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के लिए आवश्यक है । क्योंकि अपरिग्रह से मन की चपलता दूर होती है, भावनाओं का शोधन होता है जिससे सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। स्मृतिकार मनु ने भी संग्रह करने का निषेध किया है
एक कालं चरेद् भैक्षं च प्रसज्जेत विस्तरे''।” भगवद् गीता में भी यह उल्लेख मिलता है
निराशीर्यतचित्तात्मा त्यक्तसर्वपरिग्रहः । शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् गीताकार ने एक अन्य स्थान पर लिखा हैत्यक्त्वा कर्मफला सङ्ग'
|"
शब्द
पतंजलि ने भी अपरिग्रह को यम माना है । बुद्ध ने अकिंचनं अनादानं का उल्लेख किया है जो अपरिग्रह का सूचक है ।" जैन दर्शन में भिक्षु वही है, जो अपरिग्रही है । इसलिए वहां भिक्षु को परिग्रह से दूर रहने के लिए कहा हैपरिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केज्जा । ५
दसर्वकालिक में पांचवा महाव्रत - परिग्रह विरति के रूप में है । चेतन-अचेतन सभी पदार्थों के प्रति ममत्व भाव दूर होना ही अपरिग्रह है ।
जैन परम्परा में परिग्रह चार प्रकार से सीमित है । अर्थात् भूख मिटाने को आहार लेना, संकट आने पर सुरक्षा, रोग होने पर औषध और अध्यापक से ज्ञान लेने तक परिग्रह की सीमा है ।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट लक्षित होता है कि महाव्रतों का उल्लेख वैदिक और श्रमण दोनों परम्पराओं में है । वैदिक परंपरा में 'व्रत' शब्द है । व्रत और महाव्रत
. दोनों के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं प्रतीत होता । इसलिए पंच महाव्रत श्रमणपरम्परा का प्राण तत्व है और वैदिक परम्परा में भी जीवन के महान् आदर्शों के रूप में प्रतिष्ठित है ।
सन्दर्भ :
१. उत्तरज्भयणाणि चूर्णि पृ० १३८
२. तत्त्वार्थ सूत्र ७।१
३. एभ्यो हिंसादिभ्य एकदेशविरतिरणुव्रतं, सर्वतोविरतिर्महाव्रतमिति ।
४. जाति- देश - काल - समयाऽनवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् - पा० योगदर्शन
२।३१
२९०
५. मत्स्यपुराण अ० ६,१५
६. ऋग्वेद १०, १२, १३
७. तत्राहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्य दयार्जवक्षमाधृतिमिताहारशौचानि चेति यमा दश
शाण्डिल्योपनिषद १
८. महाभारत, आदि पर्व
९. मनुस्मृति ६।६०
१०. वही ६।७५
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तुलसी शशा
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