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संधारक शस्त्रों का निर्माण, जो वनस्पति जगत् को हानि पहुंचाते हैं, न तो आरंभ करे, न करावे और न ही इस संबंध में अनुमति किसी दूसरे को प्रदान करे ।" प्रकृति तभी चैन से रह सकती है।
__ मनुष्य और प्रकृति के बीच शांतिपूर्ण संबंधों के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि प्रकृति नियमानुसार कार्य करती रहे। प्रकृति के कार्यकलापों में अनावश्यक मानवी हस्तक्षेप प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ता है । आज अपने स्वार्थ और अहम्तुष्टि के लिए मनुष्य जिस तरह प्रकृति का शोषण कर रहा है, उससे प्रकृति का 'समत्व' पूरी तरह गड़बड़ा गया है । वनों की अन्धाधुन्ध कटाई से ऋतुओं के चक्र गड़बड़ा गए हैं । वीरान जगहों पर नाभकीय परीक्षणों से भले ही तुरन्त ऐसा प्रतीत न हो कि मनुष्य को कोई प्रत्यक्षतः दैहिक हानि नहीं हुई हैं, किन्तु ऐसे परीक्षण प्रकृति की सम्यक्-अवस्था को विचलित करते हैं। यह भी एक प्रकार से प्रकृति को हानि पहुंचाने के उपकरण ही हैं । मनुष्य और प्रकृति के बीच शान्ति बनाए रखने के लिए केवल यही आवश्यक नहीं है कि मनुष्य प्रकृति को प्रत्यक्षतः कोई हानि न पहुंचाए बल्कि उसे उन सब शस्त्रों/योजनाओं को भी समाप्त कर देना चाहिए जो प्रकृति के अहित में सहायक हो सकती हैं । जैन दर्शन प्रकृति को नुकसान पहुंचाने वाले संघारकों (शस्त्रों) के निर्माण करने की अनुमति नहीं देता । अहिंसा की दृष्टि से जिन व्यवसायों को जैन दर्शन में निषिद्ध माना गया है उनमें ऐसे शस्त्रों का उत्पादन भी सम्मिलित है जो कष्ट देने या हानि पहुंचाने के लिए बनाए जाते हैं ।२२ संघारक यंत्र के व्यापार के अतिरिक्त अंगार कर्म, वन कर्म, शकट कर्म, भाटक कर्म, स्फोटी कर्म, दंत वाणिज्य, लाक्षा वाणिज्य, रस वाणिज्य, विष वाणिज्य, केश वाणिज्य, निछांछन कर्म, दावाग्नि कर्म, सरोवर द्रह-तडाग शोषण तथा असतीजन पोषणता आदि व्यवसाय भी निपिद्ध बताए गए हैं क्योंकि ये सभी किसी न किसी प्रकार प्रकृति, पशुओं और स्वयं मनुष्य को हानि पहुंचाते हैं ।
अंगार-कर्म यदि जंगलों में आग लगाकर उन्हें साफ करता है तो वन-कर्म जंगल कटवाने की व्यवसाय है दावाग्नि दापन भी अग्नि कर्म ही है। जैन चिंतकों ने मानव परिवेश में वनों की महत्ता को बहुत पहले से ही समझ लिया था। वनों की कमी अन्ततः मानवी अस्तित्व तक के लिए खतरा बन सकती है, यह आज सुस्पष्ट है । प्रकृति की सुरक्षा के लिए वनों का संरक्षण आवश्यक है और इसमें मानव कल्याण है ।
__प्रकृति की सुरक्षा और शान्ति के लिए ही सरोवर-द्रह-तडाग शोषण भी निषिद्ध कर्म या व्यवसाय बताया गया है। आज हम पानी के संग्रह हेतु बड़े-बड़े बांध तो बना रहे हैं लेकिन हमारा ध्यान प्राकृतिक सर-सरोवर और झीलें इत्यादि के संरक्षण की ओर नहीं है । इससे परिवेश पर बड़ा दुष्प्रभाव पड़ा है। हमारी लापरवाही या कभी-कभी स्वार्थ-भावना, से प्राकृतिक तालाब और जलाशय सूखते जा रहे हैं और दूसरी ओर बड़े-बड़े बांध अन्य मानवी समस्याएं--- जैसे पुनर्वास और विस्थापन आदिको पैदा कर रहे हैं । इससे मनुष्य और प्रकृति दोनों अशांत है। इसी समस्या के पूर्वाभास से कदाचित् जैन दार्शनिकों ने सरोवर-द्रह-तड़ाग शोषण के व्यवसाय को खण्ड २१, अंक ३
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