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________________ बाहर आता है । प्राणायाम में नाभि नीचे का अंग एवं वायु उध्वं अंग माना जाता है । इस प्रकार नमः में नासिका से नाभि पर्यन्त प्राण वायु के संचार का पूरक योग है और यदि न को नासिकादि उर्ध्व अंगों का प्रतीक माना जाए एवं म को नाभि आदि अध अगों का प्रतीक माना जाये तो इसे यों भी कहा जा सकता है कि नमः में शरीर के समस्त अंगों का सकोच है । नमः का विलोम मन है जो संसार का प्रतीक है । कहा गया है मनः एव मनुष्याणां कारणं मोक्ष बन्धयोः । जब मन को संसार पर से हटा लिया जाता है तब व्यक्ति नम विनयशील बनता है एवं मोक्ष प्राप्त होता है । नमः नम् धातु से बना है जिसका अर्थ है झुकना । झुकना विनय, सहिष्णुता एवं सरलता का प्रतीक है। पाणिनीय व्याकरण के अनुसार नमः योगे चतुर्थी की दार्शनिक व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है । नमस्कार करने से चतुर्थी अवस्था अर्थात् मोक्षावस्था मिलती है । मोक्ष का अर्थ है सांसारिक एवं आध्यात्मिक कष्टों का सदा के लिए नाश । नमः का अर्थ है नमस्कार एवं नमस्कार से वाणी की कठोरता, मन की कृपणता एवं बुद्धि की कृतघ्नता नष्ट होती है । नमस्कार दूसरों के गुण ग्रहण एवं स्वयं के दोषों को दूर करने की क्रिया है । नमः पद पूजा के अर्थ में है जिसका अर्थ है द्रव्य भाव संकोच । द्रव्य संकोच में हाथ, सिर, पांव आदि आठों ही अंगों को नमः में अष्टांग योग जिनका न्यास सिद्ध व्यापार । अतः इस प्रतीक हैं का नियमन एवं भाव संकोच का अर्थ है मन का शुद्ध जब वशवर्ती करते हैं तभी किसी को नमस्कार होता है है । ये आठों अंग अवर्गादि शवर्ग पर्यन्त आठों वर्गों के चक्र आदि में किया जाता है । नमः पद सर्वोत्कृष्ट शरणागति का सूचक है क्योंकि जिसे नमस्कार किया जाता है उसकी शरण स्वीकार की जाती है । उसमें एक तरफ हाथ, सिर आदि सर्वांग का समर्पण है एवं दूसरी तरफ उसके द्वारा आत्मा के सर्व प्रदेशों का समर्पण है । इस प्रकार 'ॐ नमः सिद्धं" का अर्थ हुआ मैं व्यंजनात्मक संसार से अव्यक्त में उर्ध्वगमन करने के लिए समर्पण पूर्वक सिद्ध पद वाच्य अहं की शरण स्वीकार करता हूं । अब रही सिद्धम् की बात | अ से क्ष पर्यन्त पचास वर्ण सिद्ध रूप में प्रसिद्ध हैं । उनका ही चक्र (समुदाय) सिद्ध चक्र कहा जाता है । अकारादि क्षकारान्तानां पञ्चाशत सिद्धत्वेन । प्रसिद्धानां यच्चक्रं समुदाय स्तत्सिद्ध चक्रम् ॥ न. स्वा. सं. वि. पृ. ३० सिद्धहेमशब्दानुशासन वृ. वृ. ये वर्ण ही मातृका हैं एवं इनके पठन-पाठन, स्मरण एवं विचिन्तन का फल योगशास्त्र में इस प्रकार बताया गया है ध्यायतोऽनादिसंसिद्धान् वर्णानेतान्यथाविधि । नष्टादि विषयं ज्ञानं ध्यातुरुत्पद्यते क्षणात् ॥५॥ अर्थात् अनादिकाल से भली प्रकार से सिद्ध वर्णों का विधि प्रमाण से ध्यान करते हुए ध्याता को नष्टादि विषयक ज्ञान अल्प समय में उत्पन्न होता है । सारस्व खण्ड २१, अंक ३ २३९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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