SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अहमित्यक्षरं ब्रह्म, वाचक परमेष्ठिनः। सिद्धचक्रस्य सद्बीजं, सर्वतः प्रणिदध्महे ॥३॥ -ऋषि मंडल स्तोत्र अहं वर्णमाला का सूक्ष्म सार रूप है । यही सिद्ध है जिसकी ॐ नमः सिद्धम् में उपासना की गई है । मंत्र को प्राणवान् चैतन्यवान् बनाने हेतु उसमें सृजन शक्ति का समावेश करना अत्यन्त आवश्यक होता है। ह पुरुषाकार है तो अ प्रकृति रूप। जब तक पुरुष तथा प्रकृति का भाव रहता है तब तक सृष्टि में कर्मों का सृजन होता रहता है एवं जब अग्निबीज के द्वारा पुरुष तथा प्रकृति का भेद समाप्त कर दिया जाता है तब आत्मा का अहं रूप परमात्मा का सिद्ध रूप अहं बन जाता है । यही अहं नवपद सिद्ध चक्र का बीजरूप है जो जैनागम में विशुद्ध ज्ञानमार्ग का प्रतीक है । सिद्धचक्र के पूजन के द्वितीय वलय में (१) अवर्ग के अ आदि १६ स्वर (२) क वर्ग से प वर्ग पर्यन्त २५ व्यंजन ४ अन्तस्थ य वर्ग एवं ४ ऊष्म श वर्ग तथा एक अनाहत नाद की अर्चना की गई है। उसके दूसरे मंत्र इन्हीं वर्णों की विविधात्मिका व्याख्या है। यह अहं प्राणायाममय है। इसका प्रथमाक्षर अ पूरक है, ह रेनक है एवं म कुम्भक है । म को बिन्दु रूप में भी यक्त करते हैं। यह बिन्दु सभी प्राणियों के नासानुभाग में स्थित है एवं योगियों द्वारा चिन्तनीय है। इसकी पुष्टि सिद्ध चक्र मंत्रोद्वार पूजन विधि में की गई है आह्वानं पूरकेणव, रेचकेन विसर्जनम् ।।२२।। तो यह स्पष्ट हुआ कि सिद्धचक्र जिसको नवपद भी कहते हैं सिद्ध वर्गों का समुदाय है जिसके मूल में अ से ह पर्यन्त तेजोमय अहं स्थित है त्रिज्याक्षराणि बिन्दुश्च यस्य देवस्य नामवै । स सर्वज्ञः समाख्यातः अहं च इति पण्डितैः ।। -----धर्मोपदेशमाला हम पहले कह चुके हैं कि मातृका लिपिमय देवी है जिसमें दृश्य एवं अदृश्य समस्त संसार समाया हुआ है। श्री सिद्धचक्र स्तोत्र में इस बात को इस रूप में स्पष्ट किया गया है-- ॐ ह्रीं स्फुटानाहत मूलमंत्र, स्वरः परीतं परितोऽस्ति सृष्ट्या । यत्राह मित्युज्जवलमाद्य बीजं, श्री सिद्धचक्रम् तदहं नमामि ।। तांत्रिक भाषा में जिसे बिन्दु नवक कहते हैं उसमें बिन्दु, अर्द्धन्दु, निरोधिनी, नाद, नादान्त, शक्ति, व्यापिनी, समना, उन्मना । आगमिक भाषा में इसे ही अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप अर्थात् नवपद की संज्ञा से अभिहित करते हैं। मांत्रिक भाषा में इसे स्वर, कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, बन्द २१, मंक ३ २४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy