SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रसन्न होगा । अपनी दोनों लड़कियों की शादी तुम्हारे साथ कर देगा। प्रतिपाद्य-सम्यक्त्व की सम्यक् आराधना से सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन ओर सम्यक् चारित्र की प्राप्ति होती है। सम्यक्त्व के बिना चारित्र की प्राप्ति नहीं होतीनत्थि परितं सम्मत्त विहूणं, सणे उ भइयग्वं । __ --उत्त. २८१२९ सम्यक् चारित्र के दो भेद हैं—देश विरत और सर्व विरत। आंशिक रूप से व्रत की आराधना करने वाला देशविरत और सम्पूर्ण रूप में व्रत की आराधना करने वाला सर्वविरत कहलाता है। देशविरत श्रावक होता है उसमें पंचम गुणस्थान प्राप्त होता है । सर्व विरत साधु होता है उसमें छट्ठा गुणस्थान पाता है। उ, ऊ- आउ आउ अंकोडा बडे अंकोडे फंकोडा मूल --तिहा संका कंषा रुप अंकोडा, फंकोडा मोटा छे । तेहनी संगत करीस तो समकित मंत्री ना चित मे भ्रम पडसी तो दोहरो थास्ये ॥१२॥ हिंदी सम्यक्त्व के घर में शंका कांक्षा रुप अंकोडा (छोटा लंगर) फकोडा (बड़ा लंगर) हैं। यदि उनकी संगति करेगा तो सम्यक्त्व मंत्री के चित्त में भ्रम पैदा होगा और वह अप्रसन्न होगा। प्रतिपाच-सम्यक्त्व के. पांच अतिचार हैं-शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, पर पाषण्ड प्रशंसा और परपाषण्ड परिचय । ये दर्शन मोहनीय के दोष हैं शंका-लक्ष्य के प्रति संदेह . कांक्षा- लक्ष्य के विपरीत दृष्टिकोण के प्रति अनुरक्ति विचिकित्सा-लक्ष्यपूर्ति के साधनों के प्रति संशयशीलता परपाषण्ड प्रशंसा-- लक्ष्य के प्रतिकूल चलने वालों की प्रशंसा परपाषण्ड संस्तव -- लक्ष्य के प्रतिकूल चलने वालों का परिचय । ये पांच सम्यक्त्व को दूषित करते हैं। इनके कारण सम्यक्त्व से वापस मिथ्यात्व में आ जाता है । चारित्र मोहनीय के दोषों से बचने के उपाय बता रहे हैं। ऋ-नी ली तोड़ कांटाला वडे कांटो भेले बहे मूल-तिहा वले विषय कषाय रुप अथवा ममता माया रुप मोटा विषय ना वेलडा छ । ते माहे कामभोग रुप सर्प सुता छ तेहनै जगडीस मा। इम करता स्वामी सुप्रष्न थया थका तुज ने सिध नगरी नो साथ आपस्ये ॥१३॥ हिन्दी-विषयकषायरूप अथवा ममतामाया रूप बड़ी विषय की बेले हैं। उसमें काम भोग रूप सर्प सोया हुआ है । उसको जगाना मत । ऐसा करने से स्वामी सुप्रसन्न होगा और वह तुमको सिद्ध नगरी जाने के लिए साथी देगा। प्रतिपाच-कषाय, नोकषाय और वेद-इनके उदय से वीतरागता नहीं आती। मोह विलय नहीं होता। इसके उपशम और क्षय से वीतरागता प्राप्त होती है। खण्ड २१, बंक ३ ३०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524585
Book TitleTulsi Prajna 1995 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmeshwar Solanki
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1995
Total Pages174
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy