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________________ इष्ट है, साथ ही देह का परिपालन संयम के निमित्त है, अतः देह का ऐसा परिपालन जिसमें संयम ही समाप्त हो किस काम का ?' तब साधक के लिए सल्लेखना या समाधि-मरण ही एक अन्तिम और उत्तम कार्य शेष रहता है। सल्लेखना का महत्त्व भारतीय नैतिक चिन्तन में जीवन जीने की कला पर तो विचार हुआ ही है साथ ही मृत्यु की कला पर भी कुछ कम चिन्तन नहीं हुआ है। जीवन कैसे जीना चाहिए इसके लिए आचारशास्त्रों की रचना हुई है उनमें ही जीवन का अन्तिम व्रत या आचार के रूप में सल्लेखना या समाधि-मरण का विधान मिलता है। संसार में प्रायः ऐसा देखा जाता है कि लोग बच्चों के जन्म के समय नानाविध मंगलाचरण या महोत्सव का आयोजन कराते हैं, लेकिन उनके मृत्यु के समय किसी प्रकार का मंगलाचरण या महोत्सव नहीं होता प्रत्युत् व्यक्ति मृत्यु के भय से नये जन्म में होने वाले सुख को भी भूला देता है। वस्तुतः इसी कारण भारतीय नैतिक चिन्तकों ने मृत्यु महोत्सव रूप सल्लेखना या समाधि-मरण का विधान किया है। वैदिक परम्परा में प्रायश्चित्त के निमित्त से मृत्युवरण का समर्थन सूत्र" और स्मृति" ग्रन्थों में मिलता है । यह सल्लेखना का ही एक रूप है। बौद्धदर्शन के संयुक्त निकाय२ में असाध्य रोग से पीड़ित भिक्षु वक्कलि कुलपुत्र द्वारा की गयी आत्महत्या का समर्थन बुद्ध ने किया था ऐसा प्रमाण मिलता है। रामायण और महाभारत तथा श्रीमद्भागवत में भी मृत्युवरण देखा जाता है । जैन आगमों में तो सल्लेखना मृत्यु महोत्सव के रूप में वर्णित है । जैन परम्परा के अतिरिक्त वैदिक परम्परा और बौद्ध परम्परा में सल्लेखना धारण करने की जो रीति है (जल एवं अग्नि प्रवेश, गिरि-शिखर पतन, विष या शस्त्र प्रयोग से मृत्युवरण) उसे जैन आचार्यों ने स्वीकार नहीं किया है, क्योंकि इसमें मरणाकांक्षा की संभावना रहती है । अतएव इन सभी बिन्दुओं पर विचार कर जैन आचार्यों ने सामान्यतया केवल उपवास के द्वारा ही देह त्याग करना उत्तम माना है। आचारांग सूत्र में सल्लेखना ग्रहण करने वाले की माध्यस्थवृत्ति का वर्णन करते हुए कहा गया है कि "सल्लेखना में साधक न जीवित रहने की आकांक्षा रखता है, न मृत्यु की प्रार्थना करता है वह जीवन और मरण में आसक्ति रहित होता है अर्थात् जीवन-मृत्यु में समभाव रखता है।" आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि "समस्त मतावलम्बी तप का फल अन्तक्रिया पर ही आधारित बताते हैं, इसलिए पुरुषार्थ भर समाधि-मरण के लिग प्रयास करना चाहिए।"१७ समाधि-मरण में किया गया काय-क्लेश भी आत्मा के कष्ट मिटाने या भावी जीवन को सुखमय बनाने के लिए है ।“ मृत्यु महोत्सव के अनुसार “तपे हुए तप, पालन किए हुए व्रत और पढ़े हुए शास्त्र बिना समाधि-मरण के वृथा है।"१९ . २६४ तुलसी प्रज्ञा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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