहा जा सकता है । ३४६ काश्यप संहिता के अनुसार ओष का अर्थ है रस, वह जिसमें धारण होता है वह ओषधि है और ओष से आरोग्य का आधान होता है, इसलिए औषधि, औषध है । इसके अलावा औषध के प्रयोग करने से रोग पुनः नहीं होगा, इसलिए अगदत्व है - अगदत्वं च युक्तस्य गदानामपुनर्भवात् । साधारण अर्थ में भी चाणक्य सूत्र -- कक्षादपि औषधं गृह्यते = तृण से भी औषधि ग्रहण की जाती है के अनुसार यदि किसी द्रव्य से चिकित्सोपयोगी द्रव्य निकलता हो तो मूल द्रव्य तुच्छ या क्षुद्र होने पर भी उसका मूल्य कम नहीं होता । चरक के शब्दों में तो संसार के द्रव्य-संसार में ऐसा कोई द्रव्य ही नहीं है जिसका विविध युक्ति और प्रयोजना से औषध के लिए प्रयोग नानौषधि भूतं जगति किञ्चिद् द्रव्यमुपलभ्यते तां तां तमभिप्रेत्य । इस दृष्टि से ४५० वनस्पतियों का जैनागमों में प्रयोग-संदर्भ खोज निकालना तुलसी प्रज्ञा ओषो नाम रसः सोऽस्यांधीयते यत्तदोषधिः । ओषादारोग्यमाधत्ते तस्मादोषधिरोषधः ॥ नहीं होता होयुक्तिमर्थं च तं 3 Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . महत्त्वपूर्ण है । इनमें एकास्थिक वर्ग की ३२, बहुबीजक ३३, गुच्छ ५३, गुल्म २५, लता ( एक शाखवाली) १०, वल्ली ४८, पर्वक २१, तृण २३, हरित ३०, वलय १७, धान्य २६, जलरूह २७, कुहण (भू स्फोट ) ११, साधारण शरीर ( एक साथ प्राण अपान छोड़ने वाली ) ६० और प्रकीर्णक ५ मिलकर ४२१ प्रयोग - संदर्भ अकेले प्रज्ञापनासूत्र के हैं। शेष २९ दूसरे आगमों में मिले अतिरिक्त नाम हैं । उनमें सूर्य प्रज्ञप्ति आदि में वर्णित नक्षत्रों की भोग्य वनस्पतियां भी शामिल हैं । नक्षत्र भोग्य वनस्पतियों में १४ नाम मांसपरक हैं । ( स्मरणीय है कि इन मांसपरक नामों को जैनागमों में प्रयुक्त देखकर सुप्रसिद्ध जैन शास्त्र मनीषी डॉ० हर्मन जैकोबी परेशान हो गया था और इस संबंध में शंका निवारणार्थ वह मार्च, सन् १९१४ में यहां लाडनूं आया था और उसने तेरापंथ महासंघ के अष्टम आचार्य पूज्य कालगणि से तत्संबंधी सटीक समाधान पाकर संतोष व्यक्त किया था ।) मुनि श्रीचंद ने पहचान में शेष रहे नामों में पाणि (बेल), और सुव वनस्पतियों की पहचान भी करली है किन्तु काय, कुण्णक, त्थिहु, दंतमाला, परिली, पुलयह, पोक्खलत्थिभय, बाणगुल्म, भाणी, वल - मेरुताल - मेरुतालवण - मेरुपालवण, बंसाणिय, वट्टमाल, विभगु - विहंगु, बोडाण - वोयाण, सिंगमाला, सिस्सरिली, सुभग, सेरुताल, हिरिणी -- इत्यादि अनेकों वनस्पतियों की पहचान अभी भी की जानी शेष है। इसके अलावा यद्यपि मुनिश्री ने आगम-शब्दों को यथातथा रखकर उनके तत्सम संस्कृत अथवा संस्कृतेतर शब्द, पर्यायवाची, हिन्दी अर्थ और अर्थवाचक तथा वनस्पतियों के चित्रादि देकर विमर्शपूर्वक चिंतन से पहचान को सहज बना दिया है; फिर भी उनकी पहचान को संदेह से परे नहीं माना जाना चाहिए और इस संबंध में वनस्पतिवेत्ताओं को चिन्तन-मनन करके इस अमोल खजाने के सदुपयोग हेतु बहुविध प्रयास किये जाने का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए । कहना न होगा, यह जैनागम वनस्पतिकोश प्रत्येक देशी चिकित्सक और अन्य चिकित्स्य अधिकारीगण एवं औषधि निर्माण कर्तृ संस्थाओं के पास होना अत्यन्त आवश्यक है क्योंकि अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभावः - उक्ति के अनुसार न जाने कब, कौन औषध क्या / किस शुभ कर्म में सहयोगी बन जाय । मुनि श्रीचंद 'कमल' ने तो यह कार्य अपने कर्तृत्व के भावना से किया है किन्तु जैन विश्व भारती, लाडनूं के प्रकाशित कर सर्व सुलभ बना दिया इसलिए उन्हें जितना कम है । दहिवण्ण, महुसिगी छतोव - छतोवग, भेरुताल --- भेरु २. जैन योग के सात ग्रन्थ- अनुवादक मुनिश्री दुलहराज । प्रकाशक - जैन विश्व भारती, लाडनूं । प्रथम संस्करण- १९९५ । मूल्य - बीस रुपये । I 'जैन आचार्यों द्वारा रचा हुआ योग का विशाल साहित्य है । मुनि दुलहराजजी ने उसमें से कुछेक कृतियों को चुनकर अध्यात्म विद्या में रुचि रखने वालों के सामने खण्ड २१, अंक ३ अनुरूप लोक कल्याण पदाधिकारियों ने इसे साधुवाद दिया जाए ३४७ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक पाथेय प्रस्तुत किया है ।' - यह कथन प्रस्तुत संग्रह के लिए सर्वथा सटीक है क्योंकि 'जैन मेडिटेशन' में जैनयोग के शताधिक ग्रन्थों की सूची दी हुई है और जैनयोग केवल ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः न होकर 'मनोवाक्काय गुप्तिर्योगः' कहा जाना चाहिए । प्रस्तुत संग्रह में 'आवश्यक निर्युक्ति' का कायोत्सर्गप्रकरण और ध्यानशतक, योगशतक, समाधिशतक, इष्टोपदेश, स्वरूप सम्बोधन तथा ज्ञानसार चयनिका प्रकाशित है । मुनिश्री का हिन्दी अनुवाद सारग्राही होने के साथ-साथ रोचक ढंग से किया गया है । आवश्यकतानुसार टिप्पणियां भी दे दी गई हैं । विशेषतः 'कायोत्सर्ग प्रकरण' में ऐसी टिप्पणियां अधिक हैं जैसे गाथा ६१ और ६७ में कायोत्सर्ग से काल-प्रमाण जाने के सम्बन्ध में आवश्यक भाष्य की दो-दो गाथाएं और उद्धृत की गई हैं। सर्वांश में यह संग्रह आचार्य जिनभद्र गणि से उपाध्याय यशोविजय तक जैनयोग के विकास का अध्ययन करने के लिए परम उपयोगी संग्रह बन गया है । ३. योग की प्रथम किरण - लेखिका : साध्वीश्री राजीमती । प्रकाशक- पन्नालाल बांठिया, प्रज्ञा प्रकाशन, २०५४, हल्दियों का रास्ता, जौहरी बाजार, जयपुर-३ । द्वितीय संस्करण - १९९५ । मूल्य -- ४० रुपये । प्रस्तुत कृति में शरीर रचना क्रम की पूर्णता के निमित्त पर्याप्तियोगः की एक नयी चिन्तनधारा का विवेचन है । यह जैन साधना पद्धति कही जा सकती है जिसका व्यवस्थित रूप गुरुदेव श्री तुलसी की अमर कृति 'मनोनुशासनम्' में उपलब्ध होता है । साध्वी राजीमती ने अपनी कृति में शरीर के छओं शक्ति संस्थान -- आयुष्य, कायबल, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, वचन और मन की शुद्धि के लिए पृथक्-पृथक् पर्याप्तियोगः : बताए हैं । लगता है, इन पर्याप्तियोगों को लेखबद्ध करने से पहले साध्वीश्री ने जांचापरखा है और स्वयं अनुभूत भी किया है। उनका लेखन बहुत संयमित पर अपनी बात कहने में पूर्ण सक्षम दीख पड़ता है । रोचकता भी लगातार उदाहरण अधिक नहीं हैं । लेखिका का कहना यह है कि शक्तियां हैं । उन्हें कम न करके व्यक्ति को उनकी क्षमताएं योगों के प्रयोग से बढ़ सकती है । ४-५. सुगंध समय की मुनिश्री मोहनलाल 'शार्दूल', प्रकाशक - - आदर्श साहित्य संघ, चूरू । मूल्य – १५ रुपये । सरोवर की लहरें - मुनि श्री मोहनलाल 'शार्दूल', प्रकाशक - के० जैन पब्लिशर्स, ४२९, हिरनमगरी, उदयपुर । मूल्य१५ रुपये । बनी रहती है, हालांकि प्रत्येक व्यक्ति के पास मूल बढ़ानी चाहिए जो पर्याप्ति प्रस्तुत कृतियां मुनिश्री मोहनलाल 'शार्दूल' की पद्य गद्य रचनाएं हैं। सुगंध समय की - मुक्तकों का संग्रह है और सरोवर की लहरें- लघु गद्य किं वा परिसंवादों का संकलन हैं । कुछएक नमूने देखिए - ३४८ तुलसी प्रज्ञा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामी के हृदय में सदा काम उभरता है, लोभी के हृदय में सदा दाम उभरता है। कौन करता है याद कभी सुख में प्रभु कोदुःखी के हृदय में सदा राम उभरता है ।। कीचड़ में भी कमल खिलता है, पत्थर में भी रत्न मिलता है। अद्भुत कलाएं हैं कुदरत कीव्यथित-सागर अमृत उगलता है ।। प्याले के पानी को दो विष की बूंदें विष और अमृत की बूंदें अमृत बना देती हैं, पर समुद्र के पानी पर न किसी विष का असर होता है और न अमृत का । उसका स्वभाव किसी भी परिस्थिति में नहीं टूटता।। x फैलाव का अर्थ है आक्रमण। कुछ भी बढ़ेगा तो वह दूसरों को हथियेगा । जल प्रवाह बढ़ता है तो वह आगे से आगे भूमि पर आक्रमण करता चला जाता है। व्यक्ति बढ़ता है तो वह पदार्थों, वस्तुओं और मनुष्यों पर अधिकार जमाते चला जाता है। ६. सिंघई संतोषकुमार जैन द्वारा भेजे प्रकाशन-'ज्ञान का विद्यासगर' 'द्रव्यसंग्रह', 'नागफनी द्वारेद्वारे', 'अनाश्रिता', 'तेरी महिमा मेरे गीत' इत्यादि । __ ये प्रकाशन आचार्यप्रवर श्री विद्यासागरजी महाराज के आम्नाय में रचित एवं प्रकाशित कृतियां हैं । ज्ञान का विद्यासागर श्री नेमचन्द जैन, पुरानागंज, सिकन्दराबाद द्वारा प्रकाशित विद्यासागरजी महाराज द्वारा लिखित एवं अनुवादित कतिपय रचनाओं का संकलन है जो सन् १९८३ में छप गया था। मूल रूप में प्रकाशित इन रचनाओं का अपना महत्त्व है। द्रव्य संग्रह में आचार्थश्री नेमिचन्द विरचित मूल पाठ के अलावा संस्कृत छाया, हिन्दी पद्यानुवाद, गुर्जर अन्वयार्थ तथा हिन्दी गाथार्थ व अंग्रेजी भावार्थ दिया गया है। श्री परिमल किशोर भाई खंधार द्वारा संकलित यह प्रकाशन श्रीमती समताबेन खंधार चेरिटेबल ट्रस्ट, अहमदाबाद-५२ द्वारा प्रकाशित है और द्रव्य संग्रह के सांगोपांग अध्ययन के लिए अनूठा सोपान बन गया है। अन्त में विद्यावाणी- शीर्षक से कुछ उक्तियां संग्रहीत की गई हैं जो नाविक के तीरों की तरह सारगभित हैं। ___'नागफनी द्वारे द्वारे' और अनाश्रिता'-- ऐलक सम्यक्त्व सागर की दो गद्य रचनाएं हैं । प्रथम, जैन वीर सेवा दल, झांसी तथा दूसरी 'अनाश्रिता', अनुदिश प्रकाशन, झांसी की प्रस्तुतियां हैं। 'नागफनी द्वारे द्वारे' में विचारोत्तेजक सामाजिक कहानियां हैं जो बरबस पाठक के अन्तःस्थल को झकझोर देती है और नागफनी की तरह तीखे कांटे चुभाती है । 'अनाश्रिता' में सुप्रसिद्ध जैन कथानक को लेकर मनोरमा खण्ड २१, अंक ३ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की प्रशस्ति गाई गई है। उपन्यास की कथा का सार स्वयं मनोरमा के शब्दों में इस प्रकार है-- "भैया ! यहां कौन किसका अपराधी है। हम स्वयं जैसे बीज बोते हैं वैसे ही फल मिलते हैं। अपने-अपने कर्मानुसार सुख और दुःख हम पाते हैं। आप राजकुमार हैं आपके पास प्रजा की सुरक्षा के अधिकार हैं आप उनका सदुपयोग करें । प्रजा की बहन/बेटी/बहु को अपने ही परिवार का अंग समझकर उन पर कुदृष्टि न डालें।" 'तेरी महिमा मेरे गीत'--. ऐलक उदार सागर की कृति है जिसमें पं० भागचन्दकृत महावीराष्टक आचार्य श्री कुमुदचन्द्र विरचित कल्याण मंदिर स्तोत्र एवं श्रीमान तुंगाचार्य रचित भक्तामर स्त्रोत्र का पद्यानुवाद है और साथ में पं० पन्नालाल एवं पं० हीरालालकृत गद्यानुवाद भी प्रकाशित है। ७. नीरज पाटनी द्वारा भेजे प्रकाशन- नन्दीश्वर-भक्ति, स्तुति सरोज, भावभक्ति, सर्वोदय सार इत्यादि। । प्रस्तुत प्रकाशनों में प्रथम नन्दीश्वर भक्ति आचार्यश्री देवनंदि की कृति है जिसमें अतिशयक्षेत्र पिसनहारी मढिया की कीर्ति गाई गई है। सुललित भावपूर्ण संस्कृत श्लोकों का आचार्यप्रवर विद्यासागरजी महाराज ने मनोहारी छन्द रचना में पद्यानुवाद किया है। _ 'स्तुति-सरोज' भी आचार्य विद्यासागर द्वारा दिगम्बर आचार्य शांतिसागर महाराज, आचार्य वीरसागर महाराज आचार्य शिवसागर महाराज एवं आचार्य ज्ञानसागर महाराज को श्रद्धाञ्जलि स्वरूप भेंट की गई काव्याजंलियां हैं। वसंततिलका, मन्दाक्रान्ता जैसे छन्दों में भक्ति विह्वल हृदय से प्रस्तुत ये काव्याजलियां निस्संदेह भावपूर्ण आत्म समर्पण हैं - माथारूपी, शिवफल तजूं, आपके पादकों में, श्रद्धारूपी, स्मित-कसुम को, मोचता हूं तथा मैं । मुद्रा है जो, शिवचरण में, और रहे नित्य मेरी, प्यारी मुद्रा, ममहृदय में, जो रहे हृद्य तेरी ॥ भावभक्ति- शीर्षक प्रकाशन में चौबीस तीर्थंकर स्तवन के बाद 'विद्यावंदना शतक' एवं 'विद्यासागर चालीसा' प्रकाशित किया गया है। श्रमणश्री उत्तमसागरजी कृत यह रचना गुरुभक्ति में समर्पित है और श्री दिगम्बर जैन वीर विद्या संघ ट्रस्ट, गुजरात द्वारा प्रकाशित है। 'सर्वोदयसार' में आचार्य श्री विद्यासागरजी के प्रवचनों का सार संक्षेप है जो श्री दिगम्बर जैन सर्वोदय तीर्थ कमेटी, अमरकंटक द्वारा प्रकाशित है। ८. वन्दना - जैन मिलन, लखनऊ का प्रकाशन । स्व० फूलचन्द जैन 'पुष्पेन्दु' का निधन सन् १९६६ में हो गया था। उनके आध्यात्मिक काव्यों से डॉ. महावीरप्रसाद जैन ने कतिपय भजन, गीत आदि का संकलन किया है जो भारतीय जैन मिलन, लखनऊ शाखा द्वारा प्रकाशित हुआ है । 'बसंत बहार' के बाद पुष्पेन्दु की यह दूसरी कृति छपी है । इसमें वन्दना के साथ जय ३५० तुलसी प्रज्ञा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " महावीर, आह्वान, सिद्धान्त, राजुल नेमि और कतिपय भजन छपे हैं । ६. "मानवताना दीवा" और "जिनभक्ति" – संपादक -- लक्ष्मीचंद छ. संघवी, २ घुतपापेश्वर बिल्डिंग, मंगलकडी, २४० शंकरशेठ रोड, मुंबई-४ । भाई लक्ष्मीचंद संघवी ( बाबुभाई) प्रेस फोटोग्राफर हैं और 'मुंबई समाचार' से जुड़े हैं। आपको १९८६ में सेवानिवृत्ति के बाद ज्ञान प्रसार की धुन लगी हैं । आपने सामायिक सूत्र का प्रकाशन कर उसका वितरण किया और सर्वधर्म समभाव की दृष्टि से 'प्रेरणा' - शीर्षक संकलन प्रकाशित किया । तदुपरांत जिनभक्ति एवं मानवताना दीवा शीर्षक में दो संग्रह प्रकाशित किए हैं । बाबुभाई का कहना है 'अन्नदान श्रेष्ठ छे । ऐमा बे मत नथी । पण ज्ञानदान ने हुं ऐथी बंधु श्रेष्ठ मानु छं । कारण के अन्न खाधा पछी ऐ जींदगीभर याद रहे तुं नथी पण सारा पुस्तकोनी भेंट अने वांचन में जिंदगीभर याद रहे छे । फेरी फेरी बार बांची शकाय छे। अने आ रीते ज्ञान अने संस्कारिता जींदगी भरनु भाथु अने संभारणं रहे छे ।' - यह कथन सत्य है । ८४ वर्ष की अवस्था में संघवी साहब की यह धुन भी इसीलिए सकारात्मक है । १०. न्यायावतार सूत्र - ( आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ) - विवेचक, पं० सुखलाल संघवी । प्रकाशक - शारदाबेन चीमनभाई एज्यूकेशनल रिसर्च सेन्टर शाहीबाग, अहमदाबाद- ४ | मूल्य २५ रुपये । स्व० पं० सुखलाल संघवी द्वारा लिखित न्यायावतार सूत्र की विवेचना सन् १९०८ में 'जैन साहित्य संशोधक' में छपी थी। उसके बाद पं सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित किया। प्रो. सातकड़ी मुखर्जी ने भी इस सूत्र का अंग्रेजी अनुवाद किया और पिछले दिनों पं. दलसुख मालवणिया ने इस पर लिखी शांतिसूरि की वार्तिक वृत्ति का संपादन किया । कतिपय और भी प्रकाशन हुए हैं। दरअसल जैनदर्शन में प्रमाण मीमांसा विषयक ग्रन्थों में न्यायावतार सूत्र शीर्ष स्थान पर है । ३२ कारिकाओं में लिखा होने पर भी प्रमाण-व्यवस्था का यह पहला ग्रन्थ है । सन् १९०८ के बाद एतद्विषयक पर्याप्त चिन्तन-मनन हुआ किन्तु पं० संघवी के लेखन का अपना महत्त्व है । उसे ज्यों का त्यों प्रकाशित कर के शारदाबेन सेन्टर सुधी पाठकों के लिए उपलब्ध करा दिया । एतदर्थ उसके अधिकारीगण धन्यवाद के पात्र हैं । ११. आत्म-समीक्षण संपादक - शान्तिचन्द्र मेहता, प्रकाशक- श्री अखिल भारत वर्षीय साधुमार्गी जैन संघ, समता भवन, बीकानेर | प्रथम संस्करण - १९९५ । मूल्य - ७० रुपये | आत्म समीक्षण आचार्य नानालाल सा. के राणावास --- प्रवचनों पर आधारित चिरंतन आर्हतीविद्या का अमृतकलश है । इसमें जैनदर्शन एवं अध्यात्म साधना के नव-सूत्र है । यह ग्रन्थ उत्तम पुरुष में लिखा गया है और विभावों को दूर करने के लिए खंड २१, अंक ३ ३५१ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्येक जीवात्मा को मैं चैतन्य देव हं, मैं प्रबुद्ध हं-सदा जागृत हं, मैं विज्ञाता हूं- दृष्टा हूं, मैं सुज्ञ हूं. संवेदनशील हूं, समदर्शी हूं--- ज्योतिर्मय हूं, मैं पराक्रमी हूं-पुरुषार्थी हूं, मैं परमप्रतापी हूं-सर्वशक्तिमान हूं, मैं ज्ञानपुंज हूं-समत्व योगी हूं और मैं शुद्ध बुद्ध निरंजन हूं-इन नव उत्प्रेरक सूत्रों से संबोधित किया गया है जिससे उसमें निजत्व का भाव समाविष्ट हो, आत्म-पराक्रम का विस्फोट हो और वह अपने स्वभाव में स्थिर हो जाए। समीक्षण का तात्पर्य संपादक ने सम्यक् रीति से अथवा समतापूर्वक निरीक्षण लिया है । चिन्तन, आदर्श में स्थिरता, अहंभाव का विसर्जन, एकावधानता, श्वासानु- . संधान और प्रबलतम शक्ति संकल्प द्वारा उसने आत्मरमण की अवस्था की कल्पना की है। उसका कहना कि पहले सम्यक् दृष्टि होती है, फिर गुण दृष्टि बनकर ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र के विभिन्न सोपानों पर आरूढ़ होती है और अन्त में समता दृष्टि बनकर सर्व जगहितकारिणी हो जाती है। सर्वांश में समता की यह जय यात्रा डॉ० भानीराम वर्मा 'अग्निमुख' के शब्दों में मानव समाज को सावधान करने वाली है और अध्यात्म पथ के पथिकों के लिए एक सक्षम मार्ग दर्शक एवं पथ-बन्धु बन गयी है । इसलिए शुद्ध जैन-दर्शन एवं साधना के सूत्रों का संक्षिप्त एवं सुगम सार सत्व है। १२. सागर मन्थन (आचार्य विद्यासागर के प्रवचनों का संग्रह)-प्रकाशक : श्रीमती पुष्पादेवी पुत्रवधु श्रीमती दर्शनमाला जैन, जैन गली, हिसार । सन् १९९५ । मूल्य-चिन्तन-मनन । . सन् १९९५ के ग्रीष्मकालीन प्रवास में आर्यिका दृढ़मति माताजी ने पूज्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के प्रवचनों का संकलन किया और रज कण प्रकाशन, टीकमगढ़; ज्ञानोदय प्रकाशन, पिसनहारी; मुनि संघ साहित्य प्रकाशन समिति, सागर; श्री दिगम्बर जैन मुनि संघ समिति, गंजबासौदा आदि से प्रकाशित प्रवचनों में से भी कुछ प्रवचन लिये और श्री दिगम्बर जैन समाज, हिसार के प्रधान एडवोकेट जयप्रसाद जैन को दे दिये। फलतः यह अमूल्य प्रकाशन संभव हुआ ।। वीतरागी संत विद्यासागरजी सन् १९६७ में मदनगंज (अजमेर) में आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के पास पहुंचे थे और अपनी अप्रतिम योग्यता के कारण योग्य गुरु के योग्य शिष्य के रूप में विद्याधर से विद्यासागर बनकर सन् १९७२ में आचार्य ज्ञानसागर के उत्तराधिकारी आचार्य बन गये । कन्नड़ भाषी होने पर भी आपने संस्कृत और हिन्दी भाषाओं पर असाधारण अधिकार पाया है और कालजयी रचनाओं का सृजन किया है । 'मूकमाटी' आपका विलक्षण काव्य है। संस्कृत भाषा में निबद्ध पांच शतक और हिन्दी भाषा में लिखित व अनूदित विशाल साहित्य है। __ प्रस्तुत संग्रह में १९ प्रवचन और अमृत, पीयूष, पंचामृत, आस्था से संस्था और दोहा दोहन --- शीर्षकों से कुछ संपादित प्रवचन- अंशों का प्रकाशन किया गया है। २३२ पृष्ठों में प्रकाशित १९ प्रवचन भी सुसंपादित हैं। वस्तुत: विद्यासागरजी 'यथानाम तथा गुण' के अनुकूल शब्द सागर को मन्थन करने में माहिर हैं और उसे ३५२ तुलसी प्रज्ञा Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपने मनोभावों के रूप में प्रस्तुत करने में भी उन्हें महारथ हासिल है। उनके विचार परम सात्विक हैं जो पदे पदे इन प्रवचनों में भी दृष्टिगत होते हैं। उदाहरण-स्वरूप कुछ नमूने देखिए १. संसार में बिना गुण के कोई मनुष्य नहीं है। बस गुणों को देखने की आवश्यकता है। २. जिनेन्द्र भगवान् की उपासना करने वाले जैन हैं, पर ध्यान रखना धर्म सम्प्रदायातीत है । मैं जैन हं, मैं हिन्दू हूं, मैं सिक्ख हूं, मैं इसाई हूं या मैं मुस्लिम हूं, इस प्रकार की मान्यता हमारे समाज रूपी महासागर के विशाल अस्तित्व को समाप्त करने वाली है। ३. प्रत्येक धर्म अनन्त शक्ति लिए बैठा है वस्तु में, उसको समझना चाहिए.....कोई कुछ कहे उसे सर्वप्रथम मंजूर करो....... 'भी' का अर्थ अनेकान्त और 'ही' का अर्थ एकान्त । 'भी' का अर्थ कथंचित उसका स्वागत और 'ही' का अर्थ है उसके अस्तित्व पर ही पानी फेर देना। भाव और भाषा की दृष्टि से कुछ सूक्तियां देखिए१. खुश्क मत करो, खुश करो। २. तुम भीतर जाओ/और/तुम्बी सम/तुम भी/तर जाओ। ३. भभकने वाला दीपक प्रकाश नहीं देता किन्तु तेल को पांच मिनट में ही हजम कर लेता है। ४. कहने को मात्र १४८ कर्म हैं लेकिन उनके भी असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं। ५. साधु बनो, न स्वादु बनो, साध्य सिद्ध हो जाय । ६. यही प्रार्थना वीर से, अनुनय से कर जोर । हरी-भरी दिखती रहे, धरती चारों ओर ।। उनके मत में 'अनेकान्त का हृदय है समता। सामने वाला जो कहता है उसे सहर्ष स्वीकार करो।' और यही बात गुरु नानक कहते हैं---'एक ने कही दूजे ने मानी ! गुरु नानक कहे दोनों ज्ञानी !!' . सर्वांश में प्रस्तुत प्रकाशन से उन लोगों में भी आचार्यश्री के प्रवचन सुनने की लालसा जगेगी जो उनके साहित्य सुरस से परिचित हैं किन्तु प्रवचनों में साधारणीकरण का प्रत्यक्ष लाभ नहीं ले पाते। सुसंपादन एवं प्रकाशन के लिए सभी सम्बन्धित बधाई के पात्र हैं। -परमेश्वर सोलंकी खण्ड २१, अंक ३ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI PRAJNA Vol. XXI : No. Three October-December, 1995 S. No. 96 English Section Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Origin of Untouchability III WHEN DID UNTOUCHABILITY ORIGINATE ? Upendranath Roy Three parts of Ambedkar's theory Ambedkar's theory can be divided in three parts. The first part is concerned with why untouchabes live outside the villages. The second discusses when untouchability came about. The third consists of his views as to why and how untouchability came into being The first part of this theory is generally acceptable to us, while the second and third parts are far from satisfactory. So the two parts must be examined at length. First, however, it is necessary to see what evidence Ambedkar furnishes to establish his contention that untouchability originated sometime around 400 A, D. Yuan Chwang's account The first unambiguous reference to untouchability according to Dr. Ambedkar is to be found in the account of the chinese traveller, Yuan chwang He came to India in 629 A. D. and stayed for 16 years. So he acquired accurate knowledge of the manners and customs of India. Movcover his account is well preserved. We learn the following from his account ; "As to their inhabited towns and cities the boadranguler walls of the cities (on according to one text, of the various regions are broad and high, while the thoroughfares are narrow tortuous passages, the shops are on the high ways and booth. or (inns) line the roads. Butchers, Fisheramen, Public performers, reecutionrs, and scavengers bave their babitations marked by a distinguishing sign. They are forced to live outside the city and sneak along on the left when going about in hemlets" Though the above passage is too short, Dr. Ambedkar finds it sufficient to admit that "when Yuan chwang came to India, untouchability had emerged”! The Chandāla girl in the 'Kādam Bari Baņa Bhatta did not write 'Kadambari' long before Yuan chwang. Rather, the two works are contemporary. Dr. Ambedkar quotes from the ‘Kadambari' the description of a Chandala Settement as well as the description of a Chandala girl's appearance in the Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 TULSI-PRAJNA royal court of king Shüdraka. After long quotations came the following comments from Ambedkar : "Bana is a Vatsyayapa Brahmin. this Vatsayayana Brahmin after giving a description of the Chandala settlement, finds no compunction in using such eloquent and gorgeous lenguage to describe the Chandala girl. Is this description compatible with the sentiments of utter scorn and contempt associated with untouchability? If the Chandales were untouchables how could an untouchable girl enter the king's palace ? How could an untouchable be described in the term used by Bana ? Far from being degraded, the Chandalas of Bana' pariod had Ruling Families among them. For Bana speaks of the chandala girl as a Chandala princess. Bana wrote sometime about 600 A. D, and by 600 A. D. the Chandalas had not come to be regarded as untouchables's The entire remark is full of blunders. That even a learned and careful man like Ambedkar could commit so many blunders in a few lines is really astounding, the blunders, in brief, are following: - 1. Describing the beauty of women is so common in Sanskrit literature. There are no rules in the Sanskrit poetics to limit such descriptions to higher castes only. So there is no justification for taking the description of the Chandala girl's beauty as some thing inconceivable. 2. Ambedkar admits the story of Kadambari is "a very complex one". what he fails to mention is that the story includes the tale of curses and resulting birth and rebirth of men and women. He ignores the fact that according to Baņa, the Chandala girl was none but the goddess Lakşmi born in a Chandala family due to a curse and that is what makes him unable to understand the reason for using-Superbterms” for the Chandala girl by Baņa. 3. Undoubtedly the untouchables could enter the Hall of Audience when necessary. In that case, purificatory measures must have been taken which Bana did not deem it necessary to mention. Ambedkar is obviously aware of the measures that were taken to purify a place polluted by the entry of the chandalas etc. They are mentioned in the Dharmashastras. As for the necessity and permissibility of the Chandala girl's entry into the Hall, the girl had a wonderful perrot well-versed in different branches of learning and had come to present the same to the king. So the king permitted her entry to the Hall. That is evident from the passage quoted at the middle of page 1.0 by Dr. Ambedkar. . 4. Before quoting the long passages discribing the personal appear. Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 81 Vol. XXI, No. 3 ance of the Chandala girl, Ambedkar admits : "The king and the chieftains did not at first take notice of her. To attract attention she struck a bamboo on the mosaic floor to arouse the king" Such a manner of warning other people of their presence was operative in case of the untouchables only. There is nothing to indicate that other castes too had ever to do anything like that. Were she not untouchable, there would have been no need on the part of the fortres who introduced her to the royal court to ask her to see the king from a distance (dūradalokaya) Even the description of her appearance contains pointed references to her untouchability though in imperfections in Ridding's translation do not reveal them clearly. However, even in Ridding's translation quoted by Ambedkar we find the following: "as a lotus pool in a wood is troubled by elephants. so was she dimmed by her Mytanga birth.” Then we read : "like spirit, she might not be touched." That is not an accurate rendering of amurta miva sparshavarjitam' but that does show that the Chandala girl could not be touched. Then Ridding renders alephaya gata miva darshana. matrafalam' as like a letter, she gladdened the eyes alone". The correct rendering should be like a woman drawn in a picture, she was only an object to be seen". What the king thought after seeing her is even more indicative of her untouchability. To quote the translation used by Ambedkar : "the thought arose in his mind...... if she has been created as though in mockery of her Chandala form,.. ...why was she born in a race with which none can mate ? Surely by thought alone did Prajapatic create her, feel ing the penalties of contact with the Matanga race." 5. Baņa's epithat : Chandala princess" used for the Chandala girl does not warrant the conclusion that the Chandalas had not come to be regarded as untouchables" in his ages. It is in fact ridicu. lous to say that "the Chandalas of Bana's period had Ruling Families among them”. Ambedkar could commit such blunders simply because he had no knowledge of Sanskrit idioms. It is very common is Sanskrit to describe an elephant a 'gajaraja' and a lion as mrgaraja'. That does not prove that the elephants and deer have Ruling Families among them on that kingdomes ruled by elephants and lions really exist. If a Brahmana beggar is called dvijaraja' in a Sankrit work, no body who knows the language will rush to the conclusion that the beggar belongs to a ruling family. So the Chandala princess" of Kadambari does not mean anything else but the daughter of a Chandala chief, Ambedkar quotes Bana's description of Chandalas settlement. That is Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA undoubtedly not the description of a ruler's capital and palace. Bana calls that place the image of all hells”. Is it conceivable that a real princes lived in that "image of all hells”? It is difficult to understand why Ambedkar wasted so much space to prove that were no untouchables in the days of Bana and the Chandalas had not become untouchables. To me it seems to be of no use. Evidently he did not care to see the conclusions his own thesis leads to. If we concede to his logic that there was not untouchability when Bana wrote his Kadambari about 600 A.D. but untouchability had come about all over country after 629 A.D. when Yuan chwang came to India, we must conclude that untouchability emerged during the reign of Harşavardhana (606-647 A.D). But Ambedkar was not willing to say that. So he says "with some confidence that untouchability was born sometime about 400 AD'. If that is what we have to conclude ultimately, what is the use of so much argument aimed at proving that the Chandala girl in the Kadambari was not untouchable ? Madraraksasa Vishakhadatta, the dramatist lived before Baña. According to well-known scholars like Talang. K.H. Dhuva, Macdonall, Winternitz etc., he composed the 'Mudraraksasa' during