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आत्मा दोषरहित है, फिर वह किस प्रकार शत्रु का मर्दन कर सकती है। अतः लोकाचार के कारण ही अर्थहीन नाम की कल्पना की जाती है । पुत्र अलर्क को ज्ञान
पति के द्वारा कुपित होने पर मदालसा पुत्र अलर्क को प्रवृत्ति मार्ग का ज्ञान प्रदान करती है। मदालसा कहती है मित्रों के उपकार हेतु और शत्रुओं के विनाश हेतु कर्मानुष्ठान में प्रवृत्त होओ"।
मदालसा कहती है-तुम पृथ्वी का पालन कर, समस्त लोकों को आनन्दित करो। परस्त्रीगमन से चित्त हटाकर ब्राह्मणों व बन्धुवर्ग की सेवा करो। परनिन्दा का परित्याग कर यश के निमित्त कार्य सम्पादित करो। तुम बाल्यावस्था में मित्र वर्ग का, कौमार्य अवस्था में माता-पिता की आज्ञा का, यौवनावस्था में पत्नी का तथा वृद्धावस्था में वनवास ग्रहण कर प्रीति प्राप्त करो। राजधर्म की शिक्षा
पुनः पुत्र अलर्क को प्रवृत्ति की ओर अग्रसर करती हुई मां मदालसा अलर्क को राजशासन की समस्त विद्या प्रदान करती है। राजशासन के योग्य जो सभी गुण एक राजा के लिए अपेक्षित है, उन सबका ज्ञान ब्रह्मवादिनी मदालसा को प्राप्त है। किस प्रकार राजशासन की उन्नति सम्भव है, किन-किन तत्त्वों से राजा को सर्वदा दूर रहना चाहिए, तथा राजा की कूटनीति क्या होना चाहिए, सभी का ज्ञान विदुषी मदालसा को है । इस ज्ञान का प्रसार वह पुत्र अलर्क के माध्यम से करती है। .
जो राजा सम्यक् प्रकार से प्रजा का पालन कर, चारों वर्णों की रक्षा में सदैव तत्पर रहता है, वह इन्द्रत्व को प्राप्त करता है। वर्णाश्रम की शिक्षा
पुत्र के आग्रह करने पर पुनः मदालसा अपने असिक्त ज्ञान का प्रसार करते हुए कहती है-विशुद्ध भाव से याजन, अध्यापन और पवित्र भाव से प्रतिग्रह ये तीन ब्राह्मण जाति के जीविकार्य व्यवसाय है। दान, अध्ययन और यज्ञ ये तीन क्षत्रिय धर्म कहे गये हैं, क्षत्रियों की जीविका का माध्यम शस्त्र चलाना व पृथ्वी की रक्षा करना बताया गया । दान, अध्ययन और यज्ञ वैश्य के तीन धर्म गिनाये गये है। पशुपालन, कृषि एवं वाणिज्य उनकी जीविका के साधन कहे गये। तीनों वर्गों की सेवा का कार्य शूद्र वर्ग के लिए अपेक्षित किया गया। आश्रम धर्म
आश्रम धर्म का वर्णन भी मदालसा द्वारा किया गया है। जब तक द्विजातिगण का उपनयन संस्कार नहीं होता, तभी तक वह अपनी इच्छानुसार आलाप-आहारादि कर सकते हैं।
उपनयन के साथ ही ब्रह्मचर्य आश्रम आरम्भ हो जाता है। इसकी समाप्ति पर युवाकाल में मनुष्य गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है। इस आश्रम में गृहस्थी अपने सम्पूर्ण दायित्वों को पूर्ण कर पञ्चऋणों से उऋण होकर 'वानप्रस्थ आश्रम' की ओर
खण्ड २१, अंक
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