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प्रस्थान करता है । अन्ततः समस्त विषय भोगों से चित्त को मुक्त कर, सन्यासी हो जाता है ।
गृहस्थी के कर्त्तव्य
गृहस्थी पुरुष हेतु क्या आवश्यक है, क्या नहीं ? इस सबका वर्णन मदालसा द्वारा किया गया है। गृहस्थी के प्रमुख तीन कर्त्तव्य बताये हैं (१) नित्य, (२) नैमितिक, (३) नित्यनैमित्तिक ।
पञ्चयज्ञाश्रित कर्म ही नित्य कर्म है । पुत्र जन्म क्रिया नैमित्तिक तथा पर्वश्राद्धादि नित्यनैमित्तिक कर्म कहे गये हैं" । श्राद्धादि का ज्ञान भी मदालसा द्वारा पुत्र को कराया गया है । सपिण्डीकरण क्या है, इसके अभाव में क्या विधान करना चाहिए, इन सभी का मदालसा को पूर्ण ज्ञान है, यजमान किस प्रकार से पितरों का श्राद्ध कर, उनकी तृप्ति का साधन करते हैं, सभी का वर्णन मदालसा द्वारा किया गया है" ।
इस प्रकार मदालसा के चरित्र से स्पष्ट हो जाता है कि - तत्कालीन समाज स्त्रियों का ज्ञान-गरिमा से मण्डित होता था । मार्कण्डेयपुराण में मदालसा के असीम ज्ञान का विस्तार से वर्णन किया गया है । इसका पवित्र चरित्र इस बात को पुष्ट करता है- -- माता की पवित्र गोद में ही बालक के समस्त संस्कारों के बीज वपित हो जाते हैं, उसका परवर्ती जीवन इन्हीं संस्कारों से समन्वित होकर समाज एवं राष्ट्र की अभ्युन्नति के मार्ग को प्रशस्त करने में सक्षम हो पाता है। माता के सान्निध्य में बालक जिन संस्कारों को अर्जित करता है, उनकी छाप अमिट है ।
संदर्भ :
१. विश्वावसुरिति ख्यातो दिवि गंधर्वराट्प्रभो ।
तस्येयमात्मजा सुभूर्नाग्नाख्याता मदालसा ।। (मार्कण्डेयपुराण १९१२ - २९ )
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२. मार्कण्डेय पुराण १९ । ३०-३१
मार्कण्डेय पुराण २०१६-४७
३. ४. मार्कण्डेय पुराण २२।१-४३ ५. मार्कण्डेय पुराण २३।१२-१४ ६. मार्कण्डेय पुराण २३।१५-१८
७. मार्कण्डेय पुराण २३ । २५
८. तर्थव सो पि तन्वग्या बालत्वादेव बोधितः ।
क्रियाश्चकार निष्कामा न किंचित्पलकारणम् ।। (मा. पु. २३/२७ )
९. य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ।। (श्री मद्भगवद्गीता २१९ ) १०. मार्कण्डेय पुराण २३।३८-४३
११. पुत्र वर्द्धस्व भर्तुर्मनो नंदय कमाभिः ।
ऐहिकामुष्मिक फलं तत्सम्यक्परिपालय ।
मित्राणामुपकाराय दुव्ह दां नाशनाय च ।। (मा. पु. २३।५५ )
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तुलसी प्रज्ञा
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