the reign of Avantivarman, the Maukhari ruler of Kanoui. Avantivarman's son, Grahavarman married Rajya shrī, the sister of Bana's petron Harsavardhana. Vishakhadatta was not a Irahmana, but a Ksatriya In the seventh act of his drama, the words Chandala' and Shva paka' are used interchangcably and the caste mentioned by the two words is deemed untouchable. A reference to the contest will clarify the point. Chanakya had destroyed the Nandas and installed Chandragupta Maurya to power but Raksasa, the minister of the Maurya was still alive and helping Malayaketu, the rival of Chandragupta. Chanakya man outsed to arouse suspicion in the mind of Malaya. ketu and succeeded in driving Raksasa away from him. Chandana. dasa, a friend of Raksasa was inprisoned and Chanakya knew that Raksasa would risk even his own life to save his friend. So two spies were asked to dress themselves as Chandalas and to take Chandana tasa away apparently for rescution. One of the 'Chadalas' went forward to the rescution ground shouting “a side gentlemen ! aside bonourable ones!! and the other followed him with Chandanadasa. Raksasa came to the rescue of his friend as anticipated and surrendered himself to the Chandalas (Chandanadasa was imprisonod and sentenced to death apparently for sheltering the Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 3 83 Family of Raksasa and arranging their escape after Chandragupta came to power) One of the Chandalas went to Chapakaya and Chandragupta to report the development and Chanakya appeared of the shot immediately. Raksasa warned him "Visnugupta, don't touch me as I am polluted by the contact of the Chandālas." And Chanakya replied "Minister Raksasa, these two are not Shavakas.” That shows untouchability was born before Bana and the Chandalas were untouchables at the time. Dr. Ambedkar did not refer to the above testimony of the Mudraksasa but its significance is too obvious to be ignored. Fa-Hian Fa-Hian visited India in 400 A.D. before Bana and Vishakhadatta. Ambedkar wrote a lot about the Chandala girl of the Kadambari simply in order to dispel the idea that untouchability had come about at the time which a reading of Fa-Hianis account is likely to arouse. Therefore, an examination of the account as well as of its interpretation by Ambedkar becomes necessary. So this is what Fa-Hian says about the Chandalas : "Throughout the country the people kill no living thing nor drink wine, nor do they eat garlic or onion, with the ecception of the Chandalas only. The Chandalas are named "evil men' and dwell apart from others; if they enter a town or market, they sound a piece of wood in order to separate themselves; then, man knowing they are, avoid coming in contact with them... The Chandalas only hunt and sell Fish.” And this is what Ambedkar says about the above account: 1. "The Chandalas is not a good case to determine the reistence of non-reistence of untouchability. The Brahmins have regarded the Chandalas as their hereditary enemies and are prono to attribute to them abominable conduct; here at them low epithets and manufacture towards them a mode of behaviour which is utterly artificial so suit their venom against them". 2. "How different” Bana's description of the Chandala girl "is from the description given by Fa-Hian ?”. 3. "It is quite possible that what Fa-Hian describes is not un touchability but an restremity to which the Brahmins were prepared to carry the ceremonial impurity which had become attached to some community, particularly to the Chandalas."10 The above leads one to wonder whether Fa-Hian was an orthodox Biabmaņc or a disciple of an orthodox Brāhmaṇa. Why should Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84 TULSI-PRAJNĀ Fa-Hian attribute abominable conduct to the Chandales or hurl lowepithets at them? It is evident from the account that it was not only the Brahmaņas who called the Chandāles 'evil men' and avoided them. So the phenomenon described by Fa-Hian is not ceremonial impurity, it must be recognized as untouchability. It is equally wrong to say that Banas description is totally different from FaHian's. Fa-Hian mentions the fact that the Chanḍālas did "sound a piece of wood in order to separate themselves" while we find in the Kadambari that the Chandala girl struck a bamboo on the mosaic floor when she entered the Hall of Audience. Fa-Hian says the Chandales were hunters and drank wine, Bāņa too mentions the fact in his description of the Chanḍāla settlement. There is no difference at all to warrent the assertion that Fa-Hian's account is biased and misleading. To conclude, all the rebuke hurled at Fa-Hian proves as futile as the long discussion about the Kadambari. Ambedkar admits that untouchability emerged sometime about 400 A,D. If that is, so, is it not better to say that untouchability was practised and well-known at the time rather than grand Fa-Hian biased and liar and twist the meaning of the account? MANUSMRTI Manusmrti in its present form was completed before Fa-Hian. Buhler places it in the second century A.D. Ambedkar raises the question of untouchability did exist in the days of Manu and answers it in negative. He bases his conclusion on a verse of the work which asserts that there are three twice born and one once-born varņas only, a fifth varṇa does not exist.11 Undoubtedly the verse aimed at settling some dispute. It is not clear, however, the status of which class or g oup in relation to the system of Chaturvarpya was the subject-matter of that dispute. What does the proposition "there is no fifth varņa" mean? Ambedkar says, "it is capable of two interpretations. It may mean that as according to the scheme of Chaturvarṇya there is no fifth varpa the class in question must be deemed to belong to one of the four recognised varņas. But it may also mean that as in the original varna system there is no provision for a fifth varna the class in question must be deemed to be outside the Varna System altogether.12 According to the traditional interpretation adopted by the Hindus the above statement of Manu refers to the status of the untouchables and places them outside the Varna System. "This interpretation is so firmly established that it has given rise to a division of Hindus into two classes called by different names, Savarnas or 4 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 3 85 Hindus (those included in the Chaturvarnya) and Avarnas or untouchables (those excluded from the Chaturvarnya)."13 Ambedkar thinks the interpretation is wrong. As there was no untouchability in the days of Manu and even the much despised Chandala was simply impure, "the passage cannot possibly have any reference to the untouchables." So he concludes that the verna in question refers to the slaves. The Närada Smști according to him speaks of the slaves as the fifth class while Manu rejects that view. 16 It is difficult to agree with him for two reasons. First, he wants to have his cake and eat it too. He rejects the traditional interpretation at one place and accepts it at the other. In order to establish ntention that the verse refers to the slaves, the traditional interpretation is rejected. But in order to reject the view that the word Antya means untouchable, the traditional interpretation is accepted without least hesitation. Ambedkar bases his argument on interpretation when he declares: "The untouchable is outside the scheme of creation. The Shudra is Savarna, Ās against him the untouchable is Avarna i.e. outside the Varna System.”16 Such a method if employed unwittingly is illogical, if used deliberately it becomes a lawyer's trick unworthy of a serious work intended to discover the truth. Again, Ambedkar's thesis would gain ground if the Nārada Smrti had really spoken of the slaves as the fifth varna. As a matter of fact, Nārada had no need to do that and did not say anything like that. Dr. Ambedkar has shown in the chapter, "Occupational Origin of untouchability” that Närada and Yajnavalkya recognized slavery and enjoined it in the descending order. That is, "a Brahmin could have a Brahmin Kshatriya, Vaishya and a Shudra as bis slave. A Kshatriya could have a Kshatriya, a Vaishya and a Shudra as his slave. A Shudra could bave a Shudra only."17 Instead of banning slavery, the law-makers simply re-organised it and based it on the principle of graded inequality, As there was no religious injunction against slavery, people belonging to any varna could become slaves. That is admitted by Ambedkar, what he fails to see is that the religious recognition of the institution of slavery made it possible for all and sundry to become slaves and retain their varna status even then. There could be no question of any person losing his varna status because of slavery. So the Brāhmaṇas, the Kșatriyas, the Vaishyas and the Shudras remained the same even when they become slaves. What would then be the need to designate the slaves as a fifth varņa ? True, it would not be legitimate if a person belonging to a higher varņa become the slave of a person belonging to a lower varņa. But even in that case there would be no need to formulate a fifth varna. Närada Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 TULST-PRAJNA compares his case to that of wife. If a women marries a man belonging to a lower varsa the off spring is called 'varņa-sankar' but Nārada does not say the women becomes a member of some fifth varņa as a result of such marriage. So Nārada had no need of speaking of the slaves as the 'fifth varna'. There are two and only two verses quoted from the Nārada Smțiti in the chapter, "Occupational Origin of untouchability" which provide some pretexet for the assertion that "the Nārada Smsiti speaks of the slaves as the fifth class." They are as follows: “The sages have distinguished five sorts of attendants according to law. Among these are four sorts of labourers; the slaves (are the fifth category of which there are) fifteen species,"18 “Thus have the four classes of servants doing pure work been enumerated. All the others who do dirty work are slaves, of whom there are fifteen kinds."10 It is evident from the verses that Nārada used the terms 'five sorts' and 'four classes' in a particular context and in a sense having nothing to do with the specific number of the varnas. The 'five classes' as well as the five sorts' are called 'attendants'. How can one take them to mean 'four varnas' or 'five varnas' as Ambedkar suggests ? If the fifth sort' or the fifth class' is taken as a varna, the rest should also denote four varņas. But Närada calls them 'labourers'20 and names them not as Brāhmaṇa, Ksatriya, Vaishya and Shūdra but as "a student, an apprentice, a hired servant and fourthly an official."'31 Thus, Nārada did not say the slaves constituted fifth varna and Manu had no need to contradict him. What did then, Manu mean to say ? He had to face a number of problems. How to deal with those who were close to the Vedic Aryans ethnically but did not believe in the Varņa system ? How to reck on with the foreigners who had come to acquire the state power. How to treat the nomadic tribes ? How to confront the differences that existed within the Shūdras ? How to deal with those who did not recognise the superiority of the Brāhmanas? These were the questions Manu had to answer and he answered them in two verses. The first verse says insubordination to the Brāhmaṇas leads to the degradation of families, while the second says there is no fifth varna23 The first statement expresses the intention to degrade certain sections of the society, while the second shows the desire to include certain groups in one of the four varnas, This interpretation though new and supported neither by Ambedkar nor his orthodox adversaries, is borne out by the rest of the text. While Manu declares numerous castes Antyajas or Varņa-sankars, he opens the way of entry into Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 3 87 Varņa System for several castes by labelling them as Vrātyas 23 Thus Nața, Karaņa, Khasa and Dravida are called Ksatriya Vrātyas which may explain the fact that the Natas are not included in the untouchables throughout the country, Similarly, some of the alien groups were favoured for admission into the Varna System and a myth was invented to the effect that the Shakas, the Pahlavas, the Chinas, the Kirātas, the Daradas and the Khasas were Kșatriyas who had become Vrsalas by giving up the Vedic rituals and dissociating themselves from the Brāhmanas. 