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बतलाना सत्य है । पतंजलि ने योगी को सदैव सत्य बोलने के लिए कहा । जैन दर्शन में सत्य को महान् तप माना है इसलिए इसे महाव्रत की कोटि में गिना है। आचारांग में कहा है-सत्य बोलने वाला मेधावी मुनि इस संसार-समुद्र से तिर जाता है।
सच्चस्स आणाए उवट्ठिए से मेहावी मारं तरति ।" __ सत्य लोक में सारभूत है इसलिए उसका अनुशीलन कर आत्म तत्व का साक्षात्कार करना चाहिए । बुद्ध ने भी सुत्तपिटक में कहा है-वे मनुष्य धन्य हैं, जो सत्य में रत रहते हैं। ३. अस्तेय महाव्रत-- ___ अस्तेय का मतलब है--किसी दूसरे की वस्तु का अपहरण न करना। पर वस्तु के अपहरण का निषेध किसी न किसी रूप में सभी परम्पराओं में मिलता है। वैदिक परम्परा में चोरी करने का निषेध किया है । मनु ने स्तेय शब्द का उल्लेख किया है और उसका लक्षण बताते हुए कहा है--
'निरन्वयं भवेत्स्तेयं हृत्वाऽपव्ययते च यत् ॥१ अर्थात् वस्तु स्वामी के परोक्ष में किसी वस्तु का अपहरण कर भाग जाना 'स्तेय' कहलाता है । अस्तेय में 'अ' निषेध वाचक है इसलिए अस्तेय का अर्थ हुआ पर वस्तु का अपहरण नहीं करना।
कहीं-कहीं 'अस्तेय' के स्थान पर 'अदत्तादान' शब्द का प्रयोग हुआ है । अगस्त्य सिंह ने अदत्तादान की परिभाषा करते हुए कहा है ----
'परेहिं परिग्गहितस्स वा अपरिग्गहितस्स वा, अणणुण्णातस्स गहणमदिण्णादाणं ।"
__ अर्थात् बिना दिया हुआ लेने की बुद्धि से दूसरे के द्वारा परिगृहीत अथवा अपरिगृहीत तृण, काष्ठ आदि द्रव्य-मात्र का ग्रहण करना अदत्तादान है।
साधक के लिए अदत्त वस्तु ग्रहण करने का निषेध है। स्मृतिकार मनु ने यहां तक कहा है कि साधक को चोर के हाथ से वस्तु भी नहीं लेनी चाहिए यदि वह लेता है तो वह भी उसके दण्ड का भागी बनता है इसलिए व्रतधारी, संन्यासी को वस्तु आज्ञा लेकर ग्रहण करनी चाहिए। नहीं तो उसकी संसार में अकीर्ति होती है, पाप कर्मों का बंध होता है । पतंजलि ने लिखा है --'अस्तेय प्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्' -चोरी नहीं करने वाला सर्व रत्नों को प्राप्त करता है अर्थात् आत्मा में प्रतिष्ठित होता है । दशवकालिक में पंच महाव्रतों का उल्लेख है वहां अद्तादान" को तीसरे महाव्रत की कोटि में गिना है। ४. ब्रह्मचर्य महावत:
ब्रह्मचर्य शब्द दो शब्दों से निष्पन्न हुआ है। ब्रह्म और चर्य । ब्रह्म शब्द के तीन अर्थ हैं-वीर्य, आत्मा, विद्या और चर्य शब्द के भी तीन अर्थ हैं---रक्षण. रमण, अध्ययन । इस तरह ब्रह्मचर्य के भी तीन अर्थ हुए हैं-वीर्य-रक्षण, आत्म-रमण और विद्याध्ययन।
ब्रह्मचर्य शब्द अति प्राचीन है। वैदिक ग्रन्थों में इसका सर्वप्रथम प्रयोग ऋग्वेद
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तुलसी प्रज्ञा
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