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________________ श्रीमद्भागवदनुस्यूत भक्ति में भारतीय दर्शनों का समन्वय Dकुमारी विनीता पाठक श्रीमद्भागवत महापराण वैष्णव धर्म एवं दर्शन का अतीव प्रमाणिक ग्रन्थ है। इस महापुराण के प्रतिपाद्य परमतत्त्व श्रीकृष्ण हैं। भक्ति मार्ग के अवलम्बन से परमतत्त्व का प्रापक यह पुराण है। समस्त कलाओं के स्रोत स्वरूप श्रीकृष्ण के पावन चरित के अवलम्बन से ही वैष्णवों की सर्वस्वभूता भक्ति का विवेचन सम्भव था। विष्णु के समस्त अवतारों में पूर्णावतार का श्रेय श्रीकृष्ण को ही है। इनके जीवन में जिस माधुर्य भाव की प्रवणता है, वह भारतीय संस्कृति के अन्य किसी भी विग्रह में नहीं है। _वैष्णव दर्शन के सर्वस्वभूत इस महापुराण में जिस धर्म तत्त्व की स्थापना की गई है, वह संकीर्णताओं से रहित है। साम्प्रदायिक एवं जातीय विद्वेषों से उत्पन्न धार्मिक भेदभाव का इसमें स्थान नहीं है। ग्रन्थकार का यह डिण्डिम घोष है कि - धर्म: प्रोझितकेतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां । वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवा तापत्रयोन्मूलनम् ॥ आशय यह है कि इसमें लोकोत्तर मानवीय धर्म को प्रश्रय प्रदान किया गया है । श्रीमद्भागवत भक्ति का अगाध समुद्र है। परमेश्वर के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध का अभिलाषक भक्त भगवान के अतिरिक्त किसी अन्य तत्त्व की प्राप्ति को अपना लक्ष्य नहीं निर्धारित करता। यहां तक कि परम पुरुषार्थभूत मोक्ष भी भक्त को अपनी ओर आकृष्ट करने में सक्षम नहीं होता। यही कारण है कि श्रीमद्भागवत में प्रतिपादित द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत -सभी सम्प्रदाय अपनी व्याख्या में भक्ति के इस उत्कृष्ट स्वरूप को मनागपि तिरोहित करने में सक्षम नहीं हो पाते । इस महनीय ग्रन्थ में धर्म एवं दर्शन का मंजुल समन्वय स्थापित किया गया है। . ईश्वर सम्पूर्ण गुणों से युक्त होता हुआ भी निर्गुण एवं निराकार है। इसी प्रकार विशिष्ट गुणों से युक्त होता हुआ भी वह निविशेष है। इसके अनुसार सम्पूर्ण प्राणियों के आश्रयभूत एवं सर्वान्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ही परमात्मा हैं। ये ही भक्तों के वश होकर विश्व मंगल की कामना से माया का आश्रय लेकर मानव रूप में अवतरित होते हैं । इन्हीं को ईश्वर, परमात्मा एवं ब्रह्म के पदों से व्यपदिष्ट किया जाता है । श्रीमद्भागवत का दर्शन मात्र बुद्धि का विकास ही नहीं है, अपितु इसमें सहृदय पाठक का हृदय भी स्पन्दित होता है। इसमें अवान्तर विषयों के समावेश के साथ ही मुख्य प्रतिपाद्य भक्ति की चर्चा आदि, मध्य एवं अन्त में अतीव तत्परता के साथ खंड २१, अंक ३ ३२३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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