________________
न तेन आरियो होति येन पाणानि हिंसति ।
अहिंसा सव्वपाणानं आरियोति पवुच्चति ॥" जैन दर्शन का मूलाधार अहिंसा है । वहां अहिंसा को सर्वोत्कृष्ट माना है और धर्म का वास्तविक स्वरूप कहा है ।
'धम्मो मंगल मुक्किठें, अहिंसा सजमो तवो ।.... १३ सव्वे पाणा सव्वेभूता सव्वेजीवा सम्वे सत्ता ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परि- . घेतव्वा, ण उद्दवेयव्वा । एस धम्मे सुट्टे णिइए सासए समिच्च खेयण्णेहिं पवेइए।
प्रश्न व्याकरण में अहिंसा के ६० नाम निषेधात्मक और विधेयात्मक दोनों रूप में मिलते हैं । निषेधात्मक दृष्टि से प्राणियों का घात न करना अहिंसा है। विधेयात्मक दृष्टि से जीव रक्षा, दया, करुणा, सेवा आदि भाव अहिंसा है।
इस प्रकार अहिंसा अध्यात्म जगत् का मूलभूत आधार है। जिसमें प्रवेश करके ही साधक आत्म प्रतिष्ठित होता है। २. सत्य महावत:
महावतों में दूसरा स्थान सत्य का है। सत्य शब्द की व्युत्पति सत् धातु में अत प्रत्यय करने पर होती है । जिसका अर्थ होता है - वास्तविक, यथार्थ इत्यादि। सत्य शब्द का विवेचन वेदों से लेकर आज तक के ग्रन्थों में उपलब्ध है। सर्वत्र सत्य की महिमा के गीत गाये गये हैं। संत्य आत्म-साक्षात्कार का परम साधन है इसलिए ही इसे व्रत की कोटि में गिना गया है। ऋग्वेद में कहा है-सुगा ऋतस्य पन्थाः-सत्य का मार्ग सुगम है ।१४ 'सत्यमेव ब्रह्म --सत्य ही ब्रह्म है-ऐसा ब्राह्मण ग्रन्थों में उल्लेख है।" तैतिरीयोपनिषद में ब्रह्म का स्वरूप सत्य के रूप में बतलाया गया है ।" रामायण के अयोध्या काण्ड में सत्य में धर्म को आश्रित माना है, जो सत्य बोलता है वहीं आत्मस्थ होता है, वही परम लोक को प्राप्त करता है
सत्यमेवेश्वरो लोके, सत्ये धर्मः सदाश्रितः ।
सत्यमूलानि सर्वाणि, सत्यान्नास्ति परं पदम् ॥७ महाभारत के उद्योग पर्व में भी यही लिखा है । स्मृतिकार मनु ने कहा
सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम् ।
प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः ॥१८ पुराणों में भी सत्य की महिमा का उल्लेख है
अश्वमेघसहस्रं च सत्यं च तुलयाधृतम् ।
अश्वमेघसहस्राद्धि, सत्यमेकं विशिष्यते ॥१९ इस श्लोक से यह प्रतिपादित होता है कि हजारों अश्वमेघ यज्ञ के पुण्य की अपेक्षा सत्य का पुण्य अधिक है।
अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में भी सत्य को स्वर्ग का सोपान बतलाया है। बैशेषिक दर्शन में कहा है
सत्यं यथार्थ वांगमनसे यथादृष्टं यथानुमिति यथाश्रुत तथा वांगमनश्चेति ।" अर्थात् वाणी और मन का यथार्थ होना, जैसा देखा, सुना, अनुभव किया वैसा ही
बंर २१, बंक ३
२८७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org