2 Thus recognising the supremacy of the Vedas and of the Brāhmaṇas was deemed sufficient for acquiring a position in the varņa system, People outside the Varna System were not called untouchables, Antyajas or slaves by Manu He called them Dasyus 25 So all the Varņa Sankaras and Antyajas ought to be considered a part of the Sbūdra varņa according to Manu. Many used the term 'Apa pātra' for the Chandālas and the Shva pachas. 26 That the term 'Apa pātra' is used for untouchables will be shown in the next chapter. It is remarkable that Manu does not call the untouchables the fifth varna nor does he place them outside the four varnas. As we shall see in the next chapter he includes the untouchables in the Shüdra varna and divides the Shūdras in two categories, namely, the Sat-Shūdras (good Shüdras) and the Antyajas or Antyas (untouchables). This is revealed from Manu's rules regarding evidence. Manu says the twice-born of equal rank are two testify for the twice-born, the good Shūdras for the Shūdras and the Antyajas for the Antyajas.27 PATANJALI Patanjali, the well-known grammarian, preceded Manu. He composed his work during the reign of Puşyamitra Shunga So he belongs to the second century before Christ. While discussing the grammatical rules of Pānini, his "Mahābhaşya' provides valuable information about the social life of Ancient India. The Mahābhāsya shows the use of the term "Shūdra' in a broad sense (i.e. inclusive of the unt, uchables) was not an innovation on the part of Manu. Rather, the term had been used in that sense for centuries before Manu. There were in the days of Patanjali several castes in the Shūdra varna. Those who worked for wages were all included in the Shüdra varņa, Kātyāyana speaks of the Mabās hūdra caste too. According to Käshika', the 2 bhiras are called Manäshüdra. The Dhivars men) to were included in the Shūdras. The author of the Bhāsya too calls the Abhiras, the Shüdras. The Rathakaras (chariot-mākers) were ranked the highest among the Shūdras. The weavers, potmakers, Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88 TULSI PRAJNA barbers, carpenters, blacksmiths, goldsmiths, washermen, shoemakers etc. were all included in the Shüdra varna. All the `Kâri' castes (artisans) were Shūdras. The matmakers (kațakāras) ranked low among the Shüdras. The number of the Sbūdras was very large. As a matter of fact, all but the first three vainas of Aryāvarta were generally included in the Shūdra varņa. Such people include i outsiders as well as the inhabitants of Āryavarta. The outsiders included the Kiskindhikagandhikas, the Shakas, the Yavanas, the Sheuryas, the Kraunchas ete, The Chandālas and Mrtapās too who resided at the outskirts of the Aryan settlements-the grâmas, the ghosas, the nagaras and the sanvähas-were the Shūdras.''28 The Shūdras were divided in two groups-the Niravasitas and the Aniravasitas The higher three varnas "could not take meals with the Aniravasita Shüdras but they could feed them in plates.” So the Aniravasita Shüdras could touch the food-vessels of the three vernas while the Niravasita Shüdras were not permitted to take meals their plates as the plates used by them would beeome so polluted that it would not be possible to purify them even by fire. 29 Takşā (carpen ters), Ayaskāra (blacksmith), Rajaka (washerman), Tantuvāya (weaver) etc. were Anirevasitas while the Chandalas, the Mștapās etc. were Nirayasitas. “The Niravasitas lived outside the villages. Their dwellings were separated from those of persons belonging to the three varnas. They lived at the end of the village, though they could live inside the urban area in big cities.”89 People belonging to all castes lived in the villages in the days of Patanjali. "Even in a village where a single caste prevailed, at least five kārus namely blacksmith, potmaker, carpenter, barber and washerman were a must ..... Houses adjacent to the boundary of the village whether outside or inside the boundary were called antaragphas. These were the dwellings of the Chandālas and the Metapas.”81 Ghurye contends that the Chandālas and the Mstapās at the time cannot be called untouchables as they were discriminated against only in the use of food vessels. 32 But people who were compelled to live outside the villages or in separate quarters of the towns, who could not touch the food vessels of the twice born and the use by whom of those vessels led to such a pollution that made them unfit for use by the three varņas cannot be defined as anything else but untouchables. We have discrissed in chapter I what untouchability means and we are in a position to conclude on the basis of that discussion that the Chandālas and Msta pãs were outcasts even though included in the Shūdra varņa. Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 3 ĀPASTAMBA Apastamba composed his Dharmasūtra before Patanjali in the third century B.C.. It appears certain castes of the Shüdra varna could serve as cooks in the household of the three varņas. 83 But there was another section of the Shüdras too, called Apa pătra. They could not use the food vessels of the three varmas, nor could they touch them. Haradatta, the commentator of Apastamba interprets the word as a term used for 'pratilma jātis' like Rajaka etc. Earlier we have seen that Manu uses the term 'Agapātra' for the Chandalas and the Svapachas. Who the 'Apapātra' groups referred to by Apastamba vere is a point capable of beroming a matter of contraversy. If it has not become so already, the explanation lies in the fact that nobody has cared to persue the matter so far. Yet, Āpastan.ba leaves no room for gain saying the existence of untouchability at the time.34 The Jatakas The Jatakas belong to a period not later than third century B.C. The Jätakas were not composed by the Brāhmaṇas. So the conditions depicted therein cannot be deemed as exaggerations or falsifications. In the Mātanga Jātaka, we come across the story that 16000 Brāhmaņas became outcasts as they ate the refuse of the Chandalas. In another tale, a Brāhmana took the refuse of a Chandala out of sheer ignorance and when he became aware of what he had done, he committed suicide in repentance (Satadhamma Jātaka). The Brah. maņas ran away from the streets whenever they saw the Chandālas for fear of becoming polluted by contact through air (Sataketa Jātaka). This cannot be dismissed as prijudice of the Brāhmaṇas either because other varņas too avoided the Chandālas, The daughter of a merchant was going on a palanquin A Chandāla became charmed of her beauty on the way and the girl too watched him attentively. Later when the girl came to know that the young man was Chandāla she washed her eyes to get rid of pollution and went away while the chandala was killed for the offence of looking at her. 36 That show the contact witb the Chandālas polluted not only the Brāhmanas, but even the Vaishyas. Therefore the Chandālas were not impure but untouchables, KAUȚILYA The ARTHASASTRA of Kautilya is dated the third or fourth century of christ by some while assigned to the Mauryan age by others. It contains certain remarks which prove the existance of untouchability even in the age of the work. 1. In a simile, it informs us that the well of the Chandalas is of Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 TULSI-PRAJNA use only to the Chandalas" (I. 14.10), In other words people belonging to other castes did not use the water of their wells. 2. There is also an Indication that the Chanḍālas lived out side the villages. The statement, as we find it in the work, means: "The quarters for heretics and Chandalas (should be) on the out skirts of the cremation ground" (II, 4, 23). Authenticity of the sutra is doubted as Stein points out that the heretics are seen to be residing inside else where (II. 36.14). The former is contradicted by the latter in this way, however, only partially. There is nothing to show that the Chanḍālas too were living inside. Most probably the original sütra stated something like this: The pulkasas, Svapākas and Chondalas should reside on the outskirts of the cremation ground." Later the Sūtra was distorted to include the heretics who were disliked by the orthodox The Svapakas, Pulkasas and Chandalas are mentioned as pariaps in the Pali literature Kautilya who b. longs to approximately the same age could not perceive the reality differently. 3. Kautilya forbids Chanḍālas to follow the custom of the Shūdras (III. 7. 37.). Ghurye concludes from it "that the Chanḍālas were for some time atleast following the customs of the Shūdras. because they were not actually considered to be a variety of them." Such an interpretation is unwarranted Prohibition does not necessarily mean that the group concerned was following certain customs. If the possibility or demand of following a custom arises as a matter of logic, people deeming that undesirable are prompt to forbid that. As the Chanḍālas were included in the general category of the Shudras, they might demand the rights and privileges of the Shudras. But due to their low states, they were not permitted to do that. They could not turn to jobs other than those traditionally assigned to them. PĀŅINI Dr. V. S. Agrawala through his intensive study of Aṣṭadhyāyi has established Pāņini's date as 480 B.C. to 410 B.C. All the information givin by Patanjali about the Shūdras occurs in connection with the explanation of Panini's grammatical rules. So most of that holds good for the days of Pāṇini too. One of the rules in the Aşṭadhyayı divides the Shudras into two groups-the Niravasitas and the Aniravasitas.37 Gopa, Nāpita, Karmakāra, Kumbhakāra, Jāmbulika, Jantuvāya were the Aniravasitas and Chanḍālas, Mṛtapās etc. were the Niravasitas Commentaries and illustrations of all, including Patanjali prove that the Niravasita Shüdras were untouchables. Dr. Ambedkar failed to recognise and appreciate this difference 5 Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ # Vol. XXI, No. 3 91 between the Aniravasita Shūdras and Niravasita Shūdras. Had he done that, he would not have concluded that untouchability came about around 400 A.D. Panini leaves no room for such conjections and establishes firmly the existence of untonchability before 483 B.C. In the days of Buddha There is evidence to show that untouchability was not unknown in the days of Buddha Dr. Ambedkar himself has come across two stories in his The Buddha and his Dhamma" that prove the existence of untouchability at the time. While describing the story of Suppiya and Sopaka's convertion to Buddhism, Ambedkar calls them pariahs. If Suppiya and Sopaka, who became Buddha's disciples were pariahs, how can one believe that untouchability came about much later? Ambedkar narrates the story of the Chandala girl, Prakṛti, in the same work. She was going on her way with a pot of water. Ananda requested her to give him some water to drink, She refused with the information that she was a Chanḍāla girl. Ānanda told her he wanted water to drink and did not want to know her caste. Such conversation proves that the Chandalas were outcasts at the time and people belonging to higher castes' (including even the Vedic Sanyasius) did not accept water from them. No wonder the non-Vedic monks (with the exception of the Buddhists) too treated the Chandalas in the same way. Even now we find so many socialists, communists and progressives who follow the caste rules and practise untouchability. That explains the Chanḍāla girls's unwillingness to give water to Ananda. Ambedkar has picked up these pieces of information from translations of the Pali cannons and the incidents occurred during the life of Buddha. So, There was untouchability even in the days of Buddha. To hesitate to concede so much antiquity to it would be as wrong as to support untouchability on the ground of its antiquity. Refusal to record truth and the attempt to falsify and distort it are the greatest crimes a historian can ever commit. Truth, even if bitter, is essential for correct understanding of social reality and proves ultimately a source of strength to the oppressed. So deviation from truth is not permissible on any specious grounds whatsoever. And to respect truth, we cannot help concluding that untouchability in India originated before 623 B.C. The Upanisads and before Scholars differ regarding the date of the Upanisads. But there is a general consensus that all the Upanisads do not belong to one period. The Brahadāraṇyak and the Chhandogya are believed to be Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 TULSI-PRA. NA the oldest among them and generally they are place one hundred or two hundred years before Buddha. Recently scholars like Prof. E. H. Johnstone and Prof R, M. Smith etc. have observed certain resemblances to Buddhism an Sankhya System in the Bșhadāraṇyak Upapisad and assigned 600 B.C. as