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विवेचित की गई है । समस्त प्राणियों एवं देवताओं के आराध्य भगवान को अनेकशः स्मरण करते हुए उनसे एकमात्र भक्ति की कामना की गई है।
हिन्दू धर्म का प्राण भक्ति है। ध्रुव एवं प्रह्लाद जैसे भक्तों की स्थितियों में भक्तियोग का ही वर्णन उपलब्ध हो सकता है। यहां तक कि परम ज्ञानी उद्धव भी रससिक्त होकर ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की श्रेष्ठता स्वीकार करते हैं। इस तथ्य को भगवान के मुखारविन्द से भी निसृत कराया गया है। वे अपने भक्तों को इस तथ्य का उद्घाटन करते हुए यह स्पष्ट करते हैं कि मेरी प्राप्ति के लिए योग दर्शन आदि सभी उपाय गौण हैं । अनन्य भक्ति से ही मेरी प्राप्ति सुगम है। भागवतकार की यह अवधारणा गीता में भी सुस्पष्ट रूप से ही उपलब्ध होती है। उन्होंने स्वयं कहा है कि मैं , ही सांसारिक भोग विलासों में लीन मानवों को सभी पापों से मुक्ति दिलाने वाला हूं।' इतना ही नहीं अनन्य भाव से भगवान चिन्तन में लीन हुए का ही हृदय पवित्र मान लिया जाता है । इसका अभिप्राय यह है कि मोक्ष के लिए जिस ज्ञान की अपेक्षा है, उसका उदय शुद्ध अन्तःकरण में ही सम्भव है। ज्ञान का सात्विक रूप ही भक्ति है । और पराभक्ति ही ज्ञान पद से व्यपदिष्ट की जाती है। इसका आशय यह है कि पराभक्ति और ज्ञान दोनों एक ही हैं । भक्ति के द्वारा भक्त की सांसारिक समस्त आसक्तियों के विनष्ट हो जाने पर उसमें सत्त्वगुण का संचार होता है। और उसे सहज ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है । यह निर्विवाद सिद्ध है कि ईश्वर की कृपा का भाजन भक्त ही हो सकता है । शुद्ध भक्त श्रीकृष्ण के अभिराम स्मरण ध्यान में अविराम तन्मय लगा रहता है। महात्माजन भागवत्प्राप्त भक्तों के मुखारविन्दों से निस्पन्दित भगवत कथामृत को कर्णपुटों से पीकर क्रमश: कृष्णभावनाभावित भक्तियोग का विकास करते हैं।
___ श्रीमद्भगवदगीता में ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की उत्कृष्टता का वर्णन स्थानस्थान पर उपलब्ध होता है। वेदाध्ययन, ज्ञान और कर्म ये तीनों ईश्वर की प्राप्ति में उतने समर्थ नहीं हैं, जितना कि सामर्थ्य भक्ति का है। इसीलिए भागवतकार ने इस प्रसंग को अतीव सुस्पष्ट एवं हृदयंगम बनाने के लिए गोपियों के चरित की अवतारणा की है । श्रीमद्भागवत में ज्ञान एवं वैराग्य की चर्चा की गई है। क्योंकि इसके कथानक का प्रारम्भ ही वैराग्योदय से हुआ है। मुमुक्षु परीक्षित अल्प समय में वैराग्य संवलित होकर परमज्ञानी शुकदेव से मोक्षोपरिक श्रीमद्भागवती कथा के रसास्वादन में संलग्न होते हैं । श्रीमद्भागवत में वणित ज्ञान एवं वैराग्य भक्ति के पूरक हैं। भक्ति विहीन ज्ञान एवं वैराग्य निष्प्राण हैं । इनके संवर्धन के लिए भक्ति को ही उत्कृष्ट स्थान प्रदान किया गया है । भक्तों में भी कतिपय ऐसे भक्त दृष्टिगोचर होते हैं, जो भगवत चरित के श्रवण और मनन के अनन्तर रुद्र कण्ठ होकर अविरल अश्रु प्रवाह का मोचन करते रहते हैं। दूसरे प्रकार के भक्त वे हैं जो शास्त्रानुकूल निष्काम कर्मों का अनुष्ठान करते रहते हैं। .
श्रीमद्भागवत में भक्ति का सर्वश्रेष्ठ स्थान निर्धारित किया गया है। भगवद्भक्ति भी सहज नहीं है । अनेक जन्मों में उपाजित सुकृत पुण्यों के प्रभाव एवं परमेश्वर के अनुग्रह से ही व्यक्ति के मानस में रागात्मिका भक्ति का आविर्भाव होता है। महा
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तुलसी प्रज्ञा
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