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________________ के अन्तिम मण्डल में मिलता है। उस समय आश्रम व्यवस्था थी। आश्रम व्यवस्था का पहला विभाग है-ब्रह्मचर्य आश्रम । ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्यार्थी का जीवन होता था। विद्यार्थी गुरुकुल में निवास कर अध्ययन करते थे। गुरु के पास रहते । गुरु की सेवा करते । उनके परिवार के साथ आत्मीय संबंध रखते और विनम्रता के साथ गुरु से शिक्षा प्राप्त करते । ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश करने के लिए उन्हें कई विधि-विधानों से गुजरना पड़ता । और अनेक प्रकार के व्रत, नियम, उपनियमों का पालन करना पड़ता । अथर्ववेद में कहा है ब्रह्मचारी राजा ही राष्ट्र की रक्षा कर सकता है और ब्रह्मचारी आचार्य ही शिष्य को अध्यापन करा सकता है। __ बाद के साहित्य उपनिषद्, ब्राह्मण, पुराणादि में भी ब्रह्मचर्य का उल्लेख है । प्रश्नोपनिषद में कहा है-- ब्रह्मलोक उसी को प्राप्त होता है जो तप, ब्रह्मचर्य, सत्यादि व्रत में निष्ठा रखता है। छान्दोग्योपनिषद में भी ब्रह्मचर्य शब्द मिलता है। गोपथ ब्राह्मण में ब्रह्मचर्य को पवित्र माना है। उससे पुण्य का संग्रह होता है। वैदिक साहित्य में ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए शृंखलाबद्ध नियमों का उल्लेख नहीं मिलता । स्मृतिकार मनु ने लिखा है --ब्रह्मचारी गुरु के समीप रहकर इन्द्रिय को वश में करता हुआ तपस्यादि में तल्लीन रहे ।२६ इसके अतिरिक्त अनेक नियमउपनियमो का उल्लेख है कि ब्रह्मचर्य व्रत महान तप है। व्यक्ति अपने वीर्य का सदुपयोग आत्म-रमण में करे न कि भौतिक क्रीड़ाओं में । बौद्ध साहित्य में भी व्यवस्थित क्रम नहीं मिलता। जैनों ने ब्रह्मचर्य को उत्तम तप माना है। इस व्रत का पालन कर व्यक्ति ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि करता है ।“ आचारांग का अपर नाम 'ब्रह्मचर्य' है। क्योंकि ब्रह्मचर्य का एक अर्थ हैसर्वेन्द्रिय संयम । संयम के बिना साधक लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता । साधक किस प्रकार सर्वेन्द्रिय संयम करे ? और किस प्रकार आत्म-तत्व का साक्षात्कार करे यह सब यहां विवेचित है। इसलिए इसका अपर नाम ब्रह्मचर्य रखा गया। इसीलिये यह परम्परा रही कि प्रारम्भ में साधक अर्थात् शैक्ष मुनि आचारांग का अध्ययन करे । आजकल प्रारम्भ में दसवैकालिक का पाठ कराया जाता है। दशवकालिक के चतुर्थ अध्याय में ब्रह्मचर्य का महाव्रत के रूप में वर्णन किया है।" इस प्रकार ब्रह्मचर्य आत्मा में रमण करने का साधन है। ५. अपरिग्रह महावत : पंच महाव्रतों में अन्तिम महावत है-अपरिग्रह । अपरिग्रह से तात्पर्य है --वस्तुओं का संग्रह नहीं करना और अनासक्त भाव धारण करना । अपरिग्रह परिग्रह का निषेधात्मक रूप है । मुच्छा परिग्गहो वुत्तो-मूर्छा भाव परिग्रह है।" साधक को वस्तु के प्रति मूर्छा नहीं रखनी चाहिए। क्योंकि ममत्व संसार भ्रमण का हेतु है। इसलिए ही साधक को अहिंसावादी की तरह अपरिग्रही होना चाहिए। अपरिग्रह महावत के बीज वैदिक और श्रमण-दोनों परम्पराओं में प्रस्फुटित हैं । महाभारत में कहा है-व्यक्ति को उतना ही संग्रह करना चाहिए जितना पेट के बड २१, ३ २८९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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