SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुभव नहीं करता, उसका निर्वाण नहीं है और मोक्ष का उपाय नहीं है, ये छः मत मिथ्याज्ञान के स्थान हैं। (सन्मति तक ५४) प–पपा पोलीपाटेके मूल-पाप आवा नी पोल ते पच इंद्री ना आश्वदुवार ते संवर रुप कपाटे दृढ़करी राखीजे । पोल राखीस मा । जिम अठारे पाप स्थानक ना भाव प्रवेश करी सके नहीं ॥३६॥ हिंदी-पाप आने के द्वार पांच इंद्रियों के आश्रवद्वार हैं। संवर रूप किंवाड को दृढ़ता से बंद करना उसमें खाली स्थान मत रखना जिससे १८ पाप के विचार प्रवेश न कर सके। प्रतिपाद्य-पांच इंद्रिय आश्रव हैं(१) श्रोत्रेन्द्रिय प्रवृत्ति आश्रव (२) चक्षुरिन्द्रिय प्रवृत्ति आश्रव (३) घ्राणेन्द्रिय प्रवृत्ति आश्रव (४) रसनेन्द्रिय प्रवृत्ति आश्रव (५) स्पर्शनेन्द्रिय प्रवृत्ति आश्रव । पांच इन्द्रिय संवर हैं(१) श्रोत्रेन्द्रिय निग्रह संवर (२) चक्षुरिन्द्रिय निग्रह संवर (३) घ्राणेन्द्रिय निग्रह संवर (४) रसनेन्द्रिय निग्रह संवर (५) स्पर्शनेन्द्रिय निग्रह संवर। अठारहपाप-प्राणातिपातपाप, मृषावादपाप, अदत्तादानपाप, मैथुनपाप, परिग्रहपाप, क्रोधपाप, मानपाप, मायापाप, लोभपाप, रागपाप, द्वेषपाप, कलहपाप, अभ्याख्यानपाप, पैशुन्यपाप, पर-परिवादपाप, रतिअरतिपाप, मायामृषापाप, मिथ्यादर्शन शल्यपाप । फ-फफा फोगट फगडे जो मूल- फोगट फसीया असुध अवनीत अणाचारी ना संग करीस मा ॥३७॥ + हिंदी --- मुफ्तखोर, फसिया (शिथिलाचारी) अशुद्ध , अविनीत, अनाचारी की : संगति मत करना। प्रतिपाद्य सम्यक्त्व की सुरक्षा के लिए सत्संग का बहुत बड़ा महत्त्व है। इसलिए साधक को सावधान किया गया है कि ऐसे व्यक्ति का संग न किया जाए जो सम्यक्त्व में बाधक हो । ब- बबारी मांही चांदणो मूल-बोध बीज ना वधारो कर ने जिम बोध बीज वधतो जास्ये तिम तिम ड २१, अंक ३ ३.९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy