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ऊष्म एवं क्षवर्ग कहते हैं । "ननुक्षकारेण सह नववर्गाः ' - तंत्रालोक
पवर्ग, अन्तस्थ, ६ अध्याय ।
बिन्दु नवक तंत्र के अन्तर्गत आता है जो ध्यानात्मक सिद्धचक्र यंत्र है एवं आकृत्यात्मक है । मातृका मंत्रात्मक है एवं वर्णात्मक है। सिद्धचक्र को शरीर में स्थापित किया उसकी आकृति पुरुष की सी है । उस पिंड स्वरूप में वर्णमाला का ध्यान करना पदस्थ ध्यान कहलाता है । पदस्थ ध्यान का मूल अथवा सार " अकाराद्यं हकारान्तं बिन्दुरेखा समन्वितं अहं" है । श्री जयसिंहदेवसूरि विरचित धर्मोपदेशमाला विवरण में अहं रूप सिद्ध मातृका का महत्त्व प्रतिपादित किया गया है
अकारादि हकारान्तं, प्रसिद्धा सिद्ध मातृका ।
इस सिद्ध मातृका की अपनी एक लिपि है जिसका न्यास मंत्र जपादि में प्रत्येक साधक को करना चाहिये
जपादौ सर्वमंत्राणां विन्यासेन लिपेविना ।
कृतं स्यान्निष्फलं विद्या तस्मात् पूर्वं लिपि न्यसेत् ॥
अनादि सिद्ध मातृका को पद भी कहते हैं । पद वाचक है और उसका अर्थ वाच्य है । अहं पद परमेष्ठि भगवान् का वाचक है एवं पंच परमेष्ठि उसके बाच्य हैं । संसार के समस्त पदार्थों के साक्षात्कार हेतु अहं पद की उपासना, शरण एवं प्रतिष्ठापना आवश्यक है । अहं के तीन पद अ - उत्पाद व्यय का हं- ध्रौव्यात्मकता के प्रतीक 1 अ अव्यक्त होने से बिन्दु रूप हैं, र कलात्मक है, हैं की गूंज नादात्मक है । अर्ह का व्याकरण शास्त्रानुसार अर्थ है योग्य । अहँ जब तप की पावन अग्नि में हैं की हंकृति को भस्म कर देता है तब वह अ- - अशेष यानि सम्पूर्ण बन जाता है। ये अहं रूप सर्वज्ञ परमात्मा स्याद्वादशैली से मूर्त, अमृतं, कला रहित, कला सहित, सूक्ष्म, स्थूल व्यक्त, अव्यक्त, निर्गुण, सगुण, सर्वकायी, देश व्यापी, अक्षय, क्षयवान्, अनित्य एवं नित्य आदि १६ प्रकार का है जो १६ स्वर हैं एवं नाभिकमल के १६ पत्रों के प्रतीक हैं । इसी अहं के रूपों में यदि युग्म बना दिये जायें तो वे मूर्त अमूर्त, अकला, सकला आदि ८ युग्म बनेंगे जिन्हें मुक्त के अष्टदल का प्रतीक कहेंगे जिनके अन्तर्गत यरलवशषसह आदि अन्तस्थ ऊष्मादि आ जाते हैं । व्यंजन रूप २४ तीर्थंकर इसी अहं से भासमान हैं जिनमें बिन्दुरूप में म अनुगुंजित है नाद एवं कला से परे तुरीय रूप का भी समावेश है । काम एवं मोक्ष को प्रदान करने वाली हैं । ॐ नमः सिद्धम् में इसी अहं का पदस्थ ध्यान है इसीलिये तो कहा गया है।
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अहं की चार मात्रायें हैं बिन्दु इसकी चारों मात्रायें धर्म, अर्थ,
एकः शब्दः सम्यक् ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुग् भवतीति ।
इस प्रकार यह स्पष्ट हुआ कि ॐ नमः सिद्धम् में जिस सिद्ध की उपासना की गई है वह आद्यज्ञान का उद्वाहक, उद्घोषक एवं समायोजक वर्ण है । समग्र संसार वर्णमय है एवं वर्ण में ही संसार समाया हुआ है । वर्ण का अर्थ है वः - तुम न नहीं हो अर्थात् सब में मैं ही हूं निज स्वरूप ही जिन स्वरूप है । अभेदात्मक संसार का प्रतीक है वर्ण । यही अक्षर है अर्थात् जिसका क्षरण - नाश नहीं हो यानि यह अमृतरूप है ।
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तुलसी प्रशा
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