SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होकर, 'पर' हैं । इन पर मनुष्य जब तक विजय प्राप्त नहीं कर लेता वह 'समत्व' में स्थित नहीं हो सकता । यदि मनुष्य वास्तव में शान्ति चाहता है तो उसे सभी विषम और परभावी स्थितियों का दमन करना ही होगा । इसीलिए जैन दर्शन के अनुसार सामायिक का अभ्यास आवश्यक है । सामायिक समत्व योग है जो चित्तवृत्तियों को शांत करना, समभाव में स्थित होना, मध्यस्थ भावना का सेवन करना, समदृष्टि में वृद्धि करना और समत्व में रहकर समता - रस का आस्वादन करना सिखाता है । हमारा आज का जीवन जिसमें विषय भोगों पर अत्यधिक बल दिया जाता है, आत्मा को उन पदार्थों से जोड़ता है जो अनात्मन् या 'पर' हैं । व्यक्ति आज स्वयं को अपने आप में अवस्थित नहीं पाता, वह अन्यान्य विषयों से जुड़ जाता है । उसके लिए व्यक्ति की अपेक्षा वस्तुएं अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई हैं और यही अन्ततः उसके दुःख का मूल कारण है। जैन दर्शन इसीलिए इस बात पर बल देता है कि मनुष्य को वस्तुओं की बजाय स्वयं अपने से जुड़ना चाहिए। वह स्वयं ' अवस्तु' है, 'आत्मा' है । आत्मा से जुड़कर ही मनुष्य अपने 'स्व' में अवस्थित हो सकता है और तभी उसके लिए शान्ति संभव है, अन्यथा नहीं । मनुष्य जब तक समत्व भाव विकसित नहीं करेगा वह शान्ति और सुख प्राप्त नहीं कर सकता । जो प्राणी मात्र से समत्व अनुभव करता है तथा लाभ-अलाभ, दुःख-सुख, जीवन-मरण, निन्दा - प्रशंसा, मान-अपमान आदि द्वंद्वात्मक परिस्थितियों में समत्व अनुभव करता है, वही अपनी आत्मा में स्थित है । 'पर विषयों से व्यक्ति का ममत्व उसे अपनी आत्मा में अवस्थित नहीं होने देता । शास्त्र कहता है, इस संसार में मोह की संभावनाएं बार-बार प्रकट होती हैं" और मनुष्य अपने को रोक नहीं पाता । मंद बुद्धि मनुष्य मोह में अतिशय रूप से फंस जाते हैं । व्यक्ति जब तक सांसारिक विषयों के ममत्व पर विजय प्राप्त नहीं कर लेता, समत्वावस्था में नहीं आ सकता । अतः शान्ति के लिए, समत्व के लिए, सर्वप्रथम मनुष्य को अपने आपसे ही संघर्ष करना है । अपने ममत्व और अपने कषायों पर विजय प्राप्त करना है । १७ प्रकृति के साथ शान्ति प्रकृति की अवधारणा एक व्यापक अवधारणा है । इसमें न केवल प्राकृतिक नियम और वनस्पति जगत् निहित है, बल्कि पशु जगत् भी सम्मिलित है । आज मनुष्य वनस्पति जगत् को नाना प्रकार के साधनों द्वारा नष्ट करने और हानि पहुंचाने पर तुला हुआ है। महावीर के अनुसार, वनस्पति जगत् भी एक विकलांग व्यक्ति की तरह ही होता है । यह अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन है ।" वनस्पतियों को भी उसी तरह कष्टानुभूति होती है जिस प्रकार शस्त्रों से भेदनछेदने करने में मनुष्यों को दुःख होता है ।" वस्तुतः कई बातों में मनुष्य और प्रकृति विशेषकर वनस्पति जगत्, एक रूप है ।' जिस प्रकार मनुष्य जन्म लेता है, बढ़ता है, चैतन्ययुक्त है, छिन्न होने पर म्लान होता है, आहार ग्रहण करता है, अनित्य है, आशान्वित है तथा विकास और क्षय होने वाली विविधा अवस्थाओं को प्राप्त होता है, उसी तरह वनस्पति जगत् भी है ।" अतः मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह उन २५४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy