SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्याकरण में सिद्ध: वर्ण: कहकर वर्ण का सिद्ध स्वरूप बताया गया है क्योंकि इन्हीं सिद्ध वर्णों में समग्र ब्रह्ममय संसार व्याप्त है या सा तु मातृका लोके पर तेजः समन्विता । तया व्याप्तमिदं सर्वं मा ब्रह्म भुवनान्तरम् ॥ ब्रह्म के दो रूप हैं एक शब्द ब्रह्म एवं दूसरा अर्थ ब्रह्म । सृष्टि भी दो प्रकार की है शब्दमयी एवं अर्थमयी । इस प्रकार सिद्ध वर्ण के दो रूप हुए पदमय एवं पदार्थमय । पतंजलि ने अपने महाभाष्य में लिखा है- -"अर्थवन्तो वर्णाः" अर्थात् प्रत्येक वर्ण अर्थवान् होता है । इसी अर्थ में समग्र संसार का ज्ञान विज्ञान निहित रहता है । वर्ण मातृका को लिपिमयी देवी भी कहते हैं । यह वर्ण मातृका मातृका का लौकिक रूप है । सूत संहिता के टीकाकार माधवाचार्य ने 'तात्पर्य दीपिका का पररूप परा और पश्यन्ती से परे बिन्दु नादात्मक है । लौकिक रूप है और इसमें अकार से हकार तक समस्त वर्णों का पाठ हो जाता है में लिखा है कि मातृका वर्ण मातृका सृष्टि का और यही अर्हं सूक्ष्म से लेकर स्थूल पर्यन्त अखिल सृष्टि का वाच्य है । पररूप अहं है जो इसमें अग्नि बीज सभी सांसारिक जला देता है अहं सांसारिक संसार से मुक्ति रूप रेफ का वासनाओं एवं तब वह अहं बन अग्नि के रूप रूप में केवल व्यष्टि में के मध्य ऊर्ध्वगतिमय बन्धन, ममता एवं आवर्त का रूप है। मातृका का वीतरागता एवं माध्यस्थता का प्रतीक है, क्योंकि सन्निवेश है । जब व्यक्ति ( अह ) असे ह पर्यन्त इच्छाओं को अग्नि बीज स्वरूप उर्ध्व गत्यात्मक र से जाता है । र अन्तस्थ है अर्थात् संसार नाश की भावना सुप्त रिक आत्माओं में विद्यमान रहती है तब तक व्यक्ति अहं के ही आविष्ट रहता है । जब अकारादि हकारान्त कामनाओं फात्मक अग्नि बीज का वपन करते हैं तो अहं होते हैं । यही अहं पररूप मातृका का सार है । ॐ नमः सिद्धम् में पररूप मातृका के सार भूत इसी अहं की उपासना है । श्री सिद्ध मन्त्रोद्धार पूजन विधि की प्रथम चौबीसी में इसी भाव की पुष्टि की गई है - में सांसा अर्हमात्मानम अग्नि शुद्धं गाया मृतप्लुतं । सुधा कुम्भस्थ माकण्ठं, ध्यायेच्छान्तिक कर्मणि ॥ २० ॥ ऋषिमंडल स्तोत्र में भी कहा गया है Jain Education International आद्यन्ताक्षर संलक्ष्य मक्षरं व्याप्य यत् स्थितं । अग्नि ज्वाला समं नाद, बिन्दुरेखा समन्वितम् ॥ १ ॥ - ऋषि मंडल स्तोत्र अहं मनोमल का प्रतीक है और अहं मनोमल का विशोधक है । अहं का अर्थ है शरीर संज्ञानी तो अहं का अर्थ है आत्म संज्ञानी । अहं यदि व्यष्टि है तो अहं शिव । अहं हं का प्रतिपक्षी है । यही अहं ब्रह्म है । पंच परमेष्ठियों का वाचक है । वर्णं मातृका रूप सिद्ध चक्र का सद्बीज है । कहा गया है— २४० For Private & Personal Use Only तुलसी प्रज्ञ www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy