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________________ (६) मिथ्याश्रुत (१३) अंग प्रविष्टश्रुत (७) आदिश्रुत (१४) अनंग प्रविष्टश्रुत इन चौदह प्रकार के श्रुत ज्ञान का अध्ययन करना । ज-जजो जसलवाणियो मूल- अंतग तण सल छे । ते टालवा ना वीणज व्यापार करजे ॥२४॥ हिंदी- अन्तरंग तीन शल्य हैं । उनसे दूर रहने का प्रयत्न करना ॥ प्रतिपाद्य- शल्य तीन हैं(१) माया शल्य-माया करना। (२) निदान शल्य-भौतिक सुख-सुविधा के लिए संकल्प करना। (३) मिथ्यादर्शन शल्य-तत्त्व के प्रति विपरीत श्रद्धान करना । झ-झझा जारी सारिखो मूल-जारी सरीखो स्वभाव राखीजे । जीम ज्जारी नो मूंडो संकडो हुवे पेटे पोहली हुवे तिम पेट मोटो राखजे । कोइ ना मर्म दोष प्रकाशजे मा ॥२५॥ हिंदी-तू मारी के समान स्वभाव रखना। जिस प्रकार झारी का मुंह संकीर्ण होता है और पेट चौड़ा होता है, उसी प्रकार पेट विशाल रखना । किसी का मर्म दोष प्रकाशित मत करना। प्रतिपाद्य-सत्य महाव्रत के ५ अतिचार है(१) किसी पर झूठा आरोप लगाना । (२) रहस्य की बात प्रकट करना। (३) स्त्री पुरुष का मर्म प्रकाशित करना। (४) मृषा उपदेश देना। (५) झूठा लेख लिखना। आ-आजीयां खांडो चांवलो मूल-अर्द्ध चंद्रमा आकारे सिद्ध सला थानक छे ते जावा नो साधन करजे ॥२६॥ हिंदी-अर्द्धचंद्र के आकार वाला सिद्धशिला का स्थान है। वहां जाने का साधन करना। प्रतिपाद्य-सिद्धशिला लंबाई और चौड़ाई में ४५ लाख योजन बीच में आठ योजन है, अंतिम छोर पर मक्खी की पांख से पतली है। उसकी परिधि १४२३०२४९ योजन १ गउ १७ धनुष्य ६ हाथ १३ अंगुल से अधिक है। उज्ज्वल शंख, अंक रत्न, मचकुंद, दूध के झाग, चांदी के पट, चंद्रमा की किरण, दही के मढें से अधिक उज्ज्वल है । अर्धचंद्राकार है ।। ट-टटा पोली खांडेव मूल ---वली तू पोता नू व्रत नियम अडिग आखड़ी गुरु समीपे लीधी ते खाहीस मा । पचखाण नी पोल ना वारणा दृढ़ राखजे ॥२७।। संर २१, अंक ३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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