the approximate date of composition to it.40 D. D. Koosa mbi has noticed the fact the B. U. refers to 'King Ajātashatru of Kāshi' in past tense and placed the date of its composition sometime after Buddha.41 The Chhāndogya Upanişad says the persons who perform good deed are born Brāhmanas. Ksatriyas and Vaishyas while the evildoers are born as dogr, swine or Chandālas.42 The Bșhadaranyak Upanisad uses derivatives like Paulkasa (son of Pulkasa) and Chandāla (son of Chandala) and expresses hatred for both 48 According to current notions, such references do not prove the existence of untouchability during the age of the Upanişads The first thing to observe in this connection is that the use of derivatives shows the distinction of the varnas and castes was not simply occupational at that time, but it had become hereditory The Brāhmaṇas, Kşatrsyas and Vaishyas were not simply groups pursuing different occupations but their professions and their status in society were decided by birth. That holds good in case of the Pulkasas and Chandālas also. Under the circumstances, the fact that the Chandāla Is compared to dogs and swine signfies more than hatred. It does mean that the Brahmanas, the Ksatriya and ihe Vaishyas could not dine with the Chandala and the contact with the latter polluted the former. It has been discussed earlier that it is not usual to compare a group with dogs and swine if one maintains contact with it. So untouchability did exist at the time. The evidence of the Buddhist texts proves existence of untouchability before 623 B,C The Upanisad lead us to the same conclusion. Pre-Upanişad texts are not clear about it. The Vājasaneyi Sanhitā of the White Yajurveda (chapter 30) meptions the sons of the Pulkasa, Chapdāla, Nisāda, Binda and Dhīvara. That definitely shows the hereditary nature of these groups. In other words, the words refer to certain castes. Some of the groups referred to as Antyaja castes in later works like Charmanna (atanner of hides). Vidālakara or Bidālakara (corresponding to the Buruļa of the Smstis) and Vāsahfulfuli (washer women) are also mentioned. The Rgveda mentions Charmanna and Vepa or Vaptā (barber). Several other occupations and groups are mentioned in the Vājasaneyi Sanbitā. There is nothing, however, to as certain if untouchability had come about at the time. Circumstantial evidence may lead to a conclusion Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI. No. 3 but that is bound to be of presumptive character resting on considerable degree of probability. To comprehend the admissibility of that conclusion one must know why and how untouchability came into being first. So the answer to the question, "when did untouchability come about ?” must wait. It bas beeh proved that untouchability did exist before 623 B.C. and that is enough for the present. Reference: 1. Walter, Yuan Chwang, Vol. I, P. 147 Quoted by Ambedkar at page 154 2. The untouchables, P. 155 3. Do, PP. 153-154 4. Do, p. 150 5 Do, P. 154 6. Do, P. 153 7. Do, P. 155 8. Do, P. 149 9. Do, P. 153 10. Do, P. 154 11. Manu, X. 4 12. The untouchables, PP. 144-145 13. Do, P. 145 14. Do, P. 145 15. Do, P. 146 16. Do, P. 33 17. Do, P. 67 18. Nārada, V.3 19. Nārada, V. 25 20. Nārada, V. 1 21. Do, V. 2 22. Manu, III, 63 and X. 4 23. Do, X. 20-23 24. Do, X. 43-44 25. Do, X. 45 26. Do, X. 51 27. Do, VIII. 68 28. Dr. P. D- Agnihotri, Patanjalikālina Bhārata (Patna, 1963), PP. 1^2-53 29. Do, P. 153 30. Do, P. 153 31. Do, P. 186 Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94 32. Race and Caste in India, P. 33. Apastamba. II 2:3-1, 5 34. Do, I. 1-3-25 and I. 5-16-30 35. The Jatakas, Vol. P. 376 36. Dr. V. S. Agrawala, Pāṇinikālīna Bharatavarṣa, Vārāṇāsī, 1969, P. 472 37. Aşṭādhyāyi, II. 4-10 38. Dr B R. Ambedkar, The Buddha And His Dhamma, 1957, PP. 186-187 TULSI-PRAJNA 39. Do, PP. 196-197 40. R. M. Smith, On the White Yajurveda Vamsa (Est and West, New Series, Vol. 16, Nos. 1-2, March-June, 1966, P. 124 41. D. D. Kosambi, The Culture and Civilisation of Ancient India, Delhi, 1970, p. 103 42. Chhandogya Upanisad, V. 10.7 43. Bṛhadaraṇyak Upanisad, [Author's views about the chronology have changed since the above was written in 1981 but the author prefers to leave it as it was.] 5 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACHARYA MAHAPRAJNA: THE TRUTH OF THE NOMENCLATURE Dr. Harishankar Pandey Acarya Mahaprajna is a renowned authority of Indian philosophy in general and Jainism in particular and the tenth spiritual-pontiff of Terapantha Dharmasamgha. He is enthusiatically engaged to display the relevence of unerring and precious preaching of Lord Mahavira. He is endowed with unfathomable mental calibre, omniscient-like personality and is also a dedicated disciple of the Pujya Gurudeva Sri Tulsi The term Mahaprajna derives from the co-ordination of two words, viz, maha and prajna The term maha1 denotes manifold meanings viz. great, large, wide, excellent, heavy, illustrious etc and the prajna means wisdom, intellect, intelligence, understanding, knowing discerning, distinguishing, learning etc. Therefore, Mahaprajna means a man of wide wisdom, a man of excellency and a man of unfathomable mental calibre. The annotater of the Uttaradhyayana enounced the wide excellency of Mahaprajna. He said "mahati niravaraṇatayā aparimāṇā prajñā kevalajñānātmikā saṁvit asyeti Mahaprajnā.”* i.e who is possessed of unlimited and unimpeded wisdom and perfect knowledge is called Mahaprajna, He Acarya Mahaprajna from his very childhood is endowed with inherent insight and intuition. There are many anecdotes and miracles, connected with the childhood of Mahaprajna. Mahaprajna, himself, says. "When I was only of six months then my father died. I have seen my father's departure, which is even today very clearly remembered." Another anecdote is very peculiar Once Mahaprajna in his childhood, was playing with his fond-friends then a sannyası approached him and announced that that child will be a great yogi. & Mahaprajna, at the tender age of 10, dedicated himself to the gracious feet of Acarya Sri Kalugani, the eighth supreme spiritualpontiff of Terapantha Dharmasamgha. He started his primary studies in the able direction of his teacher, Muni Sri Tulsi (now Ganadhipati Shri Tulsi). By his enthusiastic effort and unflinching exertion, he obtained the unimpeachable and impeccable knowledge and expansive wisdom. Later on, Muni Tulsi was enthroned on the spiritual post of Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TULSI-PRAJNA Acarya, and Muni Nathmala (Mahaprajna's previous name) was appointed as Nikaya pramukh (Chief Secretary) and later on as Yuvacarya (the success or designate). Having pleased by his dedication, enthusiasm, modesty and erudition, the Venerable Acarya Sri Tulsi installed him at the precious post of the tenth Acarya of Terapantha Dharmasamgha-a progressive sect of Swetambara jains, was established by the Revered Shri Bhikkhu Swami. 96 Acarya Mahaprajna has an extra ordinary and all-pervading genius and complete knowledge. He is a great philosopher extemporaneous poet, dedicated friar and an efficient exponent of the ideology of Pujya Gurudeva Ganadhipati Sri Tulsi. He is renowned as an extempore poet, because his mind and wisdom is efficient to compose poetry spontaneously at any time on any subject. There are many pieces of extempore-poetry, collected in Atulātulă, published by Adarsha Sahitya Sangh. They reveal his poetic ability. Churu His extemporaneous poetries are very lucid, attractive and full of spontaneous emotions. He is a master of awadhana vidya, i. e. science of attention. The terue Mahaprajna is found delineated in Dhammapada (a precious work of the Buddhism) mentioned as below: vitatanho anādāno niruttipada kovido, akkharāṇaṁ sannipatam Jñña pubbaparāṇi ca, sa be antimaśāriro mahāpāñño ti vuccai." i.e. A person who is free from craving and attachment, skilled in the knowledge of the significance of terms, who knows the grouping of letters and their sequence, and who has lived his last body is called Mahaprajna or a man of great wisdom. The characteristics of the term Mahaprajna as mentioned in the said aphorism may be elaborated as under: i Vitatanho-The vitatanho consists of to terms. viz, vita and taṇha. The vita means free, less etc. The tenha derives from the Sanskrit trişna, of winch means thirst, longing, craving, avarice, desire greed etc. The trişņā or craving is an eminent cause of all evils. The author of Dhammapada said: tanhaya jayati soko taphāya jayati bhayam, taṇhāya vippmuttassa natthi soko kuto bhayam.5 i.e, From craving springs grief, from craving springs fear, for $ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No.-3 97 him, who is wholly free from craving, there is no grief, what to speak of fear. A person whose mundane desires, transcient longings and wordly greeds have been totally destroyed is called vitatanho, i.e. Mahaprajna or a great man of wide wisdom. The personality of Acarya Mahaprajna is in perfect agreement with the above mentioned characteristics. He has freed himself from all transient thirst as well as wordly longings and stated in this severe-penance whereby the emancipation is obtained. ii. Anādāna-The term anādāna derives from the ādāna with prefix nan (an). The ādāna means attachment, fondness, affection etc A person, who is detached from all attachment and affection is called anādāna. Acarya Sri Mahaprajna has become free from all attachment. He has no attachment to any material, but he is only fond of the self or atma, has affection for unimpeded bliss and completely dedicated to the emancipation. iji. Niruttipadakovido-A person, who is skilled in the knowledge of the etymology of terms is called niruttipadakovido. Here niruttipadakovido is specially used to denote the penetrativeness and the authoritativeness in the four kinds of analytical knowledge (patisambhida) viz., attha or meaning, dhamma or text, nirutti or etymology and patibhana or understanding. Acarya Sri Mahaprajna is well-versed in meaning and terms. He has written hundreds of books, edited scores of canonical works and composed creative literature that reveals his steady wisdom and unimpeachable understanding. iv. Akkharānam sanyipātam pubbaparini ca Jañña-One who knows the syntax of words and their sequence is called Maha prajna'. Acarya Sri Maha prajna has a good understanding about the arrangement of words and their sequence. v. Antimaśarīro-One who removed his karmic-bondage and lived in his last body is called 'Mahaprajna'. Acarya Sri Mahaprajna seems to have almost destroyed his karmic bondage by penance and his horoscope may be used as an authentic evidence. A well known astrologer late Sri Sumanesa Josi has declared that Acarya Ma ha prajna has reached in the vicinity of the emancipation. For instance, some lines are quoted here : आज आचार्य को मेरा नमस्कार पहुंचे, फिर सिद्ध को मेरा नमस्कार पहुंचे, और फिर आने वाले अरिहन्त को मेरा नमस्कार पहुंचे।' Conclusively, it may be resumed that Acarya Mabaprajna is Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 TULSI-PRAJNA possesser of profound knowledge, and his, scholarship is studded with corals and gems. Reference 1. Sanskrit - English Dictionary by M, Millians 2. Ibidem 3. Uttaradhyayana tika, 241 4. Dhammapada 24.19 5. Ibidem verse no. 216 6. Mahaprajna vyaktitva aura krititva, mitra parisad Calcutta rp., 18 7. Ibidem, page 19 Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE JAIN STUPA AND ITS INSPIRATIONAL SOURCE Dr. Ratanlal Mishra In ancient times many civilization blossomed and withered leaving a trail of their grandeur and greatness. Likewise many religious systems flourished and vanished but relics of their greatness still resound in the minds of the people. In this transcient and evanescent world, nothing is permanent. The emergence is followed by disappeance and the advent by exit. As still water developes certain impurities likewise old systems, as time passes, decay and degenerate into something undesirable and are replaced by a vigorous new system which may be quite antithetic to the previous one. The emergence of Jainism and Buddhism was necessitated by the times. The prevalent vedic dharma had become too much ritualistic and lost its hold as a spiritual guide over the masses. People were eagerly looking for a dynamic religious system which could afford then an easy way of attaining salvalion and peace. Generally the emergence of Jainism and Buddhism is regarded as a protest against spiritual overlordship of the Brāhamans but this view is partially true. Both these religions adopted some prevalent practices and included them in their system as their own. Making of stupa was such a practice. The construction of stupa was such a practice of the prevalent faith. As raising of the funeral mound was an integral part of the funeral ceremony, it was invariably raised over the remains of the dead person. B. Rowland observes "The most probable view seems to be that this hemispherical structure (stupa) emerged out of the earthen funeral mound under which, according to Vedic retuals, the ashes of the dead were laid. The custom of rearing stupas was pre-Buddhist.”2 The Buddhists adopted this practice and raised stupas or topes in various parts of the country in large number. Mahavamsha mentions the number of such stupas as 84000 which may be an exaggeration, The Jaina religion which was rival to the Buddhist religion also esponsed the cult of stupas and erected this form of memorial in early times. It is needless to assert that the Vedic system of erecting Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100 TULSI-PRAJNA a structure or funeral mound found its way into the systems of the rival religious sects. Though the Buddhists particularly selected and adopted it to their own use, yet the other religious systems prevalent at that time also adopted it. Following the tradition the Jains built a stupa at Vaishali which was dedicated to Muni Subrata The stupa at Mathura was dedi. cated to suparswadeva. The Jaina literature is replete with the mention of stupa.. The Kankali mound from or near which most of the objects were excavated stands in the angle between the Agra and Goverdhan roads close to the south west corners of the city of Mathura. The Jaina stupa was excavated by Dr Fuhrer in the season 189091. Mr. Grouse and M. Marding found some objects of archeological int.rest together with a stupa in 1887-99. The Vodva stupa at Mathura was regarded to old even in 150 A.D. that it was regarded as the work of the gods, several centuries before the Christian era and may have been at least as ancient as the oldest Buddha stupa. According to Jinprabhasuri there was a stupa at Mathura made of gold and silver which was encased in bricks V. Smith observes, The Jains especially erected stupas surrounded by stone railings which are indistinguishable from those of the Buddhists and hono. ured the bones of their saints in exactly the same way as did their rivals, uptill now only two Jaina stu pas have been found The larger was 70 feet in diameter excavated by Dr. Fuhrer on the Kankali mount at Mathura."6 A miniature volive stupa of the third or the fourth century A.D. had also come to light. The smaller was excayated at Ramanagar (Ahichhatrapur) in Bareily district. In the Tirthakalpa of Jinprabha the legend of foundation and repair of vodva stupa is found. According to this work the stupa was originally made of gold and was adorned with precious stones. It was erected in memory of the seventh jina suparswanath by the goddess Kubera. A small votive stupa 101" in height was also found at Holigate of Mathura in excavation.? According to Dr. Jyotiprakash, the stupa was an early form of the structural architecture of the Jains as evidenced by the excavation of the Kankali-tila site at Mathura, where a large and beautiful stupa believed even about the begining of the christian era to have been built by the gods, in the times of seventh Tirthankara and renovated in those of the 23rd Tirthankara was extant till probably the beginn Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 3 101 ing of medieval times. In later times building of stupa however, seems to have lost favour with the Jains by the close of the Gupta period. This is the reason that no stupa belonging to this period or of later period has come to light so for. The reason of this apathy is not known. During the heyday of Buddhism the land was studded with the stupas of various size and form. The foreign visitors had se:n them and struck by their multitude and grandeur. No Jain stupa was, however, noticed by them. The stupas passed through the phase of devastation. Once by Mihirkula (518-529) and then by the shaivites. The barbarian list for destruction and vandalism of the Huns account for a large scale destruction and dismantling of the stupas. There is every possibility that some Jaina stupas of later times might have been destroyed alongwith others by the above mentioned persons. The Jains had built stupas in the memory of their saints. They were dedicated to the piaus personalities of their faith. It is a pity that most of them have not been unearthed so far. If the eminent ancient Jain sites are excavated, it seems possible that some such structures may come to light. The Jaina stupas so far excavated are mostly votive stupas meant for dedication to pious persons. On the other hand the Buddhist stupas are mostly of sepultural or memorial nature. Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 References: 1. Religions of India, Barth, pp. 125, 126. See the Relations between Early Buddhism and Brahamanism, Indian Historical Quarterly, vol. 10, pp. 236-274. 2. Evolution of the Hindu Temple, V. S. Agrawala, Varanashi, 1965, p. 23 3. Studies in Jaina Art, U. P. Sah, Banas, 1953 p. 9. The Age of Imparial Unity, Vidya Bhawan, Bombay, 1960, p. 487 4. Jain Stupas and other Antiquities of Mathura, V. Smith, A New Imperial series, 1901, Allahabad, p. 13 5. Jaina Art & Architecture, Amalanand Ghosh, Bhartiya Gyanpitha, New Delhi, 1975, p. 13 6. V. A. Smith & others of Cit p. 104-108 7. Mortuary Monuments in Ancient India, Dr. R. L. Mishra B. R. Publishing Corporation, New Delhi, p. 72-79 TULSI-PRAJŇA 8. The Genesis & spirit of Jaina Art; chapter 4 by Dr. Jyotiprakash in Jaina Art & Architecture, p. 39 9. Political History of Ancient India, Raychaudhari 6th Edi., 1953. p. 596 -44/62 Kiranpatha Mansarovar Jaipur Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WORLD PEACE THROUGH JAINA'S WAY OF LIVING Dr. Suresh C. Jain This planet embraces both living and non-living things made up of matter and soul. Livings have some fion-living elements (master) like carbon, oxygen, hydrogen, nitrogen, phosphate, sulphure with peculiar qualities due to soul. Scientifically all livings may be plants or animals have a special type of energy-consciousness and can be called soul or 'atma'. There are innumerable life-form including human, living in air, water and soil from billions of years. The balance in environment is a product of natural evolution since the time of origin of life. The birth and death of organisms, their life systems, diseases, interrelationships with natural phenomena like earthquake, lightening and erosion establish a complex of nature, which provides an equilibriuin between livings and non-livings including a permanent peace to this planet. Peace on this planet can only be established through a well constituted equilibrium between various components of the planet like livings both plants and animals and non-livings, plants and animals and so on. Any disturbance in the natural balance specially due to antinature activities of human result in violence i.e, disturbance in peace. Thus the absolute pleasure (sukh) is achieved only by following the way of living according to laws of nature universe (khagol) whereas 'dukh' comes by following the way of living against the laws of nature. Similarly the activity which goes against the laws of nature and create an imbalance in natural equilibrium of the planet is cited as sin (paap) whereas punya' is activity which held in establishing and maintaining a balan'e in the natural equilibrium of the planet. The norms suggested in Jain religion to be followed in the way of living by the followers are aimed to achieve absolute pleasure and live according to laws of nature. Religion is a basic nature of soul and a binding force of one soul with another, This force is present in all livings and even in non-livings of the earth and they do love, attract and even cooperate with each other when they develop the power of realising the nature of soul, life and religion. In Jaina's literatures we find a detailed description of 'sravakacara' method of Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 TULSI-PRAJNA living. Jainacharya stated that our national, social and personal life should be planned in such a way so as to minimise the disturbance in the life of 'sthavarkayika jiva'. This throws some light on the problems of soil, air, water noise pollutions, the main causes and emphasises that most of the modern problems are due to lack of awareness about the disturbances in sthavarkayika jiva' and its impact on the planet. By adopting Jaina's way of living we can minimise the violence in all forms of living beings and establish a permanent peace on this planet. -Regional Institute of Education, Ajmer-305004 $ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ APAHNUTI ALANKARA A CRITICAL ANALYSIS Dhananjaya Bhanja I. Introduction : In the text tradition of Sanskrit Poetics, the alankara's enjoy a secondary status. Still the importance of the alankara's cannot be undermined on the face of the fact that, each and every rhetoricians beginning from Bharata (1st C. B.C.) till the date. have discussed those, either in a full chapter or even have composed independent books on alankara's. In course of time the number of alankara's has increased from four () of Bharata to two hundred nine (209) of Kesava Miśra (16th C. A.D.). The logical necessity of the divisions and sub-divisions are of great importance. In the present paper it is proposed to study the historical development of the alaǹkāra, apahnuti. its definitions. its varieties and the reason(s) why it should be distinct alankara. For a systematic presentation, the present paper is arranged on the following heads : i. Historical development of the concept of apahnuti alankara ii. Its definition and illustrations iii. Distinct features of apahnuti alaṁkāra iv. It's varieties v. Apahnuti vis-a-vis other related alankaras vi. Observations in the form of Conclusion Let us now proceed to discuss these points one by one. II. Historical Development of the Concept of Apahnuti: As mentioned earlier, Bharata had maintained only four (4) alankaras, namely upama. yamaka, rupaka and dipaka. Its only in the text of Bhamaha, (6th c. A.D.) we get the definition of this alankara. In Dandin's (6th c. A.D.) Kavyadarśa, also we have the definition of apahnuti. Later text writers like Udbhața, Vamana, Rudrata, Bhoja, Kuntaka, Mammata, Ruyyana, Vägbhaṭṭa (I), Hemacaodra, Sobhakaramitra, Jaydeva, Vidyanatha, Sangharakṣita, Vidyadhara, Viswanatha, Amṛtānandayati, Vagbhaṭṭa (II), Appaya Diksita, Kesavamiśra, Panditarāja Jagannatha, Ciranjiva, Narendraprabhasūri, Bbavadeva sūrī, Narasingha Kavi, Veņidatta, Devasankar Purohita, Visweswara and Śrī Kṛṣṇabrahmatantra Parakala Śwāmi have given the definition of apahnuti with illustra Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 TULSI-PRAJNA tions. It is interesting to note that Dr. Rajvarsasa hāya 'Hirā' in his book Alankārânuşilaşa'notes that Bbāmaha has introduced this alankāra for the first time in the history of Sanskrit poetics.8 Prof. Jagadisha Chandra Mishra in his work "The history of rhectoric" holds that Bhatti has introduced this alankāra for the first time. Again Dr. Brahmamitra Avasthi in his "Alankārakosa" cites the definition from 'Agnipurāna”,5 first rollowed by the definition from Dandin and Bhāmaha. Thus this is not clear to whom the credit of introducing this alańkāra for first time should be given. In the later time Udbhatta has taken the definition of Bhāmaha. The definition of Mammata is influenced by the definition of Rudrata which is again influenced by Vāmana. Still later writers like Vidyādhara, Vidyānātha and Viswanatha etc, have not contri. buted anything new, and the definition is the almost same, though they differ by terminology. III The Definitions and Illustrations : We may now reproduce a few definitions from the works of rhetorics with illustrations. 1. apahputira pahnutya kimcidanyārthasūcanaṁ // Agni pu; 345.18 2. apahnutira pahnutya kimcidanyārthadassanaṁ || Dandin; Kāvyādarsh, 2.304 3 apahnutirabhiştā ca kimcidantargatopamā, bhūtarthāpanhavadasyāḥ kriyate cābhidhã yatlā // Bhāma ha; kavyālam, 3.21 4. prakstam yat nişidhyānyat sādhyate sā tu apabnutih || Mammața; KP, 10.96 5. prakstam pratișidhyānyasthāpanam syādapahnutiḥ 11 Visvarātha; SD, 10.38 As can be seen from these definitions just quoted, apahnuti, is a figure based on identity. j.e. abheda. In fact, it is a metaphor, supplemented by denial (an apahnava) to clarity; when it is said "mukham candraḥ" or "candraṁ paśyāmi”, I see the moon, seeing a face of a lady, it is metaphor. But if it is said “nedaṁ mukham" this is not a face, "candroyam", this is moon, seeing the face of a lady, it is apahnuti In metaphor we have imposition of one thing over another, where as in a pahnuti we have imposition backed by apahnava to she extend that the Prakrta is not what it is. We quote here a few examples which would make our point move clear. 1. "nedam Dabhomaņa alamamburāsḥ naitāscatārā, nava phenabhamgāh, Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 3 107 nāyam sasi, kuņdalitaḥ phộiodro nāsau kalankaḥ, śayito murāriḥ" 2. "avāptaḥ pragalbhyaṁ pariņatarūcaḥ śailata :laye kalanko najvāyam vilasati saśāņkasya vapusi, amuşyeyam manye vigaladamstasyandaśiśire ratiśrāatā śete rajaniram iņi gādhamurasi”? 3. "apkan kepi Śaś zrkire jalanidheḥ parkam pare menire sārafigaṁ katicicci sajjagadire bhucchāyamaicchan pare, indau yaddalitendra nišakalaşyāmam dariděśyate tatsāndraṁ niși pitamaridhatam asam kuksisthamācakşmahe"8 In the first illustration, in a moon-lit night the sky is described as not a sky. but the water of ocean "nedam nabhomandalam amburāśiḥ iti”. The stars are not the stars but the pieces of white fumes, the moon is not the spot, but Lord Krsna. In all these cases on the basis of similarity the fact that is the praksta is denied and stated to be something else IV. Salient Features of Apahnuti : Let us now see the salient features of this figure. 1. This figure is mainly based on similarity as already stated. Even sometimes in the absence of Saděśya, apahputi is possible. 2. In apabnuti one thing is always denied and other is establi shed. This denial must be elaborate that is intentional. 3. The denial of one and the establish of the other to drive in similarity. 4. The denial may be of a single negation like "nedaṁ mukham" or may be given as an opinion of some which the poet declare to accept as in "aṁkaṁ kepi sağam kire...” etj, or may be expressed by words chala, kapata, vyāja etc. 5. The nisedha may proceed the āropa or vice versa. V. The Varieties of Apahnuti Alankāra : We have several divisions of this figure which are not very significant, the basic idea being same. Mammata has two divisions namely"bhinnavākya gatah” and ekavákyagatah”.. Thus the nişedha and aropa may be in two sentences or even more than two like "nedam mukhan, candroyam”. This is not the face but moon or as in the example "amkaṁ kepi sasaṁkire..." etc. this amounts to apahnuti in different sentence. Sometimes the nişedha and äropa may be put in a single sentence by use of the words like chala, Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 TULSI PRAJNA kapata, vyāja, kaitava etc, For example, "mukhocchadmań candroyar". Kuvalayananda gives as many as six varieties of this figure where namely suddha, hetu, paryasta, bhriati, chheka and kaitavāpahnuti,20 1. In guddhāpahnuti the upameya is denied and the upamāna is established. "nāyam sūdhāṁğu kim tarhi vyomagangāsarorübain" (This is not the moon but it is a lotus in heavenly Gangā). 2. In hetvāpahnuti, the reason is given for denying the upameya; the example is "nendustTvro na nisyarkah sindhoh...” (It is not the moon; for it is not found at night; nor is it the mun; for it is not hot; it is the sub-marine fire that has shot up from the ocean:-said about the moon by a virabiņi nāyika". 3. In paryastāpahnuti, where upameya is denied as upamāna and the upameya is established as upamāna. For example, "nāyam sūdhāṁsu..." (It is not moon, but the face of the lady). 4. In bhrāntya pahnuti, the delusion of somebody is removed : "tāpaṁ karoti sotkampan...". (Here a virahiņt nāyikā” says tāpam karoti sotakampaņ...". Somebody misunderstands this, thinking that it is the effect of jwaraḥ, the first speaker corrects it by telling that it is smaraḥ but not jwaraḥ. 5. In chhekāpahnuti, it is opposite to Bhrāatyāgahnuti. Here in order to hide some embarassment and relevant thing is stated and the actual fact is denied. "prajwalpan matpade lagoaḥ...”. (Here the "nāyikā" says to her friend "prajwalpan matpade lagnaþ"), he fell on my feet murmuring and the friend asks “kāntaḥ kim”, is he your husband; and the lady replies "na hi nūpurah" no it is the anklet. 6. In kaitavāpahnuti, where the words like vyāja, chadma, kapata etc., are used; it is kaita vāpahnuti. mukhacchadmam kamadamidań”. This is same as ekavākyagata apadnutiḥ of Mammața. 11 VI. Apabouti vis-a-vis other Fignres of Speech : (1) There is a scope of confusing apahnuti with rûpaka and apahnuti with vyājokti or even with sardeha. Both 'the rûpaka and apabnuti are based on sadrsya but in apahnuti there is nisedha and āropa where as in rūpaka there is only äropa and no nisedha. 12 (2) In vyājokti the real fact is concealed and some unreal excuse given. Between vyājokti and apahnuti two things are common (A) intentional or deliberate concealment of the fact and (B) similarity between the fact desired to be confirm and the one to be established. In vyājokti the thing is concealed by the speaker keeping silent over Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 3 109 it and in apahnuti it is canceled by denieal. In vyājokti the speaker's intention is practical to keep the listener in the dark where as in apahnuti it is poetical to bring the sădssya. 13 VII. Conclusion : On the basis of what we have discussed in the above pages, we may draw the following conclusions. 1. apahnuti was recognised as a figure by Bhāmaha for the first time. According to some it is introduced by Dandin or Bhațţi even in agnipurāņa, the apahnuti alapkāra is mentioned. 2. Originally it was looked upon as "sādrśyālaskāraḥ”, a figure based on similarity; by Bhãmaha, Daņdio, widened its scone to conclude all cases of nişedha and aropa in respective of sāļrśya. 3. Udbhațţa, Vāmana, Rudrața, Mammața etc. took this figure to be based on similarity following Bbamaha. 4. Ruyyaka, Viswanātha, Appaya Dikşita have followed Daņçin and have accepted a broader view of this figure alike Daņdin. 5. It is different from rûpaka because in rûpaka there is no nişedha. Here aropa is there. 6. It is different from vyājokti because in vyājokti the speaker is practical and in apahouti it is poetical. Further in vyājokti, the things are concealed by the speaker keeping silence over it where as in apahnuti it is actually denied. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 References: 1. Upamā rūpakaṁ caiva dīpakaṁ yamakaṁ tathā, alamkārāstu vijñeyāścatvāro nāṭakāśrayāḥ // TULSI-PRAJNA Natya Sa., 17.43 2. The definitions are quoted elsewhere in this paper. 3. Dr. Rajavansa sahaya Hira; Alamkaranuślilaṇa; 1970, p. 192 I. II. 4. Prof. Jagadisha Chandra Mishra; The History of rhectorics (Alankara sastrasyetihasa); 1986; p. 137 i. 1-4. 5. Dr. Brahmamitra Avasthi, "Alankara koşa" 1989 pp. 54-58. 6. Acarka Seşarajaśarma "regmi", Sahityadarpaņa; 1981. p. 869. 7. Raghunatha Damodara Karmakar; Kavyaprakasa, BORI; 1965, p, 607 11. 2-5. 8. Jagadischandra Mishra; Citramimaṁsa; 191 p. 303 11. 5-8. 9. "Apahnova pūrvaka aropaḥ; aropapūrvako pahnavaḥ; chhaladisabdairasatyatva pratipadakairva pahnava nirdeśaḥ / Pūrvokta bhedadvaye vakyabhedaḥ, tṛtıyabhede tu ekavakyat" Dr. V. Raghavan. Alankarasarvasva; 1965 p. 63, 11. 2-4. 10. T.K.R. Aiyer; Kuvalayananda, NSp. 1907 pp. 25-31. 11. vide Citramimaṁsa, pp. 300-309. 12. vide kavyaprakaga, BORI; 1965 p. 593. 1. 1. 13. vide kavyaprakasa, BORI, 1965 p. 700. 1. 3. -Ph. D. Scholar C.A.S.S. University of Pone Poona Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NON-VIOLENCE IN MEDICAL SCIENCE Anil K Dhar It has been stated by TERRA* reportthat if we will do experi. ments and research on the human beings in the same ratio as we are doing with innocent creature, the human existance will last only for four years. Means that modern science is claiming more than 15 B. innocent lives every year. No one in the world today having the slightest acquaintance with the nature of medical science can doubt that it is permeated with violence. Perhaps this sound strange to those outside the profession. The goal of medical science, after all, is to relieve people of pain and suffering and to reduce the sum total of human misery. What could be violent about this ? But violence, of course, always passes for something else. It is so sinister that medical science and scientists are generally overlooking it. It can be argued that modern scientific medicine is so vastly complicated that Violence is simply unavoidable. Surely we must expect things go wrong when nature and diseases of mankind are so complex Antinature tendencies and living style has gifted mankind a series of complex diseases. Now, we have to ponder what principle makes a pious profession like medical to adopt unethical violentic approaches. To me it seems that the principle of Hierarchy of life is one of the main reason behind this. Have the 'higher' forms of life higher valae ? It is a common belief that the higher forms of life have a higher value, and that the lower forms of life may be wilfully sacrified in the interest of the more developed forms of life. An extreme example of the western view of life as representing a hierarchy is Kant's? belief that natural objects which are non-rational have only a relative instrumental value and are consequently called things. This value gap between rational beings, called persons, and non-rational creatures is given a different significance in Indian thought. However the hierarchy of life is still recognised. The BhagavataPurana gives a full account of the hierarchy of living beings : animate (Jiva) beings are better than inanimate beings (Ajiva); breathing creatures (Pranavata) are best among the animates ones. Among breathing beings those who posses a mind are the best. Among those Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 TULSI-PRAJNA equipped with a mind, the creature who have sensual experiences (indryavati) are the best. Those experiencing taste are better than those who experience only touch. Those who experience smell are better than the above two. Those who evperience sound are better than the above three. Those who know the difference among the various types of colours are better than those above. Those having teeth on both sides of the mouth are stiil better. Among these, again, the best are those who have many feet. Four footed ones are still better. Two footed ones are even better than the four footed ones, 2 The being belonging to the four castes, i.e. human beings, are better than other two footed creatures. Among the four castes the brahmana is the best. Among the brahmins those well versed in the vedas are the best. Among these, again the best are those who know the implications of the vedas. Still better are those who can dispel doubts. Among these again, those are the best who perform their own duties. Even more excellent are those who are free from attachment and do not hanker after the fruit of their own merit." The Jainas, too recognise a hierarchy of life. Those who practise ahimsa, but are unable to renounce the himsa towards immobile beings should at least give up bimsa towards mobile beings.“ The distinction among one-, two-, three-, four-, and fivesensed beings occurs repeatedly, and also a distinction is made between rational and non-rational five-sensed beings. Although the Jainas recognise the hierarchy of life it has not the same impact in actual practice. In Jainism the idea that every life-unit is of equal value effectively counter-balances the importance of hierarchy.5 According to Buddhism, it appears, to harm a less developed form of life is a lesser offence than to harm a more developed form of life. This view is supported by R. S. Hardy who explain that he who kills a large animal will accrue greater demerit than he who kills a small creature, because greater skills or artifice is required in taking the life of the former.? The above referepces show that the hierarchy of life is recognised in all major schools of Indian thought. From the principle of hierarchy does not necessarily follow that all forms of life are equally valuable, but what follows from it is that smaller form of existing beings can be sacrificed for the higher ones. The recognition of the higner value of higher forms of life does not imply any justification for the sacrifice of less developed forms of life in the interests of the more developed forms of life. Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 3 113 What medical science is doing ? Unfortunately the principle of hierarchy of life has erupted violence in many forms Medical science also is not untouched. in fact, its very base is on this concept that human being are the superiour resulting the ruthless killing of innocent creatures. li has felt free to use any method what so ever against the innocent for our survival. What medical science is doing on the name of good of human being can be seen as : In 1 71 only following nos, of animals were killed in American laboratories-monkeys-852830, Pigs 466240. Goat--22691, Tortoise- 180000, Dogs --- 500000, Rabits700000, Hyenas-200000, Mice40000000, Frogs-15 to 20 lac. (in 1980 some three crore'). All of this in the name of welfare science, how strange it sounds ? Mind it, the medicines we are using are the outcome of the research on these innocent creature. The capsule we are taking in the shape of life saving drug or vitamins are made of jiletin, and jiletin is made from the bones, foot and tissues of animals. 10 A Bombay based pharmaceutical company 'Franko' is manufacturing Dey oranje' with the collaboration of a French Farmceutical company is using 95% blood of slaughtered animals in the name of hemoglobin up. More than a lac of animals are slaughtered at Devnor, Bombay, Asia's biggest slaughter house. 11 Innocents are becoming violent in the name of science In India, every school and college uses frogs for its biology classes In 1956, 2.6 m. were dissected and thrown a way. In 1980, 18 m. were slaughtered. In 1987 Indian schools alone were responsible for 20 m. frog deaths in the interest of science for the 14 year old. Some school do not only use frogs. They use cars and dogs supplied to them by the city corporation animal catchers. 12 The only fault of this great protecter of crops is that of his anatomic similarties to the mankind and an animal whose only fault is that no owns'' it, is delivered to a school laboratory to be ex, erimented on by children, leading to a consumerestic attitude. Says Randoll Lockwood director of higher education programmes for the Human Society of the United States that carving up a frog dosn't teach a student to think inquisitively. It teaches him/her that living things are just commodities that can be cut up and thrown out at the end of a class A Little crusader In April 1987 Jennifer Graham of victorville, California, made international headlines when she refused to participate in the frog dissection required by her high school biology class. She argued Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 TULSI-PRAJNA tbat she could learn frog anatomy adequately from models, diagrams and a computer programme called operation Frog which is a simulation of a frog dissection. When her teachers insisted, Graham went to court and won her case. 15 Compufrog : A Non-violent vivseection There exists non-violent alternative learning method to know the anatomy of frog. Gujrat Govt. has banned the vivisection in schools replaced by a computer programme called Compu frog invented by Chinny Krishna and given to the Animal Welfare Board 14 Any school can get it free and replace killing with true education. India is a non-violent agriculture based country, and Ayurveda (a type of treatment based on herbal products) is said to be at its highest peak in ancient times and still it is gaining popularty in west also. Among the six stages of ancient Indian healing system, no medicines was prescribed to the patient in first five stages. Medicine was given in the sixth and final stage that too based on herbal products. Samant-Bhadra a monk of South India invented a rasayan. Pusb payurveda based on some 18,000 kinds of flowers. 15 Many Ayurvedacharya like Charak, Dhanvantari, Sushrut and Nagarjuna etc. have discovered several types of tremendous medicines based on herbal products. Can't we try and explore some tbese types of nonvioient way to treat a patient without being crual for the innocent creature and without causing any more complications for the patient in the shape of side effect, which is the fruit of modern medical science. This is the need of hour to look in for some ethical substitude and a sepsitive person finds it in nature. Rousseau 16 has rightly said, Back to Nature. Nature itself is enough potent to meet all necessities of mankind, what so ever it is. Perfect Healing Human body is most complicated and perfect machinery developed by creator having all kinds of machines developed by modern science. It can regulate itself with complete harmony, coordination and cooperation. Whenever the harmony is disturbed due to impurities of soul, mind and body, we become ill. Therefore, while treating any patient all the parameters of health have to be considered. By neglecting any one of these and emphising only on body can't provide perfect health. Negative emotions like tension, anger, greediners, impatience, evil thought, proudy and artificial attitude etc. are also responsible for many common disease, and we are trying to curb them through worthless bunches of medicine. Of the 60,000 medi. cincs sold in most countries, the World Health Organisation says that Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 3 115 only about 200 are necessary. 17 These types of emotions can easily be controlled by Preksha Meditation and balancing endocrine glandes or energy centres (Psyche Centres-Chaitnya Kendra) of body through Colour Meditation (Leshya Dhyan). Right thinking and meditation is a method of alertaess to keep organ free from emotional and environmental tensions and toxins It maintain a smooth and abundant flow of required and balance energy throughout the body resulting a holistic non violent personality, free from negative emotions and egos. As long as the "me”, the thought survive in any form, very subtly or grossly, there must be violence If one looks at the whole process of violence, the "me" comes to an end. The nonviolent state of mind implies that the subject and the object are inseparable, or the mind functions holographically; or the quantum jump from mutilated perception to pure perception. It is also called love. In the non-violent state of mind is the birth of compassion which alone will save the world from destruction. This result into mutation of mind. This awakens the intelligence which arises out of observation, self knowing and compassion. It is non-violent state of mind that can look in for purity and perfection in his every action and deed 18 Conclosion There is no need to make a choice, we should allow every form of life to exist and function according to its specific conditions. We shall try to reach real peace instead of short term relief and if we are to reaeh real peace in this world, scientific-spiritual personalities has to be built through education. We shall have to begin with children and if they will grow up in their natural innocence, we won't have the unethical practices, but we shall go from love to love and peace to peace, until at last all the corners of the world are covered with that peace and love for which, consciously or unconsciously, the whole world is hungring. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 Reference: * Tata Energy and Resources Research Analysis. 1. Ahimsa, 112 2. Bhagvata-Purana, 2.29.28-32 3. Ibid 4. Purusartha-Siddhya-paya, 3.75 5. A History of the world's Religions, David and John, Macmillan Publishing Company, New York, 1984, P. 150-51 6. Vinaya, Mahavaga, P. 101 7. R. S. Hardy, A Mannual of Buddhism, p. 478 8. Dr. Nemichand Jain, बेकसूर प्राणियों के खून में सने हमारे ये बर्बर शौक, TULSI-PRAJNA पृ. १२ 9. Ibid, p. 11 10. Ibid, p. 12 11. Ibid, p. 8 12. Menka Gandhi, Head and Tail (p. 92-93) 13. Ibid, 92 14. Ibid, 93 15. बेकसूर प्राणियों के खून में सने हमारे ये बर्बर शौक, पृ. ८ 16. History of Western Political Thought, p. 584 17, Where there is no doctor, p. 50 13. Non-violence and Relationship to Meet the challanges to Mankind, Sampoorna Singh, p. 28 -Asstt. Professor, Deptt. of Non-violence & Peace Research, Jain Vishva Bharati Institute (Deemed University, Ladnun-341 306 (Rajasthan) 2 Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Book Review THE NALADIYAR, Editor, Pt. Vinayasagarji & others; Publisher Prakrit Bharati Academy, Jaipur, 1990 A.D Pages 200+30, Price Rs. 120/-. Jainism has its own importance in South India, particularly in Karnataka and Tamila Nadu. The Jaina teachers who moved to South India from the North (Madhyadeśa) during the great twelveyear famine, settled in Karnataka and Tamila country, learned the respective regional languages and composed there works of great value. The earliest and the most authoritative Tamil grammar Tolkappiyam is by a Jaina teacher. Silappadikaraṁ (Topic of the Anklet), the famous Tamil epic, is by the Jaina teacher Ilango Adigal Tirukkural (c 600 A D.), claimed as a world classic and Tamil Veda, is a rare treatise on the Art of living composed by an erudite Jaina householder Tiruvallvar-and not by Elācārya or Kundakundacarya as supposed by many so far (vide my paper Some Thoughts on Tirukkural and its Authorship, Tulasi Prajñā, Vol. XVII-2, 1991). Similarly the Naladiyar, is a compilation by the Jaina teacher Padumnar (c. 700 A.D.). It is also a worthy treatise on the Art of living containing 3 parts (Kāṇḍas) viz., Dharma, Artha and Kama, divided into 40 chapters (Adhyayas), each containing a group of ten verses which are quartains, Thus it is cast in all 400 quartains. These verses have 4 feet (nalaḍi) and hence, the work is entitled Nalaḍiyār. The Prakrit Bharati Academy, Jaipur, in Association with Baijanath Goenka Charitable Trust, Munger, deserves special compliments for recently publishing (1990) this ancient (pp xxx-200, price Rs. 120/-) Tamil work, with Mahopadhyaya Vinaya Sagarji as its editor, Dr. G.A. Pope and F.W. Elis as its English Prose translators, Shri Sbreeram Desikan as its versified Sanskrit translator and Shri Shreenivas Raghavan as its versified Hindi translator-all in one Dr. Mandana Mishra, the Vice-Chancellor of Shri Lal Bahaddur Shastri University, Delhi, has written a scholarly Introduction to this important book. Discussing the importance of human speech (Vaņi), wise sayings (Subhasitas or Suktis) and such words of wisdom in Prakrit Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 TULSI-PRAJNA literature, he highlights the main contents of the Nalaţiyar. Passingly he also refers to a Jaina tradition in the Tamil country regarding the birth of this ancient anthology containing 400 verses of great ethical value. It is curious to note that the Tirukkural and the Nalaţiyar compare well in several respects : The titles of both works have a bearing on the respective metres; both are mainly ethical works; both deal with the 3 Purusarthas (objects of life) viz., Dharma, Artha and Kama--the 4th Purusartha Moksa being the proper synthesis of these three; and the chapters of both works are divided into groups of 10 verses each. The main difference between these two works is that the Tirukkural is a composed work by the author and the Naladiyar is anthology of wise sayings or words of wisdom of earlier Jaina saints. The Nalaţiyar very effectively brings out the cphímeral and unstable nature of beauty, youth, fame, power, material resources etc. It also emphasises the positive and permanent role of proper knowledge of Jaina Doctrines like non-violence, truth, compassion, charity, universal brotherhood etc. carya Padumnar has gleaned a number of important statements, advices, encouragements, warnings appreciations etc. as words of wisdom from the works of earlier Jaina saints who flourished in the Tamil country. A few of them can be noted here as mere specimens: Wealth, youth, beauty, prosperity, power, might etc. are all ephemeral and unstable. Death is inevitable. Righteousness (dharma) is great and mighty. One has to accout sorrows and sufferings of life as retributive. Death is waiting behind you. So do dharma before it lays its hand on you. By this you would gain in the next world. Rash speech is harmful. . Do not return evil for evil, but return good for evil, Do not argue with fools. Forbearence strengthens friendship. Practise charity (give dana) according to your capacity. Give what you can and when you can. Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vol. XXI, No. 3 119 Association with the learned and the books of wisdom will make you happy and peaceful. Have a good wife and happy home. Taking second wife is horrible, Beware of purchased embraces (gaạikasanga). -Dr. B. K. Khadabadt Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registration Nos. Postal Department : NUR-08 Registrar of News Papers for India : 28340/75 TULSI-PRAJNA 1995-96 Vol. XXI Annual Subs. Rs 60/ Life Membership Rs. 600,प्रकाशक-संपादक : डॉ० परमेश्वर सोलंकी द्वारा जैन विश्व भारती प्रेस, लाडनूं (भारत)-३४१३०६ में मुद्रित कराके प्रकाशित किया गया।